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शीगणेशायनमः
शीजानकीवललभो िवजयते
शीरामचिरतमानस
िदतीय सोपान
अयोधया-काणड
शलोक
यसयाङे च िवभाित भूधरसुता देवापगा मसतके
भाले बालिवधुगरले च गरलं यसयोरिस वयालराट्।
सोऽयं भूितिवभूषणः सुरवरः सवािधपः सवरदा
शवरः सवरगतः िशवः शिशिनभः शीशङरः पातु माम्।।1।।
पसनता या न गतािभषेकतसतथा न ममले वनवासदुःखतः।
मुखामबुजशी रघुननदनसय मे सदासतु सा मञुलमंगलपदा।।2।।
नीलामबुजशयामलकोमलाङं सीतासमारोिपतवामभागम्।
पाणौ महासायकचारचापं नमािम रामं रघुवशं नाथम्।।3।।
दो0-शीगुर चरन सरोज रज िनज मनु मुकुर सुधािर।
बरनउँ रघुबर िबमल जसु जो दायकु फल चािर।।
जब ते रामु बयािह घर आए। िनत नव मंगल मोद बधाए।।
भुवन चािरदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषिह सुख बारी।।

िरिध िसिध संपित नदी सुहाई। उमिग अवध अंबुिध कहुँ आई।।
मिनगन पुर नर नािर सुजाती। सुिच अमोल सुंदर सब भाती।।
किह न जाइ कछु नगर िबभूती। जनु एतिनअ िबरंिच करतूती।।
सब िबिध सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु िनहारी।।
मुिदत मातु सब सखी सहेली। फिलत िबलोिक मनोरथ बेली।।
राम रपु गुनसीलु सुभाऊ। पमुिदत होइ देिख सुिन राऊ।।
दो0-सब के उर अिभलाषु अस कहिहं मनाइ महेसु।
आप अछत जुबराज पद रामिह देउ नरेसु।।1।।
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एक समय सब सिहत समाजा। राजसभा रघुराजु िबराजा।।
सकल सुकृत मूरित नरनाहू। राम सुजसु सुिन अितिह उछाहू।।
नृप सब रहिहं कृपा अिभलाषे। लोकप करिहं पीित रख राखे।।
ितभुवन तीिन काल जग माही। भूिर भाग दसरथ सम नाही।।
मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु किहज थोर सबु तासू।।
रायँ सुभायँ मुकुर कर लीनहा। बदनु िबलोिक मुकुट सम कीनहा।।
शवन समीप भए िसत केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा।।
नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु िकन लेहू।।
दो0-यह िबचार उर आिन नृप सुिदनु सुअवसर पाइ।
पेम पुलिक तन मुिदत मन गुरिह सुनायउ जाइ।।2।।
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कहइ भुआलु सुिनअ मुिननायक। भए राम सब िबिध सब लायक।।
सेवक सिचव सकल पुरबासी। जे हमारे अिर िमत उदासी।।
सबिह रामु िपय जेिह िबिध मोही। पभु असीस जनु तनु धिर सोही।।
िबप सिहत पिरवार गोसाई। करिहं छोहु सब रौिरिह नाई।।
जे गुर चरन रेनु िसर धरही। ते जनु सकल िबभव बस करही।।
मोिह सम यहु अनुभयउ न दूजे। सबु पायउँ रज पाविन पूजे।।
अब अिभलाषु एकु मन मोरे। पूजिह नाथ अनुगह तोरे।।
मुिन पसन लिख सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू।।
दो0-राजन राउर नामु जसु सब अिभमत दातार।
फल अनुगामी मिहप मिन मन अिभलाषु तुमहार।।3।।
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सब िबिध गुर पसन िजयँ जानी। बोलेउ राउ रहँिस मृदु बानी।।
नाथ रामु किरअिहं जुबराजू। किहअ कृपा किर किरअ समाजू।।
मोिह अछत यहु होइ उछाहू। लहिहं लोग सब लोचन लाहू।।
पभु पसाद िसव सबइ िनबाही। यह लालसा एक मन माही।।
पुिन न सोच तनु रहउ िक जाऊ। जेिहं न होइ पाछे पिछताऊ।।
सुिन मुिन दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए।।
सुनु नृप जासु िबमुख पिछताही। जासु भजन िबनु जरिन न जाही।।
भयउ तुमहार तनय सोइ सवामी। रामु पुनीत पेम अनुगामी।।
दो0-बेिग िबलंबु न किरअ नृप सािजअ सबुइ समाजु।
सुिदन सुमग ं लु तबिहं जब रामु होिहं जुबराजु।।4।।
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मुिदत मिहपित मंिदर आए। सेवक सिचव सुमंतु बोलाए।।
किह जयजीव सीस ितनह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए।।
जौ पाचिह मत लागै नीका। करहु हरिष िहयँ रामिह टीका।।
मंती मुिदत सुनत िपय बानी। अिभमत िबरवँ परेउ जनु पानी।।
िबनती सिचव करिह कर जोरी। िजअहु जगतपित बिरस करोरी।।
जग मंगल भल काजु िबचारा। बेिगअ नाथ न लाइअ बारा।।
नृपिह मोदु सुिन सिचव सुभाषा। बढ़त बौड़ जनु लही सुसाखा।।
दो0-कहेउ भूप मुिनराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।
राम राज अिभषेक िहत बेिग करहु सोइ सोइ।।5।।
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हरिष मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी।।
औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गिन मंगल नाना।।
चामर चरम बसन बहु भाती। रोम पाट पट अगिनत जाती।।
मिनगन मंगल बसतु अनेका। जो जग जोगु भूप अिभषेका।।
बेद िबिदत किह सकल िबधाना। कहेउ रचहु पुर िबिबध िबताना।।
सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीिथनह पुर चहुँ फेरा।।
रचहु मंजु मिन चौके चार। कहहु बनावन बेिग बजार।।
पूजहु गनपित गुर कुलदेवा। सब िबिध करहु भूिमसुर सेवा।।
दो0-धवज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।
िसर धिर मुिनबर बचन सबु िनज िनज काजिहं लाग।।6।।
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जो मुनीस जेिह आयसु दीनहा। सो तेिहं काजु पथम जनु कीनहा।।
िबप साधु सुर पूजत राजा। करत राम िहत मंगल काजा।।
सुनत राम अिभषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा।।
राम सीय तन सगुन जनाए। फरकिहं मंगल अंग सुहाए।।
पुलिक सपेम परसपर कहही। भरत आगमनु सूचक अहही।।
भए बहुत िदन अित अवसेरी। सगुन पतीित भेट िपय केरी।।
भरत सिरस िपय को जग माही। इहइ सगुन फलु दूसर नाही।।
रामिह बंधु सोच िदन राती। अंडिनह कमठ हदउ जेिह भाती।।
दो0-एिह अवसर मंगलु परम सुिन रहँसेउ रिनवासु।
सोभत लिख िबधु बढ़त जनु बािरिध बीिच िबलासु।।7।।
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पथम जाइ िजनह बचन सुनाए। भूषन बसन भूिर ितनह पाए।।
पेम पुलिक तन मन अनुरागी। मंगल कलस सजन सब लागी।।
चौके चार सुिमता पुरी। मिनमय िबिबध भाित अित ररी।।
आनँद मगन राम महतारी। िदए दान बहु िबप हँकारी।।
पूजी गामदेिब सुर नागा। कहेउ बहोिर देन बिलभागा।।
जेिह िबिध होइ राम कलयानू। देहु दया किर सो बरदानू।।
गाविहं मंगल कोिकलबयनी। िबधुबदनी मृगसावकनयनी।।
दो0-राम राज अिभषेकु सुिन िहयँ हरषे नर नािर।
लगे सुमंगल सजन सब िबिध अनुकूल िबचािर।।8।।
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तब नरनाहँ बिसषु बोलाए। रामधाम िसख देन पठाए।।
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। दार आइ पद नायउ माथा।।
सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाित पूिज सनमाने।।
गहे चरन िसय सिहत बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी।।
सेवक सदन सवािम आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू।।
तदिप उिचत जनु बोिल सपीती। पठइअ काज नाथ अिस नीती।।
पभुता तिज पभु कीनह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू।।
आयसु होइ सो करौ गोसाई। सेवक लहइ सवािम सेवकाई।।
दो0-सुिन सनेह साने बचन मुिन रघुबरिह पसंस।
राम कस न तुमह कहहु अस हंस बंस अवतंस।।9।।
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बरिन राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले पेम पुलिक मुिनराऊ।।
भूप सजेउ अिभषेक समाजू। चाहत देन तुमहिह जुबराजू।।
राम करहु सब संजम आजू। जौ िबिध कुसल िनबाहै काजू।।
गुर िसख देइ राय पिहं गयउ। राम हृदयँ अस िबसमउ भयऊ।।
जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केिल लिरकाई।।
करनबेध उपबीत िबआहा। संग संग सब भए उछाहा।।
िबमल बंस यहु अनुिचत एकू। बंधु िबहाइ बड़ेिह अिभषेकू।।
पभु सपेम पिछतािन सुहाई। हरउ भगत मन कै कुिटलाई।।
दो0-तेिह अवसर आए लखन मगन पेम आनंद।
सनमाने िपय बचन किह रघुकुल कैरव चंद।।10।।
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बाजिहं बाजने िबिबध िबधाना। पुर पमोदु निहं जाइ बखाना।।
भरत आगमनु सकल मनाविहं। आवहुँ बेिग नयन फलु पाविहं।।
हाट बाट घर गली अथाई। कहिहं परसपर लोग लोगाई।।
कािल लगन भिल केितक बारा। पूिजिह िबिध अिभलाषु हमारा।।
कनक िसंघासन सीय समेता। बैठिहं रामु होइ िचत चेता।।
सकल कहिहं कब होइिह काली। िबघन मनाविहं देव कुचाली।।
ितनहिह सोहाइ न अवध बधावा। चोरिह चंिदिन राित न भावा।।
सारद बोिल िबनय सुर करही। बारिहं बार पाय लै परही।।
दो0-िबपित हमािर िबलोिक बिड़ मातु किरअ सोइ आजु।
रामु जािहं बन राजु तिज होइ सकल सुरकाजु।।11।।
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सुिन सुर िबनय ठािढ़ पिछताती। भइउँ सरोज िबिपन िहमराती।।
देिख देव पुिन कहिहं िनहोरी। मातु तोिह निहं थोिरउ खोरी।।
िबसमय हरष रिहत रघुराऊ। तुमह जानहु सब राम पभाऊ।।
जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव िहत लागी।।
बार बार गिह चरन सँकोचौ। चली िबचािर िबबुध मित पोची।।
ऊँच िनवासु नीिच करतूती। देिख न सकिहं पराइ िबभूती।।
आिगल काजु िबचािर बहोरी। करहिहं चाह कुसल किब मोरी।।
हरिष हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु गह दसा दुसह दुखदाई।।
दो0-नामु मंथरा मंदमित चेरी कैकेइ केिर।
अजस पेटारी तािह किर गई िगरा मित फेिर।।12।।
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दीख मंथरा नगर बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा।।
पूछेिस लोगनह काह उछाहू। राम ितलकु सुिन भा उर दाहू।।
करइ िबचार कुबुिद कुजाती। होइ अकाजु कविन िबिध राती।।
देिख लािग मधु कुिटल िकराती। िजिम गवँ तकइ लेउँ केिह भाती।।
भरत मातु पिहं गइ िबलखानी। का अनमिन हिस कह हँिस रानी।।
ऊतर देइ न लेइ उसासू। नािर चिरत किर ढारइ आँसू।।
हँिस कह रािन गालु बड़ तोरे। दीनह लखन िसख अस मन मोरे।।
तबहुँ न बोल चेिर बिड़ पािपिन। छाड़इ सवास कािर जनु सािपिन।।
दो0-सभय रािन कह कहिस िकन कुसल रामु मिहपालु।
लखनु भरतु िरपुदमनु सुिन भा कुबरी उर सालु।।13।।
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कत िसख देइ हमिह कोउ माई। गालु करब केिह कर बलु पाई।।
रामिह छािड़ कुसल केिह आजू। जेिह जनेसु देइ जुबराजू।।
भयउ कौिसलिह िबिध अित दािहन। देखत गरब रहत उर नािहन।।
देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोिक मोर मनु छोभा।।
पूतु िबदेस न सोचु तुमहारे। जानित हहु बस नाहु हमारे।।
नीद बहुत िपय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई।।
सुिन िपय बचन मिलन मनु जानी। झुकी रािन अब रहु अरगानी।।
पुिन अस कबहुँ कहिस घरफोरी। तब धिर जीभ कढ़ावउँ तोरी।।
दो0-काने खोरे कूबरे कुिटल कुचाली जािन।
ितय िबसेिष पुिन चेिर किह भरतमातु मुसुकािन।।14।।
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िपयबािदिन िसख दीिनहउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही।।
सुिदनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेिह िदन होई।।
जेठ सवािम सेवक लघु भाई। यह िदनकर कुल रीित सुहाई।।
राम ितलकु जौ साचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली।।
कौसलया सम सब महतारी। रामिह सहज सुभायँ िपआरी।।
मो पर करिहं सनेहु िबसेषी। मै किर पीित परीछा देखी।।
जौ िबिध जनमु देइ किर छोहू। होहुँ राम िसय पूत पुतोहू।।
पान ते अिधक रामु िपय मोरे। ितनह के ितलक छोभु कस तोरे।।
दो0-भरत सपथ तोिह सतय कहु पिरहिर कपट दुराउ।
हरष समय िबसमउ करिस कारन मोिह सुनाउ।।15।।
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एकिहं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ किर दूजी।।
फोरै जोगु कपार अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेिह लागा।।
कहिहं झूिठ फुिर बात बनाई। ते िपय तुमहिह करइ मै माई।।
हमहुँ कहिब अब ठकुरसोहाती। नािहं त मौन रहब िदनु राती।।
किर कुरप िबिध परबस कीनहा। बवा सो लुिनअ लिहअ जो दीनहा।।
कोउ नृप होउ हमिह का हानी। चेिर छािड़ अब होब िक रानी।।
जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देिख न जाइ तुमहारा।।
ताते कछुक बात अनुसारी। छिमअ देिब बिड़ चूक हमारी।।
दो0-गूढ़ कपट िपय बचन सुिन तीय अधरबुिध रािन।
सुरमाया बस बैिरिनिह सुहद जािन पितआिन।।16।।
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सादर पुिन पुिन पूँछित ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही।।
तिस मित िफरी अहइ जिस भाबी। रहसी चेिर घात जनु फाबी।।
तुमह पूँछहु मै कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ।।
सिज पतीित बहुिबिध गिढ़ छोली। अवध साढ़साती तब बोली।।
िपय िसय रामु कहा तुमह रानी। रामिह तुमह िपय सो फुिर बानी।।
रहा पथम अब ते िदन बीते। समउ िफरे िरपु होिहं िपंरीते।।
भानु कमल कुल पोषिनहारा। िबनु जल जािर करइ सोइ छारा।।
जिर तुमहािर चह सवित उखारी। रँधहु किर उपाउ बर बारी।।
दो0-तुमहिह न सोचु सोहाग बल िनज बस जानहु राउ।
मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ।।17।।
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चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ िनज बात सँवारी।।
पठए भरतु भूप निनअउरे। राम मातु मत जानव रउरे।।
सेविहं सकल सवित मोिह नीके। गरिबत भरत मातु बल पी के।।
सालु तुमहार कौिसलिह माई। कपट चतुर निहं होइ जनाई।।
राजिह तुमह पर पेमु िबसेषी। सवित सुभाउ सकइ निहं देखी।।
रची पंपचु भूपिह अपनाई। राम ितलक िहत लगन धराई।।
यह कुल उिचत राम कहुँ टीका। सबिह सोहाइ मोिह सुिठ नीका।।
आिगिल बात समुिझ डर मोही। देउ दैउ िफिर सो फलु ओही।।
दो0-रिच पिच कोिटक कुिटलपन कीनहेिस कपट पबोधु।।
किहिस कथा सत सवित कै जेिह िबिध बाढ़ िबरोधु।।18।।
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भावी बस पतीित उर आई। पूँछ रािन पुिन सपथ देवाई।।
का पूछहुँ तुमह अबहुँ न जाना। िनज िहत अनिहत पसु पिहचाना।।
भयउ पाखु िदन सजत समाजू। तुमह पाई सुिध मोिह सन आजू।।
खाइअ पिहिरअ राज तुमहारे। सतय कहे निहं दोषु हमारे।।
जौ असतय कछु कहब बनाई। तौ िबिध देइिह हमिह सजाई।।
रामिह ितलक कािल जौ भयऊ।þ तुमह कहुँ िबपित बीजु िबिध बयऊ।।
रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भािमिन भइहु दूध कइ माखी।।
जौ सुत सिहत करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई।।
दो0-कदूँ िबनतिह दीनह दुखु तुमहिह कौिसला देब।
भरतु बंिदगृह सेइहिहं लखनु राम के नेब।।19।।
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कैकयसुता सुनत कटु बानी। किह न सकइ कछु सहिम सुखानी।।
तन पसेउ कदली िजिम कापी। कुबरी दसन जीभ तब चापी।।
किह किह कोिटक कपट कहानी। धीरजु धरहु पबोिधिस रानी।।
िफरा करमु िपय लािग कुचाली। बिकिह सराहइ मािन मराली।।
सुनु मंथरा बात फुिर तोरी। दिहिन आँिख िनत फरकइ मोरी।।
िदन पित देखउँ राित कुसपने। कहउँ न तोिह मोह बस अपने।।
काह करौ सिख सूध सुभाऊ। दािहन बाम न जानउँ काऊ।।
दो0-अपने चलत न आजु लिग अनभल काहुक कीनह।
केिहं अघ एकिह बार मोिह दैअँ दुसह दुखु दीनह।।20।।
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नैहर जनमु भरब बर जाइ। िजअत न करिब सवित सेवकाई।।
अिर बस दैउ िजआवत जाही। मरनु नीक तेिह जीवन चाही।।
दीन बचन कह बहुिबिध रानी। सुिन कुबरी ितयमाया ठानी।।
अस कस कहहु मािन मन ऊना। सुखु सोहागु तुमह कहुँ िदन दूना।।
जेिहं राउर अित अनभल ताका। सोइ पाइिह यहु फलु पिरपाका।।
जब ते कुमत सुना मै सवािमिन। भूख न बासर नीद न जािमिन।।
पूँछेउ गुिननह रेख ितनह खाची। भरत भुआल होिहं यह साची।।
भािमिन करहु त कहौ उपाऊ। है तुमहरी सेवा बस राऊ।।
दो0-परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पित तयािग।
कहिस मोर दुखु देिख बड़ कस न करब िहत लािग।।21।।
–*–*–
कुबरी किर कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई।।
लखइ न रािन िनकट दुखु कैसे। चरइ हिरत ितन बिलपसु जैसे।।
सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देित मनहुँ मधु माहुर घोरी।।
कहइ चेिर सुिध अहइ िक नाही। सवािमिन किहहु कथा मोिह पाही।।
दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती।।
सुतिह राजु रामिह बनवासू। देहु लेहु सब सवित हुलासु।।
भूपित राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेिहं बचनु न टरई।।
होइ अकाजु आजु िनिस बीते। बचनु मोर िपय मानेहु जी ते।।
दो0-बड़ कुघातु किर पातिकिन कहेिस कोपगृहँ जाहु।
काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जिन पितआहु।।22।।
–*–*–
कुबिरिह रािन पानिपय जानी। बार बार बिड़ बुिद बखानी।।
तोिह सम िहत न मोर संसारा। बहे जात कइ भइिस अधारा।।
जौ िबिध पुरब मनोरथु काली। करौ तोिह चख पूतिर आली।।
बहुिबिध चेिरिह आदर देई। कोपभवन गविन कैकेई।।
िबपित बीजु बरषा िरतु चेरी। भुइँ भइ कुमित कैकेई केरी।।
पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल पिरनामा।।
कोप समाजु सािज सबु सोई। राजु करत िनज कुमित िबगोई।।
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचािल कछु जान न कोई।।
दो0-पमुिदत पुर नर नािर। सब सजिहं सुमंगलचार।
एक पिबसिहं एक िनगरमिहं भीर भूप दरबार।।23।।
–*–*–
बाल सखा सुन िहयँ हरषाही। िमिल दस पाच राम पिहं जाही।।
पभु आदरिहं पेमु पिहचानी। पूँछिहं कुसल खेम मृदु बानी।।
िफरिहं भवन िपय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई।।
को रघुबीर सिरस संसारा। सीलु सनेह िनबाहिनहारा।
जेिह जेिह जोिन करम बस भमही। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमही।।
सेवक हम सवामी िसयनाहू। होउ नात यह ओर िनबाहू।।
अस अिभलाषु नगर सब काह। ू कैकयसुता हदयँ अित दाह। ू ।
को न कुसंगित पाइ नसाई। रहइ न नीच मते चतुराई।।
दो0-सास समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ।
गवनु िनठुरता िनकट िकय जनु धिर देह सनेहँ।।24।।
–*–*–
कोपभवन सुिन सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ।।
सुरपित बसइ बाहँबल जाके। नरपित सकल रहिहं रख ताके।।
सो सुिन ितय िरस गयउ सुखाई। देखहु काम पताप बड़ाई।।
सूल कुिलस अिस अँगविनहारे। ते रितनाथ सुमन सर मारे।।
सभय नरेसु िपया पिहं गयऊ। देिख दसा दुखु दारन भयऊ।।
भूिम सयन पटु मोट पुराना। िदए डािर तन भूषण नाना।।
कुमितिह किस कुबेषता फाबी। अन अिहवातु सूच जनु भाबी।।
जाइ िनकट नृपु कह मृदु बानी। पानिपया केिह हेतु िरसानी।।
छं0-केिह हेतु रािन िरसािन परसत पािन पितिह नेवारई।
मानहुँ सरोष भुअग ं भािमिन िबषम भाित िनहारई।।
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहर देखई।
तुलसी नृपित भवतबयता बस काम कौतुक लेखई।।
सो0-बार बार कह राउ सुमुिख सुलोिचिन िपकबचिन।
कारन मोिह सुनाउ गजगािमिन िनज कोप कर।।25।।
अनिहत तोर िपया केइँ कीनहा। केिह दुइ िसर केिह जमु चह लीनहा।।
कहु केिह रंकिह करौ नरेसू। कहु केिह नृपिह िनकासौ देसू।।
सकउँ तोर अिर अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी।।
जानिस मोर सुभाउ बरोर। मनु तव आनन चंद चकोर।।
िपया पान सुत सरबसु मोरे। पिरजन पजा सकल बस तोरे।।
जौ कछु कहौ कपटु किर तोही। भािमिन राम सपथ सत मोही।।
िबहिस मागु मनभावित बाता। भूषन सजिह मनोहर गाता।।
घरी कुघरी समुिझ िजयँ देखू। बेिग िपया पिरहरिह कुबेषू।।
दो0-यह सुिन मन गुिन सपथ बिड़ िबहिस उठी मितमंद।
भूषन सजित िबलोिक मृगु मनहँु िकराितिन फंद।।26।।
–*–*–
पुिन कह राउ सुहद िजयँ जानी। पेम पुलिक मृदु मंजुल बानी।।
भािमिन भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा।।
रामिह देउँ कािल जुबराजू। सजिह सुलोचिन मंगल साजू।।
दलिक उठेउ सुिन हदउ कठोर। जनु छुइ गयउ पाक बरतोर।।
ऐिसउ पीर िबहिस तेिह गोई। चोर नािर िजिम पगिट न रोई।।
लखिहं न भूप कपट चतुराई। कोिट कुिटल मिन गुर पढ़ाई।।
जदिप नीित िनपुन नरनाह। ू नािरचिरत जलिनिध अवगाह। ू ।
कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली िबहिस नयन मुहु मोरी।।
दो0-मागु मागु पै कहहु िपय कबहँु न देहु न लेहु।
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु।।27।।
–*–*–
जानेउँ मरमु राउ हँिस कहई। तुमहिह कोहाब परम िपय अहई।।
थाित रािख न मािगहु काऊ। िबसिर गयउ मोिह भोर सुभाऊ।।
झूठेहुँ हमिह दोषु जिन देहू। दुइ कै चािर मािग मकु लेहू।।
रघुकुल रीित सदा चिल आई। पान जाहुँ बर बचनु न जाई।।
निहं असतय सम पातक पुंजा। िगिर सम होिहं िक कोिटक गुज ं ा।।
सतयमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान िबिदत मनु गाए।।
तेिह पर राम सपथ किर आई। सुकृत सनेह अविध रघुराई।।
बात दृढ़ाइ कुमित हँिस बोली। कुमत कुिबहग कुलह जनु खोली।।
दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुिबहंग समाजु।
िभललिन िजिम छाड़न चहित बचनु भयंकर बाजु।।28।।
मासपारायण, तेरहवा िवशाम
–*–*–
सुनहु पानिपय भावत जी का। देहु एक बर भरतिह टीका।।
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।।
तापस बेष िबसेिष उदासी। चौदह बिरस रामु बनबासी।।
सुिन मृदु बचन भूप िहयँ सोकू। सिस कर छुअत िबकल िजिम कोकू।।
गयउ सहिम निहं कछु किह आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा।।
िबबरन भयउ िनपट नरपालू। दािमिन हनेउ मनहँु तर तालू।।
माथे हाथ मूिद दोउ लोचन। तनु धिर सोचु लाग जनु सोचन।।
मोर मनोरथु सुरतर फूला। फरत किरिन िजिम हतेउ समूला।।
अवध उजािर कीिनह कैकेई। दीनहिस अचल िबपित कै नेई।।
दो0-कवने अवसर का भयउ गयउँ नािर िबसवास।
जोग िसिद फल समय िजिम जितिह अिबदा नास।।29।।
–*–*–
एिह िबिध राउ मनिहं मन झाखा। देिख कुभाित कुमित मन माखा।।
भरतु िक राउर पूत न होही। आनेहु मोल बेसािह िक मोही।।
जो सुिन सर अस लाग तुमहारे। काहे न बोलहु बचनु सँभारे।।
देहु उतर अनु करहु िक नाही। सतयसंध तुमह रघुकुल माही।।
देन कहेहु अब जिन बर देहू। तजहुँ सतय जग अपजसु लेहू।।
सतय सरािह कहेहु बर देना। जानेहु लेइिह मािग चबेना।।
िसिब दधीिच बिल जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा।।
अित कटु बचन कहित कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई।।
दो0-धरम धुरध ं र धीर धिर नयन उघारे रायँ।
िसर धुिन लीिनह उसास अिस मारेिस मोिह कुठायँ।।30।।
–*–*–
आगे दीिख जरत िरस भारी। मनहुँ रोष तरवािर उघारी।।
मूिठ कुबुिद धार िनठुराई। धरी कूबरी सान बनाई।।
लखी महीप कराल कठोरा। सतय िक जीवनु लेइिह मोरा।।
बोले राउ किठन किर छाती। बानी सिबनय तासु सोहाती।।
िपया बचन कस कहिस कुभाती। भीर पतीित पीित किर हाती।।
मोरे भरतु रामु दुइ आँखी। सतय कहउँ किर संकर साखी।।
अविस दूतु मै पठइब पाता। ऐहिहं बेिग सुनत दोउ भाता।।
सुिदन सोिध सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई।।
दो0- लोभु न रामिह राजु कर बहुत भरत पर पीित।
मै बड़ छोट िबचािर िजयँ करत रहेउँ नृपनीित।।31।।
–*–*–
राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ।।
मै सबु कीनह तोिह िबनु पूँछे। तेिह ते परेउ मनोरथु छू छे।।
िरस पिरहर अब मंगल साजू। कछु िदन गएँ भरत जुबराजू।।
एकिह बात मोिह दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा।।
अजहुँ हृदय जरत तेिह आँचा। िरस पिरहास िक साचेहुँ साचा।।
कहु तिज रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुिठ साधू।।
तुहूँ सराहिस करिस सनेहू। अब सुिन मोिह भयउ संदेहू।।
जासु सुभाउ अिरिह अनुकूला। सो िकिम किरिह मातु पितकूला।।
दो0- िपया हास िरस पिरहरिह मागु िबचािर िबबेकु।
जेिहं देखा अब नयन भिर भरत राज अिभषेकु।।32।।
–*–*–
िजऐ मीन बर बािर िबहीना। मिन िबनु फिनकु िजऐ दुख दीना।।
कहउँ सुभाउ न छलु मन माही। जीवनु मोर राम िबनु नाही।।
समुिझ देखु िजयँ िपया पबीना। जीवनु राम दरस आधीना।।
सुिन मदु बचन कुमित अित जरई। मनहुँ अनल आहुित घृत परई।।
कहइ करहु िकन कोिट उपाया। इहा न लािगिह राउिर माया।।
देहु िक लेहु अजसु किर नाही। मोिह न बहुत पपंच सोहाही।
रामु साधु तुमह साधु सयाने। राममातु भिल सब पिहचाने।।
जस कौिसला मोर भल ताका। तस फलु उनहिह देउँ किर साका।।
दो0-होत पात मुिनबेष धिर जौ न रामु बन जािहं।
मोर मरनु राउर अजस नृप समुिझअ मन मािहं।।33।।
–*–*–
अस किह कुिटल भई उिठ ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंिगिन बाढ़ी।।
पाप पहार पगट भइ सोई। भरी कोध जल जाइ न जोई।।
दोउ बर कूल किठन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन पचारा।।
ढाहत भूपरप तर मूला। चली िबपित बािरिध अनुकूला।।
लखी नरेस बात फुिर साची। ितय िमस मीचु सीस पर नाची।।
गिह पद िबनय कीनह बैठारी। जिन िदनकर कुल होिस कुठारी।।
मागु माथ अबही देउँ तोही। राम िबरहँ जिन मारिस मोही।।
राखु राम कहुँ जेिह तेिह भाती। नािहं त जिरिह जनम भिर छाती।।
दो0-देखी बयािध असाध नृपु परेउ धरिन धुिन माथ।
कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ।।34।।
–*–*–
बयाकुल राउ िसिथल सब गाता। किरिन कलपतर मनहुँ िनपाता।।
कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन िबनु पानी।।
पुिन कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई।।
जौ अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुमह केिहं बल कहेऊ।।
दुइ िक होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला।।
दािन कहाउब अर कृपनाई। होइ िक खेम कुसल रौताई।।
छाड़हु बचनु िक धीरजु धरहू। जिन अबला िजिम करना करहू।।
तनु ितय तनय धामु धनु धरनी। सतयसंध कहुँ तृन सम बरनी।।
दो0-मरम बचन सुिन राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।
लागेउ तोिह िपसाच िजिम कालु कहावत मोर।।35।।û
–*–*–
चहत न भरत भूपतिह भोरे। िबिध बस कुमित बसी िजय तोरे।।
सो सबु मोर पाप पिरनामू। भयउ कुठाहर जेिहं िबिध बामू।।
सुबस बिसिह िफिर अवध सुहाई। सब गुन धाम राम पभुताई।।
किरहिहं भाइ सकल सेवकाई। होइिह ितहुँ पुर राम बड़ाई।।
तोर कलंकु मोर पिछताऊ। मुएहुँ न िमटिह न जाइिह काऊ।।
अब तोिह नीक लाग कर सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई।।
जब लिग िजऔं कहउँ कर जोरी। तब लिग जिन कछु कहिस बहोरी।।
िफिर पिछतैहिस अंत अभागी। मारिस गाइ नहार लागी।।
दो0-परेउ राउ किह कोिट िबिध काहे करिस िनदानु।
कपट सयािन न कहित कछु जागित मनहुँ मसानु।।36।।
–*–*–
राम राम रट िबकल भुआलू। जनु िबनु पंख िबहंग बेहालू।।
हृदयँ मनाव भोर जिन होई। रामिह जाइ कहै जिन कोई।।
उदउ करहु जिन रिब रघुकुल गुर। अवध िबलोिक सूल होइिह उर।।
भूप पीित कैकइ किठनाई। उभय अविध िबिध रची बनाई।।
िबलपत नृपिह भयउ िभनुसारा। बीना बेनु संख धुिन दारा।।
पढ़िहं भाट गुन गाविहं गायक। सुनत नृपिह जनु लागिहं सायक।।
मंगल सकल सोहािहं न कैसे। सहगािमिनिह िबभूषन जैसे।।
तेिहं िनिस नीद परी निह काहू। राम दरस लालसा उछाहू।।
दो0-दार भीर सेवक सिचव कहिहं उिदत रिब देिख।
जागेउ अजहुँ न अवधपित कारनु कवनु िबसेिष।।37।।
–*–*–
पिछले पहर भूपु िनत जागा। आजु हमिह बड़ अचरजु लागा।।
जाहु सुमंत जगावहु जाई। कीिजअ काजु रजायसु पाई।।
गए सुमंतु तब राउर माही। देिख भयावन जात डेराही।।
धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ िबपित िबषाद बसेरा।।
पूछे कोउ न ऊतर देई। गए जेिहं भवन भूप कैकैई।।
किह जयजीव बैठ िसर नाई। दैिख भूप गित गयउ सुखाई।।
सोच िबकल िबबरन मिह परेऊ। मानहुँ कमल मूलु पिरहरेऊ।।
सिचउ सभीत सकइ निहं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छू छी।।
दो0-परी न राजिह नीद िनिस हेतु जान जगदीसु।
रामु रामु रिट भोर िकय कहइ न मरमु महीसु।।38।।
–*–*–
आनहु रामिह बेिग बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई।।
चलेउ सुमंत राय रख जानी। लखी कुचािल कीिनह कछु रानी।।
सोच िबकल मग परइ न पाऊ। रामिह बोिल किहिह का राऊ।।
उर धिर धीरजु गयउ दुआरे। पूछँिहं सकल देिख मनु मारे।।
समाधानु किर सो सबही का। गयउ जहा िदनकर कुल टीका।।
रामु सुमंतिह आवत देखा। आदर कीनह िपता सम लेखा।।
िनरिख बदनु किह भूप रजाई। रघुकुलदीपिह चलेउ लेवाई।।
रामु कुभाित सिचव सँग जाही। देिख लोग जहँ तहँ िबलखाही।।
दो0-जाइ दीख रघुबस ं मिन नरपित िनपट कुसाजु।।
सहिम परेउ लिख िसंिघिनिह मनहुँ बृद गजराजु।।39।।
–*–*–
सूखिहं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मिनहीन भुअग ं ू।।
सरष समीप दीिख कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गिन लेई।।
करनामय मृदु राम सुभाऊ। पथम दीख दुखु सुना न काऊ।।
तदिप धीर धिर समउ िबचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी।।
मोिह कहु मातु तात दुख कारन। किरअ जतन जेिहं होइ िनवारन।।
सुनहु राम सबु कारन एहू। राजिह तुम पर बहुत सनेहू।।
देन कहेिनह मोिह दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोिह सोहाना।
सो सुिन भयउ भूप उर सोचू। छािड़ न सकिहं तुमहार सँकोचू।।
दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।
सकहु न आयसु धरहु िसर मेटहु किठन कलेसु।।40।।
–*–*–
िनधरक बैिठ कहइ कटु बानी। सुनत किठनता अित अकुलानी।।
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ मिहप मृदु लचछ समाना।।
जनु कठोरपनु धरे सरीर। िसखइ धनुषिबदा बर बीर।।
सब पसंगु रघुपितिह सुनाई। बैिठ मनहुँ तनु धिर िनठुराई।।
मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद िनधानू।।
बोले बचन िबगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग िबभूषन।।
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो िपतु मातु बचन अनुरागी।।
तनय मातु िपतु तोषिनहारा। दुलरभ जनिन सकल संसारा।।
दो0-मुिनगन िमलनु िबसेिष बन सबिह भाित िहत मोर।
तेिह महँ िपतु आयसु बहुिर संमत जननी तोर।।41।।
–*–*–
भरत पानिपय पाविहं राजू। िबिध सब िबिध मोिह सनमुख आजु।
जो न जाउँ बन ऐसेहु काजा। पथम गिनअ मोिह मूढ़ समाजा।।
सेविहं अरँडु कलपतर तयागी। पिरहिर अमृत लेिहं िबषु मागी।।
तेउ न पाइ अस समउ चुकाही। देखु िबचािर मातु मन माही।।
अंब एक दुखु मोिह िबसेषी। िनपट िबकल नरनायकु देखी।।
थोिरिहं बात िपतिह दुख भारी। होित पतीित न मोिह महतारी।।
राउ धीर गुन उदिध अगाधू। भा मोिह ते कछु बड़ अपराधू।।
जाते मोिह न कहत कछु राऊ। मोिर सपथ तोिह कहु सितभाऊ।।
दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमित कुिटल किर जान।
चलइ जोक जल बकगित जदिप सिललु समान।।42।।
–*–*–
रहसी रािन राम रख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई।।
सपथ तुमहार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना।।
तुमह अपराध जोगु निहं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता।।
राम सतय सबु जो कछु कहहू। तुमह िपतु मातु बचन रत अहहू।।
िपतिह बुझाइ कहहु बिल सोई। चौथेपन जेिहं अजसु न होई।।
तुमह सम सुअन सुकृत जेिहं दीनहे। उिचत न तासु िनरादर कीनहे।।
लागिहं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयािदक तीरथ जैसे।।
रामिह मातु बचन सब भाए। िजिम सुरसिर गत सिलल सुहाए।।
दो0-गइ मुरछा रामिह सुिमिर नृप िफिर करवट लीनह।
सिचव राम आगमन किह िबनय समय सम कीनह।।43।।
–*–*–
अविनप अकिन रामु पगु धारे। धिर धीरजु तब नयन उघारे।।
सिचवँ सँभािर राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु िनहारे।।
िलए सनेह िबकल उर लाई। गै मिन मनहुँ फिनक िफिर पाई।।
रामिह िचतइ रहेउ नरनाहू। चला िबलोचन बािर पबाहू।।
सोक िबबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारिहं बारा।।
िबिधिह मनाव राउ मन माही। जेिहं रघुनाथ न कानन जाही।।
सुिमिर महेसिह कहइ िनहोरी। िबनती सुनहु सदािसव मोरी।।
आसुतोष तुमह अवढर दानी। आरित हरहु दीन जनु जानी।।
दो0-तुमह पेरक सब के हृदयँ सो मित रामिह देहु।
बचनु मोर तिज रहिह घर पिरहिर सीलु सनेहु।।44।।
–*–*–
अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बर सुरपुर जाऊ।।
सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जिन होही।।
अस मन गुनइ राउ निहं बोला। पीपर पात सिरस मनु डोला।।
रघुपित िपतिह पेमबस जानी। पुिन कछु किहिह मातु अनुमानी।।
देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन िबनीत िबचारी।।
तात कहउँ कछु करउँ िढठाई। अनुिचतु छमब जािन लिरकाई।।
अित लघु बात लािग दुखु पावा। काहुँ न मोिह किह पथम जनावा।।
देिख गोसाइँिह पूँिछउँ माता। सुिन पसंगु भए सीतल गाता।।
दो0-मंगल समय सनेह बस सोच पिरहिरअ तात।
आयसु देइअ हरिष िहयँ किह पुलके पभु गात।।45।।
–*–*–
धनय जनमु जगतीतल तासू। िपतिह पमोदु चिरत सुिन जासू।।
चािर पदारथ करतल ताके। िपय िपतु मातु पान सम जाके।।
आयसु पािल जनम फलु पाई। ऐहउँ बेिगिहं होउ रजाई।।
िबदा मातु सन आवउँ मागी। चिलहउँ बनिह बहुिर पग लागी।।
अस किह राम गवनु तब कीनहा। भूप सोक बसु उतर न दीनहा।।
नगर बयािप गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी।।
सुिन भए िबकल सकल नर नारी। बेिल िबटप िजिम देिख दवारी।।
जो जहँ सुनइ धुनइ िसर सोई। बड़ िबषादु निहं धीरजु होई।।
दो0-मुख सुखािहं लोचन सतविह सोकु न हृदयँ समाइ।
मनहँु ०करन रस कटकई उतरी अवध बजाइ।।46।।
–*–*–
िमलेिह माझ िबिध बात बेगारी। जहँ तहँ देिहं कैकेइिह गारी।।
एिह पािपिनिह बूिझ का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ।।
िनज कर नयन कािढ़ चह दीखा। डािर सुधा िबषु चाहत चीखा।।
कुिटल कठोर कुबुिद अभागी। भइ रघुबस ं बेनु बन आगी।।
पालव बैिठ पेड़ु एिहं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धिर ठाटा।।
सदा रामु एिह पान समाना। कारन कवन कुिटलपनु ठाना।।
सतय कहिहं किब नािर सुभाऊ। सब िबिध अगहु अगाध दुराऊ।।
िनज पितिबंबु बरकु गिह जाई। जािन न जाइ नािर गित भाई।।
दो0-काह न पावकु जािर सक का न समुद समाइ।
का न करै अबला पबल केिह जग कालु न खाइ।।47।।
–*–*–
का सुनाइ िबिध काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा।।
एक कहिहं भल भूप न कीनहा। बर िबचािर निहं कुमितिह दीनहा।।
जो हिठ भयउ सकल दुख भाजनु। अबला िबबस गयानु गुनु गा जनु।।
एक धरम परिमित पिहचाने। नृपिह दोसु निहं देिहं सयाने।।
िसिब दधीिच हिरचंद कहानी। एक एक सन कहिहं बखानी।।
एक भरत कर संमत कहही। एक उदास भायँ सुिन रहही।।
कान मूिद कर रद गिह जीहा। एक कहिहं यह बात अलीहा।।
सुकृत जािहं अस कहत तुमहारे। रामु भरत कहुँ पानिपआरे।।
दो0-चंदु चवै बर अनल कन सुधा होइ िबषतूल।
सपनेहुँ कबहुँ न करिहं िकछु भरतु राम पितकूल।।48।।
–*–*–
एक िबधातिहं दूषनु देही। सुधा देखाइ दीनह िबषु जेही।।
खरभर नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर िमटा उछाहू।।
िबपबधू कुलमानय जठेरी। जे िपय परम कैकेई केरी।।
लगी देन िसख सीलु सराही। बचन बानसम लागिहं ताही।।
भरतु न मोिह िपय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना।।
करहु राम पर सहज सनेहू। केिहं अपराध आजु बनु देहू।।
कबहुँ न िकयहु सवित आरेसू। पीित पतीित जान सबु देसू।।
कौसलया अब काह िबगारा। तुमह जेिह लािग बज पुर पारा।।
दो0-सीय िक िपय सँगु पिरहिरिह लखनु िक रिहहिहं धाम।
राजु िक भूँजब भरत पुर नृपु िक िजइिह िबनु राम।।49।।
–*–*–
अस िबचािर उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोिठ जिन होहू।।
भरतिह अविस देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू।।
नािहन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन िबषय रस रखे।।
गुर गृह बसहुँ रामु तिज गेह।
ू नृप सन अस बर दूसर लेह। ू ।
जौ निहं लिगहहु कहे हमारे। निहं लािगिह कछु हाथ तुमहारे।।
जौ पिरहास कीिनह कछु होई। तौ किह पगट जनावहु सोई।।
राम सिरस सुत कानन जोगू। काह किहिह सुिन तुमह कहुँ लोगू।।
उठहु बेिग सोइ करहु उपाई। जेिह िबिध सोकु कलंकु नसाई।।
छं0-जेिह भाित सोकु कलंकु जाइ उपाय किर कुल पालही।
हिठ फेर रामिह जात बन जिन बात दूसिर चालही।।
िजिम भानु िबनु िदनु पान िबनु तनु चंद िबनु िजिम जािमनी।
ितिम अवध तुलसीदास पभु िबनु समुिझ धौ िजयँ भािमनी।।
सो0-सिखनह िसखावनु दीनह सुनत मधुर पिरनाम िहत।
तेइँ कछु कान न कीनह कुिटल पबोधी कूबरी।।50।।
उतर न देइ दुसह िरस रखी। मृिगनह िचतव जनु बािघिन भूखी।।
बयािध असािध जािन ितनह तयागी। चली कहत मितमंद अभागी।।
राजु करत यह दैअँ िबगोई। कीनहेिस अस जस करइ न कोई।।
एिह िबिध िबलपिहं पुर नर नारी। देिहं कुचािलिह कोिटक गारी।।
जरिहं िबषम जर लेिहं उसासा। कविन राम िबनु जीवन आसा।।
िबपुल िबयोग पजा अकुलानी। जनु जलचर गन सूखत पानी।।
अित िबषाद बस लोग लोगाई। गए मातु पिहं रामु गोसाई।।
मुख पसन िचत चौगुन चाऊ। िमटा सोचु जिन राखै राऊ।।
दो-नव गयंदु रघुबीर मनु राजु अलान समान।
छू ट जािन बन गवनु सुिन उर अनंदु अिधकान।।51।।
रघुकुलितलक जोिर दोउ हाथा। मुिदत मातु पद नायउ माथा।।
दीिनह असीस लाइ उर लीनहे। भूषन बसन िनछाविर कीनहे।।
बार बार मुख चुंबित माता। नयन नेह जलु पुलिकत गाता।।
गोद रािख पुिन हृदयँ लगाए। सतवत पेनरस पयद सुहाए।।
पेमु पमोदु न कछु किह जाई। रंक धनद पदबी जनु पाई।।
सादर सुंदर बदनु िनहारी। बोली मधुर बचन महतारी।।
कहहु तात जननी बिलहारी। कबिहं लगन मुद मंगलकारी।।
सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई। जनम लाभ कइ अविध अघाई।।
दो0- जेिह चाहत नर नािर सब अित आरत एिह भाित।
िजिम चातक चातिक तृिषत बृिष सरद िरतु सवाित।।52।।
–*–*–
तात जाउँ बिल बेिग नहाह। ू जो मन भाव मधुर कछु खाह। ू ।
िपतु समीप तब जाएहु भैआ। भइ बिड़ बार जाइ बिल मैआ।।
मातु बचन सुिन अित अनुकूला। जनु सनेह सुरतर के फूला।।
सुख मकरंद भरे िशयमूला। िनरिख राम मनु भवरँ न भूला।।
धरम धुरीन धरम गित जानी। कहेउ मातु सन अित मृदु बानी।।
िपता दीनह मोिह कानन राजू। जहँ सब भाित मोर बड़ काजू।।
आयसु देिह मुिदत मन माता। जेिहं मुद मंगल कानन जाता।।
जिन सनेह बस डरपिस भोरे। आनँदु अंब अनुगह तोरे।।
दो0-बरष चािरदस िबिपन बिस किर िपतु बचन पमान।
आइ पाय पुिन देिखहउँ मनु जिन करिस मलान।।53।।
–*–*–
बचन िबनीत मधुर रघुबर के। सर सम लगे मातु उर करके।।
सहिम सूिख सुिन सीतिल बानी। िजिम जवास परे पावस पानी।।
किह न जाइ कछु हृदय िबषादू। मनहुँ मृगी सुिन केहिर नादू।।
नयन सजल तन थर थर कापी। माजिह खाइ मीन जनु मापी।।
धिर धीरजु सुत बदनु िनहारी। गदगद बचन कहित महतारी।।
तात िपतिह तुमह पानिपआरे। देिख मुिदत िनत चिरत तुमहारे।।
राजु देन कहुँ सुभ िदन साधा। कहेउ जान बन केिहं अपराधा।।
तात सुनावहु मोिह िनदानू। को िदनकर कुल भयउ कृसानू।।
दो0-िनरिख राम रख सिचवसुत कारनु कहेउ बुझाइ।
सुिन पसंगु रिह मूक िजिम दसा बरिन निहं जाइ।।54।।
–*–*–
रािख न सकइ न किह सक जाहू। दुहूँ भाित उर दारन दाहू।।
िलखत सुधाकर गा िलिख राहू। िबिध गित बाम सदा सब काहू।।
धरम सनेह उभयँ मित घेरी। भइ गित साप छुछुदं िर केरी।।
राखउँ सुतिह करउँ अनुरोधू। धरमु जाइ अर बंधु िबरोधू।।
कहउँ जान बन तौ बिड़ हानी। संकट सोच िबबस भइ रानी।।
बहुिर समुिझ ितय धरमु सयानी। रामु भरतु दोउ सुत सम जानी।।
सरल सुभाउ राम महतारी। बोली बचन धीर धिर भारी।।
तात जाउँ बिल कीनहेहु नीका। िपतु आयसु सब धरमक टीका।।
दो0-राजु देन किह दीनह बनु मोिह न सो दुख लेसु।
तुमह िबनु भरतिह भूपितिह पजिह पचंड कलेसु।।55।।
–*–*–
जौ केवल िपतु आयसु ताता। तौ जिन जाहु जािन बिड़ माता।।
जौ िपतु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना।।
िपतु बनदेव मातु बनदेवी। खग मृग चरन सरोरह सेवी।।
अंतहुँ उिचत नृपिह बनबासू। बय िबलोिक िहयँ होइ हरासू।।
बड़भागी बनु अवध अभागी। जो रघुबस ं ितलक तुमह तयागी।।
जौ सुत कहौ संग मोिह लेहू। तुमहरे हृदयँ होइ संदेहू।।
पूत परम िपय तुमह सबही के। पान पान के जीवन जी के।।
ते तुमह कहहु मातु बन जाऊँ। मै सुिन बचन बैिठ पिछताऊँ।।
दो0-यह िबचािर निहं करउँ हठ झूठ सनेहु बढ़ाइ।
मािन मातु कर नात बिल सुरित िबसिर जिन जाइ।।56।।
–*–*–
देव िपतर सब तुनहिह गोसाई। राखहुँ पलक नयन की नाई।।
अविध अंबु िपय पिरजन मीना। तुमह करनाकर धरम धुरीना।।
अस िबचािर सोइ करहु उपाई। सबिह िजअत जेिहं भेटेहु आई।।
जाहु सुखेन बनिह बिल जाऊँ। किर अनाथ जन पिरजन गाऊँ।।
सब कर आजु सुकृत फल बीता। भयउ कराल कालु िबपरीता।।
बहुिबिध िबलिप चरन लपटानी। परम अभािगिन आपुिह जानी।।
दारन दुसह दाहु उर बयापा। बरिन न जािहं िबलाप कलापा।।
राम उठाइ मातु उर लाई। किह मृदु बचन बहुिर समुझाई।।
दो0-समाचार तेिह समय सुिन सीय उठी अकुलाइ।
जाइ सासु पद कमल जुग बंिद बैिठ िसर नाइ।।57।।
–*–*–
दीिनह असीस सासु मृदु बानी। अित सुकुमािर देिख अकुलानी।।
बैिठ निमतमुख सोचित सीता। रप रािस पित पेम पुनीता।।
चलन चहत बन जीवननाथू। केिह सुकृती सन होइिह साथू।।
की तनु पान िक केवल पाना। िबिध करतबु कछु जाइ न जाना।।
चार चरन नख लेखित धरनी। नूपुर मुखर मधुर किब बरनी।।
मनहँु पेम बस िबनती करही। हमिह सीय पद जिन पिरहरही।।
मंजु िबलोचन मोचित बारी। बोली देिख राम महतारी।।
तात सुनहु िसय अित सुकुमारी। सासु ससुर पिरजनिह िपआरी।।
दो0-िपता जनक भूपाल मिन ससुर भानुकुल भानु।
पित रिबकुल कैरव िबिपन िबधु गुन रप िनधानु।।58।।
–*–*–
मै पुिन पुतबधू िपय पाई। रप रािस गुन सील सुहाई।।
नयन पुतिर किर पीित बढ़ाई। राखेउँ पान जािनिकिहं लाई।।
कलपबेिल िजिम बहुिबिध लाली। सीिच सनेह सिलल पितपाली।।
फूलत फलत भयउ िबिध बामा। जािन न जाइ काह पिरनामा।।
पलँग पीठ तिज गोद िहंड़ोरा। िसयँ न दीनह पगु अविन कठोरा।।
िजअनमूिर िजिम जोगवत रहऊँ। दीप बाित निहं टारन कहऊँ।।
सोइ िसय चलन चहित बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा।
चंद िकरन रस रिसक चकोरी। रिब रख नयन सकइ िकिम जोरी।।
दो0-किर केहिर िनिसचर चरिहं दुष जंतु बन भूिर।
िबष बािटका िक सोह सुत सुभग सजीविन मूिर।।59।।
–*–*–
बन िहत कोल िकरात िकसोरी। रची िबरंिच िबषय सुख भोरी।।
पाइन कृिम िजिम किठन सुभाऊ। ितनहिह कलेसु न कानन काऊ।।
कै तापस ितय कानन जोगू। िजनह तप हेतु तजा सब भोगू।।
िसय बन बिसिह तात केिह भाती। िचतिलिखत किप देिख डेराती।।
सुरसर सुभग बनज बन चारी। डाबर जोगु िक हंसकुमारी।।
अस िबचािर जस आयसु होई। मै िसख देउँ जानिकिह सोई।।
जौ िसय भवन रहै कह अंबा। मोिह कहँ होइ बहुत अवलंबा।।
सुिन रघुबीर मातु िपय बानी। सील सनेह सुधा जनु सानी।।
दो0-किह िपय बचन िबबेकमय कीिनह मातु पिरतोष।
लगे पबोधन जानिकिह पगिट िबिपन गुन दोष।।60।।
मासपारायण, चौदहवा िवशाम
–*–*–
मातु समीप कहत सकुचाही। बोले समउ समुिझ मन माही।।
राजकुमािर िसखावन सुनहू। आन भाित िजयँ जिन कछु गुनहू।।
आपन मोर नीक जौ चहहू। बचनु हमार मािन गृह रहहू।।
आयसु मोर सासु सेवकाई। सब िबिध भािमिन भवन भलाई।।
एिह ते अिधक धरमु निहं दूजा। सादर सासु ससुर पद पूजा।।
जब जब मातु किरिह सुिध मोरी। होइिह पेम िबकल मित भोरी।।
तब तब तुमह किह कथा पुरानी। सुंदिर समुझाएहु मृदु बानी।।
कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही। सुमुिख मातु िहत राखउँ तोही।।
दो0-गुर शुित संमत धरम फलु पाइअ िबनिहं कलेस।
हठ बस सब संकट सहे गालव नहुष नरेस।।61।।
–*–*–
मै पुिन किर पवान िपतु बानी। बेिग िफरब सुनु सुमुिख सयानी।।
िदवस जात निहं लािगिह बारा। सुंदिर िसखवनु सुनहु हमारा।।
जौ हठ करहु पेम बस बामा। तौ तुमह दुखु पाउब पिरनामा।।
काननु किठन भयंकर भारी। घोर घामु िहम बािर बयारी।।
कुस कंटक मग काकर नाना। चलब पयादेिहं िबनु पदताना।।
चरन कमल मुदु मंजु तुमहारे। मारग अगम भूिमधर भारे।।
कंदर खोह नदी नद नारे। अगम अगाध न जािहं िनहारे।।
भालु बाघ बृक केहिर नागा। करिहं नाद सुिन धीरजु भागा।।
दो0-भूिम सयन बलकल बसन असनु कंद फल मूल।
ते िक सदा सब िदन िमिलिहं सबुइ समय अनुकूल।।62।।
–*–*–
नर अहार रजनीचर चरही। कपट बेष िबिध कोिटक करही।।
लागइ अित पहार कर पानी। िबिपन िबपित निहं जाइ बखानी।।
बयाल कराल िबहग बन घोरा। िनिसचर िनकर नािर नर चोरा।।
डरपिहं धीर गहन सुिध आएँ। मृगलोचिन तुमह भीर सुभाएँ।।
हंसगविन तुमह निहं बन जोगू। सुिन अपजसु मोिह देइिह लोगू।।
मानस सिलल सुधा पितपाली। िजअइ िक लवन पयोिध मराली।।
नव रसाल बन िबहरनसीला। सोह िक कोिकल िबिपन करीला।।
रहहु भवन अस हृदयँ िबचारी। चंदबदिन दुखु कानन भारी।।
दो0-सहज सुहद गुर सवािम िसख जो न करइ िसर मािन।।
सो पिछताइ अघाइ उर अविस होइ िहत हािन।।63।।
–*–*–
सुिन मृदु बचन मनोहर िपय के। लोचन लिलत भरे जल िसय के।।
सीतल िसख दाहक भइ कैसे। चकइिह सरद चंद िनिस जैसे।।
उतर न आव िबकल बैदेही। तजन चहत सुिच सवािम सनेही।।
बरबस रोिक िबलोचन बारी। धिर धीरजु उर अविनकुमारी।।
लािग सासु पग कह कर जोरी। छमिब देिब बिड़ अिबनय मोरी।।
दीिनह पानपित मोिह िसख सोई। जेिह िबिध मोर परम िहत होई।।
मै पुिन समुिझ दीिख मन माही। िपय िबयोग सम दुखु जग नाही।।
दो0- पाननाथ करनायतन सुंदर सुखद सुजान।
तुमह िबनु रघुकुल कुमुद िबधु सुरपुर नरक समान।।64।।
–*–*–
मातु िपता भिगनी िपय भाई। िपय पिरवार सुहद समुदाई।।
सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुंदर सुसील सुखदाई।।
जहँ लिग नाथ नेह अर नाते। िपय िबनु ितयिह तरिनहु ते ताते।।
तनु धनु धामु धरिन पुर राजू। पित िबहीन सबु सोक समाजू।।
भोग रोगसम भूषन भार। जम जातना सिरस संसार।।
पाननाथ तुमह िबनु जग माही। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाही।।
िजय िबनु देह नदी िबनु बारी। तैिसअ नाथ पुरष िबनु नारी।।
नाथ सकल सुख साथ तुमहारे। सरद िबमल िबधु बदनु िनहारे।।
दो0-खग मृग पिरजन नगर बनु बलकल िबमल दुकूल।
नाथ साथ सुरसदन सम परनसाल सुख मूल।।65।।
–*–*–
बनदेवी बनदेव उदारा। किरहिहं सासु ससुर सम सारा।।
कुस िकसलय साथरी सुहाई। पभु सँग मंजु मनोज तुराई।।
कंद मूल फल अिमअ अहार। अवध सौध सत सिरस पहार।।
िछनु िछनु पभु पद कमल िबलोिक। रिहहउँ मुिदत िदवस िजिम कोकी।।
बन दुख नाथ कहे बहुतेरे। भय िबषाद पिरताप घनेरे।।
पभु िबयोग लवलेस समाना। सब िमिल होिहं न कृपािनधाना।।
अस िजयँ जािन सुजान िसरोमिन। लेइअ संग मोिह छािड़अ जिन।।
िबनती बहत ु करौ का सवामी। करनामय उर अंतरजामी।।
दो0-रािखअ अवध जो अविध लिग रहत न जिनअिहं पान।
दीनबंधु संदर सुखद सील सनेह िनधान।।66।।
–*–*–
मोिह मग चलत न होइिह हारी। िछनु िछनु चरन सरोज िनहारी।।
सबिह भाित िपय सेवा किरहौ। मारग जिनत सकल शम हिरहौ।।
पाय पखारी बैिठ तर छाही। किरहउँ बाउ मुिदत मन माही।।
शम कन सिहत सयाम तनु देखे। कहँ दुख समउ पानपित पेखे।।
सम मिह तृन तरपललव डासी। पाग पलोिटिह सब िनिस दासी।।
बारबार मृदु मूरित जोही। लागिह तात बयािर न मोही।
को पभु सँग मोिह िचतविनहारा। िसंघबधुिह िजिम ससक िसआरा।।
मै सुकुमािर नाथ बन जोगू। तुमहिह उिचत तप मो कहुँ भोगू।।
दो0-ऐसेउ बचन कठोर सुिन जौ न हदउ िबलगान।
तौ पभु िबषम िबयोग दुख सिहहिहं पावँर पान।।67।।
–*–*–

अस किह सीय िबकल भइ भारी। बचन िबयोगु न सकी सँभारी।।


देिख दसा रघुपित िजयँ जाना। हिठ राखे निहं रािखिह पाना।।
कहेउ कृपाल भानुकुलनाथा। पिरहिर सोचु चलहु बन साथा।।
निहं िबषाद कर अवसर आजू। बेिग करहु बन गवन समाजू।।
किह िपय बचन िपया समुझाई। लगे मातु पद आिसष पाई।।
बेिग पजा दुख मेटब आई। जननी िनठुर िबसिर जिन जाई।।
िफरिह दसा िबिध बहुिर िक मोरी। देिखहउँ नयन मनोहर जोरी।।
सुिदन सुघरी तात कब होइिह। जननी िजअत बदन िबधु जोइिह।।
दो0-बहुिर बचछ किह लालु किह रघुपित रघुबर तात।
कबिहं बोलाइ लगाइ िहयँ हरिष िनरिखहउँ गात।।68।।
–*–*–
लिख सनेह कातिर महतारी। बचनु न आव िबकल भइ भारी।।
राम पबोधु कीनह िबिध नाना। समउ सनेहु न जाइ बखाना।।
तब जानकी सासु पग लागी। सुिनअ माय मै परम अभागी।।
सेवा समय दैअँ बनु दीनहा। मोर मनोरथु सफल न कीनहा।।
तजब छोभु जिन छािड़अ छोहू। करमु किठन कछु दोसु न मोहू।।
सुिन िसय बचन सासु अकुलानी। दसा कविन िबिध कहौ बखानी।।
बारिह बार लाइ उर लीनही। धिर धीरजु िसख आिसष दीनही।।
अचल होउ अिहवातु तुमहारा। जब लिग गंग जमुन जल धारा।।
दो0-सीतिह सासु असीस िसख दीिनह अनेक पकार।
चली नाइ पद पदुम िसर अित िहत बारिहं बार।।69।।
–*–*–
समाचार जब लिछमन पाए। बयाकुल िबलख बदन उिठ धाए।।
कंप पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अित पेम अधीरा।।
किह न सकत कछु िचतवत ठाढ़े। मीनु दीन जनु जल ते काढ़े।।
सोचु हृदयँ िबिध का होिनहारा। सबु सुखु सुकृत िसरान हमारा।।
मो कहुँ काह कहब रघुनाथा। रिखहिहं भवन िक लेहिहं साथा।।
राम िबलोिक बंधु कर जोरे। देह गेह सब सन तृनु तोरे।।
बोले बचनु राम नय नागर। सील सनेह सरल सुख सागर।।
तात पेम बस जिन कदराहू। समुिझ हृदयँ पिरनाम उछाहू।।
दो0-मातु िपता गुर सवािम िसख िसर धिर करिह सुभायँ।
लहेउ लाभु ितनह जनम कर नतर जनमु जग जायँ।।70।।
–*–*–
अस िजयँ जािन सुनहु िसख भाई। करहु मातु िपतु पद सेवकाई।।
भवन भरतु िरपुसूदन नाही। राउ बृद मम दुखु मन माही।।
मै बन जाउँ तुमहिह लेइ साथा। होइ सबिह िबिध अवध अनाथा।।
गुर िपतु मातु पजा पिरवार। सब कहुँ परइ दुसह दुख भार।।
रहहु करहु सब कर पिरतोषू। नतर तात होइिह बड़ दोषू।।
जासु राज िपय पजा दुखारी। सो नृपु अविस नरक अिधकारी।।
रहहु तात अिस नीित िबचारी। सुनत लखनु भए बयाकुल भारी।।
िसअरे बचन सूिख गए कैसे। परसत तुिहन तामरसु जैसे।।
दो0-उतर न आवत पेम बस गहे चरन अकुलाइ।
नाथ दासु मै सवािम तुमह तजहु त काह बसाइ।।71।।
–*–*–
दीिनह मोिह िसख नीिक गोसाई। लािग अगम अपनी कदराई।।
नरबर धीर धरम धुर धारी। िनगम नीित कहुँ ते अिधकारी।।
मै िससु पभु सनेहँ पितपाला। मंदर मेर िक लेिहं मराला।।
गुर िपतु मातु न जानउँ काहू। कहउँ सुभाउ नाथ पितआहू।।
जहँ लिग जगत सनेह सगाई। पीित पतीित िनगम िनजु गाई।।
मोरे सबइ एक तुमह सवामी। दीनबंधु उर अंतरजामी।।
धरम नीित उपदेिसअ ताही। कीरित भूित सुगित िपय जाही।।
मन कम बचन चरन रत होई। कृपािसंधु पिरहिरअ िक सोई।।
दो0-करनािसंधु सुबध ं के सुिन मृदु बचन िबनीत।
समुझाए उर लाइ पभु जािन सनेहँ सभीत।।72।।
–*–*–
मागहु िबदा मातु सन जाई। आवहु बेिग चलहु बन भाई।।
मुिदत भए सुिन रघुबर बानी। भयउ लाभ बड़ गइ बिड़ हानी।।
हरिषत हदयँ मातु पिहं आए। मनहुँ अंध िफिर लोचन पाए।
जाइ जनिन पग नायउ माथा। मनु रघुनदं न जानिक साथा।।
पूँछे मातु मिलन मन देखी। लखन कही सब कथा िबसेषी।।
गई सहिम सुिन बचन कठोरा। मृगी देिख दव जनु चहु ओरा।।
लखन लखेउ भा अनरथ आजू। एिहं सनेह बस करब अकाजू।।
मागत िबदा सभय सकुचाही। जाइ संग िबिध किहिह िक नाही।।
दो0-समुिझ सुिमता राम िसय रप सुसीलु सुभाउ।
नृप सनेहु लिख धुनेउ िसर पािपिन दीनह कुदाउ।।73।।
–*–*–
धीरजु धरेउ कुअवसर जानी। सहज सुहद बोली मृदु बानी।।
तात तुमहािर मातु बैदेही। िपता रामु सब भाित सनेही।।
अवध तहा जहँ राम िनवासू। तहँइँ िदवसु जहँ भानु पकासू।।
जौ पै सीय रामु बन जाही। अवध तुमहार काजु कछु नािहं।।
गुर िपतु मातु बंधु सुर साई। सेइअिहं सकल पान की नाई।।
रामु पानिपय जीवन जी के। सवारथ रिहत सखा सबही कै।।
पूजनीय िपय परम जहा ते। सब मािनअिहं राम के नाते।।
अस िजयँ जािन संग बन जाहू। लेहु तात जग जीवन लाहू।।
दो0-भूिर भाग भाजनु भयहु मोिह समेत बिल जाउँ।
जौम तुमहरे मन छािड़ छलु कीनह राम पद ठाउँ।।74।।
–*–*–
पुतवती जुबती जग सोई। रघुपित भगतु जासु सुतु होई।।
नतर बाझ भिल बािद िबआनी। राम िबमुख सुत ते िहत जानी।।
तुमहरेिहं भाग रामु बन जाही। दूसर हेतु तात कछु नाही।।
सकल सुकृत कर बड़ फलु एह। ू राम सीय पद सहज सनेह। ू ।
राग रोषु इिरषा मदु मोहू। जिन सपनेहुँ इनह के बस होहू।।
सकल पकार िबकार िबहाई। मन कम बचन करेहु सेवकाई।।
तुमह कहुँ बन सब भाित सुपासू। सँग िपतु मातु रामु िसय जासू।।
जेिहं न रामु बन लहिहं कलेसू। सुत सोइ करेहु इहइ उपदेसू।।
छं0-उपदेसु यहु जेिहं तात तुमहरे राम िसय सुख पावही।
िपतु मातु िपय पिरवार पुर सुख सुरित बन िबसरावही।
तुलसी पभुिह िसख देइ आयसु दीनह पुिन आिसष दई।
रित होउ अिबरल अमल िसय रघुबीर पद िनत िनत नई।।
सो0-मातु चरन िसर नाइ चले तुरत संिकत हृदयँ।
बागुर िबषम तोराइ मनहुँ भाग मृगु भाग बस।।75।।
गए लखनु जहँ जानिकनाथू। भे मन मुिदत पाइ िपय साथू।।
बंिद राम िसय चरन सुहाए। चले संग नृपमंिदर आए।।
कहिहं परसपर पुर नर नारी। भिल बनाइ िबिध बात िबगारी।।
तन कृस दुखु बदन मलीने। िबकल मनहुँ माखी मधु छीने।।
कर मीजिहं िसर धुिन पिछताही। जनु िबन पंख िबहग अकुलाही।।
भइ बिड़ भीर भूप दरबारा। बरिन न जाइ िबषादु अपारा।।
सिचवँ उठाइ राउ बैठारे। किह िपय बचन रामु पगु धारे।।
िसय समेत दोउ तनय िनहारी। बयाकुल भयउ भूिमपित भारी।।
दो0-सीय सिहत सुत सुभग दोउ देिख देिख अकुलाइ।
बारिहं बार सनेह बस राउ लेइ उर लाइ।।76।।
–*–*–
सकइ न बोिल िबकल नरनाह। ू सोक जिनत उर दारन दाह। ू ।
नाइ सीसु पद अित अनुरागा। उिठ रघुबीर िबदा तब मागा।।
िपतु असीस आयसु मोिह दीजै। हरष समय िबसमउ कत कीजै।।
तात िकएँ िपय पेम पमादू। जसु जग जाइ होइ अपबादू।।
सुिन सनेह बस उिठ नरनाहा। बैठारे रघुपित गिह बाहा।।
सुनहु तात तुमह कहुँ मुिन कहही। रामु चराचर नायक अहही।।
सुभ अर असुभ करम अनुहारी। ईस देइ फलु हदयँ िबचारी।।
करइ जो करम पाव फल सोई। िनगम नीित अिस कह सबु कोई।।
दो0–और करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु।
अित िबिचत भगवंत गित को जग जानै जोगु।।77।।
–*–*–
रायँ राम राखन िहत लागी। बहुत उपाय िकए छलु तयागी।।
लखी राम रख रहत न जाने। धरम धुरध ं र धीर सयाने।।
तब नृप सीय लाइ उर लीनही। अित िहत बहुत भाित िसख दीनही।।
किह बन के दुख दुसह सुनाए। सासु ससुर िपतु सुख समुझाए।।
िसय मनु राम चरन अनुरागा। घर न सुगमु बनु िबषमु न लागा।।
औरउ सबिहं सीय समुझाई। किह किह िबिपन िबपित अिधकाई।।
सिचव नािर गुर नािर सयानी। सिहत सनेह कहिहं मृदु बानी।।
तुमह कहुँ तौ न दीनह बनबासू। करहु जो कहिहं ससुर गुर सासू।।
दो0–िसख सीतिल िहत मधुर मृदु सुिन सीतिह न सोहािन।
सरद चंद चंदिन लगत जनु चकई अकुलािन।।78।।
–*–*–
सीय सकुच बस उतर न देई। सो सुिन तमिक उठी कैकेई।।
मुिन पट भूषन भाजन आनी। आगे धिर बोली मृदु बानी।।
नृपिह पान िपय तुमह रघुबीरा। सील सनेह न छािड़िह भीरा।।
सुकृत सुजसु परलोकु नसाऊ। तुमहिह जान बन किहिह न काऊ।।
अस िबचािर सोइ करहु जो भावा। राम जनिन िसख सुिन सुखु पावा।।
भूपिह बचन बानसम लागे। करिहं न पान पयान अभागे।।
लोग िबकल मुरिछत नरनाहू। काह किरअ कछु सूझ न काहू।।
रामु तुरत मुिन बेषु बनाई। चले जनक जनिनिह िसर नाई।।
दो0-सिज बन साजु समाजु सबु बिनता बंधु समेत।
बंिद िबप गुर चरन पभु चले किर सबिह अचेत।।79।।
–*–*–
िनकिस बिसष दार भए ठाढ़े। देखे लोग िबरह दव दाढ़े।।
किह िपय बचन सकल समुझाए। िबप बृंद रघुबीर बोलाए।।
गुर सन किह बरषासन दीनहे। आदर दान िबनय बस कीनहे।।
जाचक दान मान संतोषे। मीत पुनीत पेम पिरतोषे।।
दासी दास बोलाइ बहोरी। गुरिह सौिप बोले कर जोरी।।
सब कै सार सँभार गोसाई। करिब जनक जननी की नाई।।
बारिहं बार जोिर जुग पानी। कहत रामु सब सन मृदु बानी।।
सोइ सब भाित मोर िहतकारी। जेिह ते रहै भुआल सुखारी।।
दो0-मातु सकल मोरे िबरहँ जेिहं न होिहं दुख दीन।
सोइ उपाउ तुमह करेहु सब पुर जन परम पबीन।।80।।
–*–*–
एिह िबिध राम सबिह समुझावा। गुर पद पदुम हरिष िसर नावा।
गनपती गौिर िगरीसु मनाई। चले असीस पाइ रघुराई।।
राम चलत अित भयउ िबषादू। सुिन न जाइ पुर आरत नादू।।
कुसगुन लंक अवध अित सोकू। हहरष िबषाद िबबस सुरलोकू।।
गइ मुरछा तब भूपित जागे। बोिल सुमंतु कहन अस लागे।।
रामु चले बन पान न जाही। केिह सुख लािग रहत तन माही।
एिह ते कवन बयथा बलवाना। जो दुखु पाइ तजिहं तनु पाना।।
पुिन धिर धीर कहइ नरनाहू। लै रथु संग सखा तुमह जाहू।।
दो0–सुिठ सुकुमार कुमार दोउ जनकसुता सुकुमािर।
रथ चढ़ाइ देखराइ बनु िफरेहु गएँ िदन चािर।।81।।
–*–*–
जौ निहं िफरिहं धीर दोउ भाई। सतयसंध दृढ़बत रघुराई।।
तौ तुमह िबनय करेहु कर जोरी। फेिरअ पभु िमिथलेसिकसोरी।।
जब िसय कानन देिख डेराई। कहेहु मोिर िसख अवसर पाई।।
सासु ससुर अस कहेउ सँदेसू। पुित िफिरअ बन बहुत कलेसू।।
िपतृगृह कबहुँ कबहुँ ससुरारी। रहेहु जहा रिच होइ तुमहारी।।
एिह िबिध करेहु उपाय कदंबा। िफरइ त होइ पान अवलंबा।।
नािहं त मोर मरनु पिरनामा। कछु न बसाइ भएँ िबिध बामा।।
अस किह मुरिछ परा मिह राऊ। रामु लखनु िसय आिन देखाऊ।।
दो0–पाइ रजायसु नाइ िसर रथु अित बेग बनाइ।
गयउ जहा बाहेर नगर सीय सिहत दोउ भाइ।।82।।
–*–*–
तब सुमंत नृप बचन सुनाए। किर िबनती रथ रामु चढ़ाए।।
चिढ़ रथ सीय सिहत दोउ भाई। चले हृदयँ अवधिह िसर नाई।।
चलत रामु लिख अवध अनाथा। िबकल लोग सब लागे साथा।।
कृपािसंधु बहुिबिध समुझाविहं। िफरिहं पेम बस पुिन िफिर आविहं।।
लागित अवध भयाविन भारी। मानहँु कालराित अँिधआरी।।
घोर जंतु सम पुर नर नारी। डरपिहं एकिह एक िनहारी।।
घर मसान पिरजन जनु भूता। सुत िहत मीत मनहुँ जमदूता।।
बागनह िबटप बेिल कुिमहलाही। सिरत सरोवर देिख न जाही।।
दो0-हय गय कोिटनह केिलमृग पुरपसु चातक मोर।
िपक रथाग सुक सािरका सारस हंस चकोर।।83।।
–*–*–
राम िबयोग िबकल सब ठाढ़े। जहँ तहँ मनहुँ िचत िलिख काढ़े।।
नगर सफल बनु गहबर भारी। खग मृग िबपुल सकल नर नारी।।
िबिध कैकेई िकराितिन कीनही। जेिह दव दुसह दसहुँ िदिस दीनही।।
सिह न सके रघुबर िबरहागी। चले लोग सब बयाकुल भागी।।
सबिहं िबचार कीनह मन माही। राम लखन िसय िबनु सुखु नाही।।
जहा रामु तहँ सबुइ समाजू। िबनु रघुबीर अवध निहं काजू।।
चले साथ अस मंतु दृढ़ाई। सुर दुलरभ सुख सदन िबहाई।।
राम चरन पंकज िपय िजनहही। िबषय भोग बस करिहं िक ितनहही।।
दो0-बालक बृद िबहाइ गृँह लगे लोग सब साथ।
तमसा तीर िनवासु िकय पथम िदवस रघुनाथ।।84।।
–*–*–
रघुपित पजा पेमबस देखी। सदय हृदयँ दुखु भयउ िबसेषी।।
करनामय रघुनाथ गोसाई। बेिग पाइअिहं पीर पराई।।
किह सपेम मृदु बचन सुहाए। बहुिबिध राम लोग समुझाए।।
िकए धरम उपदेस घनेरे। लोग पेम बस िफरिहं न फेरे।।
सीलु सनेहु छािड़ निहं जाई। असमंजस बस भे रघुराई।।
लोग सोग शम बस गए सोई। कछुक देवमाया मित मोई।।
जबिहं जाम जुग जािमिन बीती। राम सिचव सन कहेउ सपीती।।
खोज मािर रथु हाकहु ताता। आन उपायँ बिनिह निहं बाता।।
दो0-राम लखन सुय जान चिढ़ संभु चरन िसर नाइ।।
सिचवँ चलायउ तुरत रथु इत उत खोज दुराइ।।85।।
–*–*–
जागे सकल लोग भएँ भोर। गे रघुनाथ भयउ अित सोर।।
रथ कर खोज कतहहुँ निहं पाविहं। राम राम किह चहु िदिस धाविहं।।
मनहुँ बािरिनिध बूड़ जहाजू। भयउ िबकल बड़ बिनक समाजू।।
एकिह एक देिहं उपदेसू। तजे राम हम जािन कलेसू।।
िनंदिहं आपु सराहिहं मीना। िधग जीवनु रघुबीर िबहीना।।
जौ पै िपय िबयोगु िबिध कीनहा। तौ कस मरनु न मागे दीनहा।।
एिह िबिध करत पलाप कलापा। आए अवध भरे पिरतापा।।
िबषम िबयोगु न जाइ बखाना। अविध आस सब राखिहं पाना।।
दो0-राम दरस िहत नेम बत लगे करन नर नािर।
मनहँु कोक कोकी कमल दीन िबहीन तमािर।।86।।
–*–*–
सीता सिचव सिहत दोउ भाई। सृग ं बेरपुर पहुँचे जाई।।
उतरे राम देवसिर देखी। कीनह दंडवत हरषु िबसेषी।।
लखन सिचवँ िसयँ िकए पनामा। सबिह सिहत सुखु पायउ रामा।।
गंग सकल मुद मंगल मूला। सब सुख करिन हरिन सब सूला।।
किह किह कोिटक कथा पसंगा। रामु िबलोकिहं गंग तरंगा।।
सिचविह अनुजिह िपयिह सुनाई। िबबुध नदी मिहमा अिधकाई।।
मजजनु कीनह पंथ शम गयऊ। सुिच जलु िपअत मुिदत मन भयऊ।।
सुिमरत जािह िमटइ शम भार। तेिह शम यह लौिकक बयवहार।।
दो0-सुधद सिचदानंदमय कंद भानुकुल केतु।
चिरत करत नर अनुहरत संसृित सागर सेतु।।87।।
–*–*–
यह सुिध गुहँ िनषाद जब पाई। मुिदत िलए िपय बंधु बोलाई।।
िलए फल मूल भेट भिर भारा। िमलन चलेउ िहँयँ हरषु अपारा।।
किर दंडवत भेट धिर आगे। पभुिह िबलोकत अित अनुरागे।।
सहज सनेह िबबस रघुराई। पूँछी कुसल िनकट बैठाई।।
नाथ कुसल पद पंकज देखे। भयउँ भागभाजन जन लेखे।।
देव धरिन धनु धामु तुमहारा। मै जनु नीचु सिहत पिरवारा।।
कृपा किरअ पुर धािरअ पाऊ। थािपय जनु सबु लोगु िसहाऊ।।
कहेहु सतय सबु सखा सुजाना। मोिह दीनह िपतु आयसु आना।।
दो0-बरष चािरदस बासु बन मुिन बत बेषु अहार।
गाम बासु निहं उिचत सुिन गुहिह भयउ दुखु भार।।88।।
–*–*–
राम लखन िसय रप िनहारी। कहिहं सपेम गाम नर नारी।।
ते िपतु मातु कहहु सिख कैसे। िजनह पठए बन बालक ऐसे।।
एक कहिहं भल भूपित कीनहा। लोयन लाहु हमिह िबिध दीनहा।।
तब िनषादपित उर अनुमाना। तर िसंसुपा मनोहर जाना।।
लै रघुनाथिह ठाउँ देखावा। कहेउ राम सब भाित सुहावा।।
पुरजन किर जोहार घर आए। रघुबर संधया करन िसधाए।।
गुहँ सँवािर साथरी डसाई। कुस िकसलयमय मृदुल सुहाई।।
सुिच फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना भिर भिर राखेिस पानी।।
दो0-िसय सुमंत भाता सिहत कंद मूल फल खाइ।
सयन कीनह रघुबस ं मिन पाय पलोटत भाइ।।89।।
–*–*–
उठे लखनु पभु सोवत जानी। किह सिचविह सोवन मृदु बानी।।
कछुक दूर सिज बान सरासन। जागन लगे बैिठ बीरासन।।
गुँह बोलाइ पाहर पतीती। ठावँ ठाव राखे अित पीती।।
आपु लखन पिहं बैठेउ जाई। किट भाथी सर चाप चढ़ाई।।
सोवत पभुिह िनहािर िनषादू। भयउ पेम बस हदयँ िबषादू।।
तनु पुलिकत जलु लोचन बहई। बचन सपेम लखन सन कहई।।
भूपित भवन सुभायँ सुहावा। सुरपित सदनु न पटतर पावा।।
मिनमय रिचत चार चौबारे। जनु रितपित िनज हाथ सँवारे।।
दो0-सुिच सुिबिचत सुभोगमय सुमन सुगध ं सुबास।
पलँग मंजु मिनदीप जहँ सब िबिध सकल सुपास।।90।।
–*–*–
िबिबध बसन उपधान तुराई। छीर फेन मृदु िबसद सुहाई।।
तहँ िसय रामु सयन िनिस करही। िनज छिब रित मनोज मदु हरही।।
ते िसय रामु साथरी सोए। शिमत बसन िबनु जािहं न जोए।।
मातु िपता पिरजन पुरबासी। सखा सुसील दास अर दासी।।
जोगविहं िजनहिह पान की नाई। मिह सोवत तेइ राम गोसाई।।
िपता जनक जग िबिदत पभाऊ। ससुर सुरेस सखा रघुराऊ।।
रामचंदु पित सो बैदेही। सोवत मिह िबिध बाम न केही।।
िसय रघुबीर िक कानन जोगू। करम पधान सतय कह लोगू।।
दो0-कैकयनंिदिन मंदमित किठन कुिटलपनु कीनह।
जेही रघुनदं न जानिकिह सुख अवसर दुखु दीनह।।91।।
–*–*–
भइ िदनकर कुल िबटप कुठारी। कुमित कीनह सब िबसव दुखारी।।
भयउ िबषादु िनषादिह भारी। राम सीय मिह सयन िनहारी।।
बोले लखन मधुर मृदु बानी। गयान िबराग भगित रस सानी।।
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। िनज कृत करम भोग सबु भाता।।
जोग िबयोग भोग भल मंदा। िहत अनिहत मधयम भम फंदा।।
जनमु मरनु जहँ लिग जग जालू। संपती िबपित करमु अर कालू।।
धरिन धामु धनु पुर पिरवार। सरगु नरकु जहँ लिग बयवहार।।
देिखअ सुिनअ गुिनअ मन माही। मोह मूल परमारथु नाही।।
दो0-सपने होइ िभखािर नृप रंकु नाकपित होइ।
जागे लाभु न हािन कछु ितिम पपंच िजयँ जोइ।।92।।
–*–*–
अस िबचािर निहं कीजअ रोसू। काहुिह बािद न देइअ दोसू।।
मोह िनसा सबु सोविनहारा। देिखअ सपन अनेक पकारा।।
एिहं जग जािमिन जागिहं जोगी। परमारथी पपंच िबयोगी।।
जािनअ तबिहं जीव जग जागा। जब जब िबषय िबलास िबरागा।।
होइ िबबेकु मोह भम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा।।
सखा परम परमारथु एहू। मन कम बचन राम पद नेहू।।
राम बह परमारथ रपा। अिबगत अलख अनािद अनूपा।।
सकल िबकार रिहत गतभेदा। किह िनत नेित िनरपिहं बेदा।
दो0-भगत भूिम भूसुर सुरिभ सुर िहत लािग कृपाल।
करत चिरत धिर मनुज तनु सुनत िमटिह जग जाल।।93।।
मासपारायण, पंदहवा िवशाम
–*–*–
सखा समुिझ अस पिरहिर मोहु। िसय रघुबीर चरन रत होहू।।
कहत राम गुन भा िभनुसारा। जागे जग मंगल सुखदारा।।
सकल सोच किर राम नहावा। सुिच सुजान बट छीर मगावा।।
अनुज सिहत िसर जटा बनाए। देिख सुमंत नयन जल छाए।।
हृदयँ दाहु अित बदन मलीना। कह कर जोिर बचन अित दीना।।
नाथ कहेउ अस कोसलनाथा। लै रथु जाहु राम के साथा।।
बनु देखाइ सुरसिर अनहवाई। आनेहु फेिर बेिग दोउ भाई।।
लखनु रामु िसय आनेहु फेरी। संसय सकल सँकोच िनबेरी।।
दो0-नृप अस कहेउ गोसाईँ जस कहइ करौ बिल सोइ।
किर िबनती पायनह परेउ दीनह बाल िजिम रोइ।।94।।
–*–*–
तात कृपा किर कीिजअ सोई। जाते अवध अनाथ न होई।।
मंतिह राम उठाइ पबोधा। तात धरम मतु तुमह सबु सोधा।।
िसिब दधीिच हिरचंद नरेसा। सहे धरम िहत कोिट कलेसा।।
रंितदेव बिल भूप सुजाना। धरमु धरेउ सिह संकट नाना।।
धरमु न दूसर सतय समाना। आगम िनगम पुरान बखाना।।
मै सोइ धरमु सुलभ किर पावा। तजे ितहँू पुर अपजसु छावा।।
संभािवत कहुँ अपजस लाहू। मरन कोिट सम दारन दाहू।।
तुमह सन तात बहुत का कहऊँ। िदएँ उतर िफिर पातकु लहऊँ।।
दो0-िपतु पद गिह किह कोिट नित िबनय करब कर जोिर।
िचंता कविनहु बात कै तात किरअ जिन मोिर।।95।।
–*–*–
तुमह पुिन िपतु सम अित िहत मोरे। िबनती करउँ तात कर जोरे।।
सब िबिध सोइ करतबय तुमहारे। दुख न पाव िपतु सोच हमारे।।
सुिन रघुनाथ सिचव संबादू। भयउ सपिरजन िबकल िनषादू।।
पुिन कछु लखन कही कटु बानी। पभु बरजे बड़ अनुिचत जानी।।
सकुिच राम िनज सपथ देवाई। लखन सँदेसु किहअ जिन जाई।।
कह सुमंतु पुिन भूप सँदेसू। सिह न सिकिह िसय िबिपन कलेसू।।
जेिह िबिध अवध आव िफिर सीया। सोइ रघुबरिह तुमहिह करनीया।।
नतर िनपट अवलंब िबहीना। मै न िजअब िजिम जल िबनु मीना।।
दो0-मइके ससरे सकल सुख जबिहं जहा मनु मान।।
तँह तब रिहिह सुखेन िसय जब लिग िबपित िबहान।।96।।
–*–*–
िबनती भूप कीनह जेिह भाती। आरित पीित न सो किह जाती।।
िपतु सँदेसु सुिन कृपािनधाना। िसयिह दीनह िसख कोिट िबधाना।।
सासु ससुर गुर िपय पिरवार। िफरतु त सब कर िमटै खभार।।
सुिन पित बचन कहित बैदेही। सुनहु पानपित परम सनेही।।
पभु करनामय परम िबबेकी। तनु तिज रहित छाह िकिम छेकी।।
पभा जाइ कहँ भानु िबहाई। कहँ चंिदका चंदु तिज जाई।।
पितिह पेममय िबनय सुनाई। कहित सिचव सन िगरा सुहाई।।
तुमह िपतु ससुर सिरस िहतकारी। उतर देउँ िफिर अनुिचत भारी।।
दो0-आरित बस सनमुख भइउँ िबलगु न मानब तात।
आरजसुत पद कमल िबनु बािद जहा लिग नात।।97।।
–*–*–
िपतु बैभव िबलास मै डीठा। नृप मिन मुकुट िमिलत पद पीठा।।
सुखिनधान अस िपतु गृह मोरे। िपय िबहीन मन भाव न भोरे।।
ससुर चकवइ कोसलराऊ। भुवन चािरदस पगट पभाऊ।।
आगे होइ जेिह सुरपित लेई। अरध िसंघासन आसनु देई।।
ससुर एतादृस अवध िनवासू। िपय पिरवार मातु सम सासू।।
िबनु रघुपित पद पदुम परागा। मोिह केउ सपनेहुँ सुखद न लागा।।
अगम पंथ बनभूिम पहारा। किर केहिर सर सिरत अपारा।।
कोल िकरात कुरगं िबहंगा। मोिह सब सुखद पानपित संगा।।
दो0-सासु ससुर सन मोिर हुँित िबनय करिब पिर पायँ।।
मोर सोचु जिन किरअ कछु मै बन सुखी सुभायँ।।98।।
–*–*–
पाननाथ िपय देवर साथा। बीर धुरीन धरे धनु भाथा।।
निहं मग शमु भमु दुख मन मोरे। मोिह लिग सोचु किरअ जिन भोरे।।
सुिन सुमंतु िसय सीतिल बानी। भयउ िबकल जनु फिन मिन हानी।।
नयन सूझ निहं सुनइ न काना। किह न सकइ कछु अित अकुलाना।।
राम पबोधु कीनह बहु भाित। तदिप होित निहं सीतिल छाती।।
जतन अनेक साथ िहत कीनहे। उिचत उतर रघुनदं न दीनहे।।
मेिट जाइ निहं राम रजाई। किठन करम गित कछु न बसाई।।
राम लखन िसय पद िसर नाई। िफरेउ बिनक िजिम मूर गवाई।।
दो0–रथ हाकेउ हय राम तन हेिर हेिर िहिहनािहं।
देिख िनषाद िबषादबस धुनिहं सीस पिछतािहं।।99।।
–*–*–
जासु िबयोग िबकल पसु ऐसे। पजा मातु िपतु िजइहिहं कैसे।।
बरबस राम सुमंतु पठाए। सुरसिर तीर आपु तब आए।।
मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुमहार मरमु मै जाना।।
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करिन मूिर कछु अहई।।
छुअत िसला भइ नािर सुहाई। पाहन ते न काठ किठनाई।।
तरिनउ मुिन घिरिन होइ जाई। बाट परइ मोिर नाव उड़ाई।।
एिहं पितपालउँ सबु पिरवार। निहं जानउँ कछु अउर कबार।।
जौ पभु पार अविस गा चहहू। मोिह पद पदुम पखारन कहहू।।
छं0-पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौ।
मोिह राम राउिर आन दसरथ सपथ सब साची कहौ।।
बर तीर मारहुँ लखनु पै जब लिग न पाय पखािरहौ।
तब लिग न तुलसीदास नाथ कृपाल पार उतािरहौ।।
सो0-सुिन केबट के बैन पेम लपेटे अटपटे।
िबहसे करनाऐन िचतइ जानकी लखन तन।।100।।
कृपािसंधु बोले मुसुकाई। सोइ कर जेिह तव नाव न जाई।।
वेिग आनु जल पाय पखार। होत िबलंबु उतारिह पार।।
जासु नाम सुमरत एक बारा। उतरिहं नर भविसंधु अपारा।।
सोइ कृपालु केवटिह िनहोरा। जेिहं जगु िकय ितहु पगहु ते थोरा।।
पद नख िनरिख देवसिर हरषी। सुिन पभु बचन मोहँ मित करषी।।
केवट राम रजायसु पावा। पािन कठवता भिर लेइ आवा।।
अित आनंद उमिग अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा।।
बरिष सुमन सुर सकल िसहाही। एिह सम पुनयपुंज कोउ नाही।।
दो0-पद पखािर जलु पान किर आपु सिहत पिरवार।
िपतर पार किर पभुिह पुिन मुिदत गयउ लेइ पार।।101।।
–*–*–
उतिर ठाड़ भए सुरसिर रेता। सीयराम गुह लखन समेता।।
केवट उतिर दंडवत कीनहा। पभुिह सकुच एिह निहं कछु दीनहा।।
िपय िहय की िसय जानिनहारी। मिन मुदरी मन मुिदत उतारी।।
कहेउ कृपाल लेिह उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई।।
नाथ आजु मै काह न पावा। िमटे दोष दुख दािरद दावा।।
बहुत काल मै कीिनह मजूरी। आजु दीनह िबिध बिन भिल भूरी।।
अब कछु नाथ न चािहअ मोरे। दीनदयाल अनुगह तोरे।।
िफरती बार मोिह जे देबा। सो पसादु मै िसर धिर लेबा।।
दो0- बहुत कीनह पभु लखन िसयँ निहं कछु केवटु लेइ।
िबदा कीनह करनायतन भगित िबमल बर देइ।।102।।
–*–*–
तब मजजनु किर रघुकुलनाथा। पूिज पारिथव नायउ माथा।।
िसयँ सुरसिरिह कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउिब मोरी।।
पित देवर संग कुसल बहोरी। आइ करौ जेिहं पूजा तोरी।।
सुिन िसय िबनय पेम रस सानी। भइ तब िबमल बािर बर बानी।।
सुनु रघुबीर िपया बैदेही। तव पभाउ जग िबिदत न केही।।
लोकप होिहं िबलोकत तोरे। तोिह सेविहं सब िसिध कर जोरे।।
तुमह जो हमिह बिड़ िबनय सुनाई। कृपा कीिनह मोिह दीिनह बड़ाई।।
तदिप देिब मै देिब असीसा। सफल होपन िहत िनज बागीसा।।
दो0-पाननाथ देवर सिहत कुसल कोसला आइ।
पूजिह सब मनकामना सुजसु रिहिह जग छाइ।।103।।
–*–*–
गंग बचन सुिन मंगल मूला। मुिदत सीय सुरसिर अनुकुला।।
तब पभु गुहिह कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुखु भा उर दाहू।।
दीन बचन गुह कह कर जोरी। िबनय सुनहु रघुकुलमिन मोरी।।
नाथ साथ रिह पंथु देखाई। किर िदन चािर चरन सेवकाई।।
जेिहं बन जाइ रहब रघुराई। परनकुटी मै करिब सुहाई।।
तब मोिह कहँ जिस देब रजाई। सोइ किरहउँ रघुबीर दोहाई।।
सहज सनेह राम लिख तासु। संग लीनह गुह हृदय हुलासू।।
पुिन गुहँ गयाित बोिल सब लीनहे। किर पिरतोषु िबदा तब कीनहे।।
दो0- तब गनपित िसव सुिमिर पभु नाइ सुरसिरिह माथ। ì
सखा अनुज िसया सिहत बन गवनु कीनह रधुनाथ।।104।।
–*–*–
तेिह िदन भयउ िबटप तर बासू। लखन सखा सब कीनह सुपासू।।
पात पातकृत किर रधुसाई। तीरथराजु दीख पभु जाई।।
सिचव सतय शधदा िपय नारी। माधव सिरस मीतु िहतकारी।।
चािर पदारथ भरा भँडार। पुनय पदेस देस अित चार।।
छेत अगम गढ़ु गाढ़ सुहावा। सपनेहुँ निहं पितपिचछनह पावा।।
सेन सकल तीरथ बर बीरा। कलुष अनीक दलन रनधीरा।।
संगमु िसंहासनु सुिठ सोहा। छतु अखयबटु मुिन मनु मोहा।।
चवँर जमुन अर गंग तरंगा। देिख होिहं दुख दािरद भंगा।।
दो0- सेविहं सुकृित साधु सुिच पाविहं सब मनकाम।
बंदी बेद पुरान गन कहिहं िबमल गुन गाम।।105।।
–*–*–
को किह सकइ पयाग पभाऊ। कलुष पुंज कु ंजर मृगराऊ।।
अस तीरथपित देिख सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा।।
किह िसय लखनिह सखिह सुनाई। शीमुख तीरथराज बड़ाई।।
किर पनामु देखत बन बागा। कहत महातम अित अनुरागा।।
एिह िबिध आइ िबलोकी बेनी। सुिमरत सकल सुमग ं ल देनी।।
मुिदत नहाइ कीिनह िसव सेवा। पुिज जथािबिध तीरथ देवा।।
तब पभु भरदाज पिहं आए। करत दंडवत मुिन उर लाए।।
मुिन मन मोद न कछु किह जाइ। बहानंद रािस जनु पाई।।
दो0- दीिनह असीस मुनीस उर अित अनंदु अस जािन।
लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ िकए िबिध आिन।।106।।
–*–*–
कुसल पसन किर आसन दीनहे। पूिज पेम पिरपूरन कीनहे।।
कंद मूल फल अंकुर नीके। िदए आिन मुिन मनहुँ अमी के।।
सीय लखन जन सिहत सुहाए। अित रिच राम मूल फल खाए।।
भए िबगतशम रामु सुखारे। भरवदाज मृदु बचन उचारे।।
आजु सुफल तपु तीरथ तयागू। आजु सुफल जप जोग िबरागू।।
सफल सकल सुभ साधन साजू। राम तुमहिह अवलोकत आजू।।
लाभ अविध सुख अविध न दूजी। तुमहारे दरस आस सब पूजी।।
अब किर कृपा देहु बर एहू। िनज पद सरिसज सहज सनेहू।।
दो0-करम बचन मन छािड़ छलु जब लिग जनु न तुमहार।
तब लिग सुखु सपनेहुँ नही िकएँ कोिट उपचार।।
–*–*–
सुिन मुिन बचन रामु सकुचाने। भाव भगित आनंद अघाने।।
तब रघुबर मुिन सुजसु सुहावा। कोिट भाित किह सबिह सुनावा।।
सो बड सो सब गुन गन गेहू। जेिह मुनीस तुमह आदर देहू।।
मुिन रघुबीर परसपर नवही। बचन अगोचर सुखु अनुभवही।।
यह सुिध पाइ पयाग िनवासी। बटु तापस मुिन िसद उदासी।।
भरदाज आशम सब आए। देखन दसरथ सुअन सुहाए।।
राम पनाम कीनह सब काहू। मुिदत भए लिह लोयन लाहू।।
देिहं असीस परम सुखु पाई। िफरे सराहत सुंदरताई।।
दो0-राम कीनह िबशाम िनिस पात पयाग नहाइ।
चले सिहत िसय लखन जन मुदिदत मुिनिह िसर नाइ।।108।।
–*–*–
राम सपेम कहेउ मुिन पाही। नाथ किहअ हम केिह मग जाही।।
मुिन मन िबहिस राम सन कहही। सुगम सकल मग तुमह कहुँ अहही।।
साथ लािग मुिन िसषय बोलाए। सुिन मन मुिदत पचासक आए।।
सबिनह राम पर पेम अपारा। सकल कहिह मगु दीख हमारा।।
मुिन बटु चािर संग तब दीनहे। िजनह बहु जनम सुकृत सब कीनहे।।
किर पनामु िरिष आयसु पाई। पमुिदत हृदयँ चले रघुराई।।
गाम िनकट जब िनकसिह जाई। देखिह दरसु नािर नर धाई।।
होिह सनाथ जनम फलु पाई। िफरिह दुिखत मनु संग पठाई।।
दो0-िबदा िकए बटु िबनय किर िफरे पाइ मन काम।
उतिर नहाए जमुन जल जो सरीर सम सयाम।।109।।
–*–*–
सुनत तीरवासी नर नारी। धाए िनज िनज काज िबसारी।।
लखन राम िसय सुनदरताई। देिख करिहं िनज भागय बड़ाई।।
अित लालसा बसिहं मन माही। नाउँ गाउँ बूझत सकुचाही।।
जे ितनह महुँ बयिबिरध सयाने। ितनह किर जुगुित रामु पिहचाने।।
सकल कथा ितनह सबिह सुनाई। बनिह चले िपतु आयसु पाई।।
सुिन सिबषाद सकल पिछताही। रानी रायँ कीनह भल नाही।।
तेिह अवसर एक तापसु आवा। तेजपुंज लघुबयस सुहावा।।
किव अलिखत गित बेषु िबरागी। मन कम बचन राम अनुरागी।।
दो0-सजल नयन तन पुलिक िनज इषदेउ पिहचािन।
परेउ दंड िजिम धरिनतल दसा न जाइ बखािन।।110।।
–*–*–
राम सपेम पुलिक उर लावा। परम रंक जनु पारसु पावा।।
मनहुँ पेमु परमारथु दोऊ। िमलत धरे तन कह सबु कोऊ।।
बहुिर लखन पायनह सोइ लागा। लीनह उठाइ उमिग अनुरागा।।
पुिन िसय चरन धूिर धिर सीसा। जनिन जािन िससु दीिनह असीसा।।
कीनह िनषाद दंडवत तेही। िमलेउ मुिदत लिख राम सनेही।।
िपअत नयन पुट रपु िपयूषा। मुिदत सुअसनु पाइ िजिम भूखा।।
ते िपतु मातु कहहु सिख कैसे। िजनह पठए बन बालक ऐसे।।
राम लखन िसय रपु िनहारी। होिहं सनेह िबकल नर नारी।।
दो0-तब रघुबीर अनेक िबिध सखिह िसखावनु दीनह।
राम रजायसु सीस धिर भवन गवनु तेइँ कीनह।।111।।
–*–*–
पुिन िसयँ राम लखन कर जोरी। जमुनिह कीनह पनामु बहोरी।।
चले ससीय मुिदत दोउ भाई। रिबतनुजा कइ करत बड़ाई।।
पिथक अनेक िमलिहं मग जाता। कहिहं सपेम देिख दोउ भाता।।
राज लखन सब अंग तुमहारे। देिख सोचु अित हृदय हमारे।।
मारग चलहु पयादेिह पाएँ। जयोितषु झूठ हमारे भाएँ।।
अगमु पंथ िगिर कानन भारी। तेिह महँ साथ नािर सुकुमारी।।
किर केहिर बन जाइ न जोई। हम सँग चलिह जो आयसु होई।।
जाब जहा लिग तहँ पहुँचाई। िफरब बहोिर तुमहिह िसर नाई।।
दो0-एिह िबिध पूँछिहं पेम बस पुलक गात जलु नैन।
कृपािसंधु फेरिह ितनहिह किह िबनीत मृदु बैन।।112।।
–*–*–
जे पुर गाव बसिहं मग माही। ितनहिह नाग सुर नगर िसहाही।।
केिह सुकृती केिह घरी बसाए। धनय पुनयमय परम सुहाए।।
जहँ जहँ राम चरन चिल जाही। ितनह समान अमरावित नाही।।
पुनयपुंज मग िनकट िनवासी। ितनहिह सराहिहं सुरपुरबासी।।
जे भिर नयन िबलोकिहं रामिह। सीता लखन सिहत घनसयामिह।।
जे सर सिरत राम अवगाहिहं। ितनहिह देव सर सिरत सराहिहं।।
जेिह तर तर पभु बैठिहं जाई। करिहं कलपतर तासु बड़ाई।।
परिस राम पद पदुम परागा। मानित भूिम भूिर िनज भागा।।
दो0-छाह करिह घन िबबुधगन बरषिह सुमन िसहािहं।
देखत िगिर बन िबहग मृग रामु चले मग जािहं।।113।।
–*–*–
सीता लखन सिहत रघुराई। गाव िनकट जब िनकसिहं जाई।।
सुिन सब बाल बृद नर नारी। चलिहं तुरत गृहकाजु िबसारी।।
राम लखन िसय रप िनहारी। पाइ नयनफलु होिहं सुखारी।।
सजल िबलोचन पुलक सरीरा। सब भए मगन देिख दोउ बीरा।।
बरिन न जाइ दसा ितनह केरी। लिह जनु रंकनह सुरमिन ढेरी।।
एकनह एक बोिल िसख देही। लोचन लाहु लेहु छन एही।।
रामिह देिख एक अनुरागे। िचतवत चले जािहं सँग लागे।।
एक नयन मग छिब उर आनी। होिहं िसिथल तन मन बर बानी।।
दो0-एक देिखं बट छाह भिल डािस मृदुल तृन पात।
कहिहं गवाइअ िछनुकु शमु गवनब अबिहं िक पात।।114।।
–*–*–
एक कलस भिर आनिहं पानी। अँचइअ नाथ कहिहं मृदु बानी।।
सुिन िपय बचन पीित अित देखी। राम कृपाल सुसील िबसेषी।।
जानी शिमत सीय मन माही। घिरक िबलंबु कीनह बट छाही।।
मुिदत नािर नर देखिहं सोभा। रप अनूप नयन मनु लोभा।।
एकटक सब सोहिहं चहुँ ओरा। रामचंद मुख चंद चकोरा।।
तरन तमाल बरन तनु सोहा। देखत कोिट मदन मनु मोहा।।
दािमिन बरन लखन सुिठ नीके। नख िसख सुभग भावते जी के।।
मुिनपट किटनह कसे तूनीरा। सोहिहं कर कमिलिन धनु तीरा।।
दो0-जटा मुकुट सीसिन सुभग उर भुज नयन िबसाल।
सरद परब िबधु बदन बर लसत सवेद कन जाल।।115।।
–*–*–
बरिन न जाइ मनोहर जोरी। सोभा बहुत थोिर मित मोरी।।
राम लखन िसय सुंदरताई। सब िचतविहं िचत मन मित लाई।।
थके नािर नर पेम िपआसे। मनहुँ मृगी मृग देिख िदआ से।।
सीय समीप गामितय जाही। पूँछत अित सनेहँ सकुचाही।।
बार बार सब लागिहं पाएँ। कहिहं बचन मृदु सरल सुभाएँ।।
राजकुमािर िबनय हम करही। ितय सुभायँ कछु पूँछत डरही।
सवािमिन अिबनय छमिब हमारी। िबलगु न मानब जािन गवारी।।
राजकुअँर दोउ सहज सलोने। इनह ते लही दुित मरकत सोने।।
दो0-सयामल गौर िकसोर बर सुंदर सुषमा ऐन।
सरद सबररीनाथ मुखु सरद सरोरह नैन।।116।।
मासपारायण, सोलहवा िवशाम
नवानहपारायण, चौथा िवशाम
–*–*–
कोिट मनोज लजाविनहारे। सुमुिख कहहु को आिहं तुमहारे।।
सुिन सनेहमय मंजुल बानी। सकुची िसय मन महुँ मुसुकानी।।
ितनहिह िबलोिक िबलोकित धरनी। दुहँु सकोच सकुिचत बरबरनी।।
सकुिच सपेम बाल मृग नयनी। बोली मधुर बचन िपकबयनी।।
सहज सुभाय सुभग तन गोरे। नामु लखनु लघु देवर मोरे।।
बहुिर बदनु िबधु अंचल ढाकी। िपय तन िचतइ भौह किर बाकी।।
खंजन मंजु ितरीछे नयनिन। िनज पित कहेउ ितनहिह िसयँ सयनिन।।
भइ मुिदत सब गामबधूटी। रंकनह राय रािस जनु लूटी।।
दो0-अित सपेम िसय पायँ पिर बहुिबिध देिहं असीस।
सदा सोहािगिन होहु तुमह जब लिग मिह अिह सीस।।117।।
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पारबती सम पितिपय होहू। देिब न हम पर छाड़ब छोहू।।
पुिन पुिन िबनय किरअ कर जोरी। जौ एिह मारग िफिरअ बहोरी।।
दरसनु देब जािन िनज दासी। लखी सीयँ सब पेम िपआसी।।
मधुर बचन किह किह पिरतोषी। जनु कुमुिदनी कौमुदी पोषी।।
तबिहं लखन रघुबर रख जानी। पूँछेउ मगु लोगिनह मृदु बानी।।
सुनत नािर नर भए दुखारी। पुलिकत गात िबलोचन बारी।।
िमटा मोदु मन भए मलीने। िबिध िनिध दीनह लेत जनु छीने।।
समुिझ करम गित धीरजु कीनहा। सोिध सुगम मगु ितनह किह दीनहा।।
दो0-लखन जानकी सिहत तब गवनु कीनह रघुनाथ।
फेरे सब िपय बचन किह िलए लाइ मन साथ।।118।।ý
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िफरत नािर नर अित पिछताही। देअिह दोषु देिहं मन माही।।
सिहत िबषाद परसपर कहही। िबिध करतब उलटे सब अहही।।
िनपट िनरंकुस िनठुर िनसंकू। जेिहं सिस कीनह सरज सकलंकू।।
रख कलपतर सागर खारा। तेिहं पठए बन राजकुमारा।।
जौ पे इनहिह दीनह बनबासू। कीनह बािद िबिध भोग िबलासू।।
ए िबचरिहं मग िबनु पदताना। रचे बािद िबिध बाहन नाना।।
ए मिह परिहं डािस कुस पाता। सुभग सेज कत सृजत िबधाता।।
तरबर बास इनहिह िबिध दीनहा। धवल धाम रिच रिच शमु कीनहा।।
दो0-जौ ए मुिन पट धर जिटल सुंदर सुिठ सुकुमार।
िबिबध भाित भूषन बसन बािद िकए करतार।।119।।
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जौ ए कंद मूल फल खाही। बािद सुधािद असन जग माही।।
एक कहिहं ए सहज सुहाए। आपु पगट भए िबिध न बनाए।।
जहँ लिग बेद कही िबिध करनी। शवन नयन मन गोचर बरनी।।
देखहु खोिज भुअन दस चारी। कहँ अस पुरष कहा अिस नारी।।
इनहिह देिख िबिध मनु अनुरागा। पटतर जोग बनावै लागा।।
कीनह बहत ु शम ऐक न आए। तेिहं इिरषा बन आिन दुराए।।
एक कहिहं हम बहुत न जानिहं। आपुिह परम धनय किर मानिहं।।
ते पुिन पुनयपुंज हम लेखे। जे देखिहं देिखहिहं िजनह देखे।।
दो0-एिह िबिध किह किह बचन िपय लेिहं नयन भिर नीर।
िकिम चिलहिह मारग अगम सुिठ सुकुमार सरीर।।120।।
–*–*–
नािर सनेह िबकल बस होही। चकई साझ समय जनु सोही।।
मृदु पद कमल किठन मगु जानी। गहबिर हृदयँ कहिहं बर बानी।।
परसत मृदुल चरन अरनारे। सकुचित मिह िजिम हृदय हमारे।।
जौ जगदीस इनहिह बनु दीनहा। कस न सुमनमय मारगु कीनहा।।
जौ मागा पाइअ िबिध पाही। ए रिखअिहं सिख आँिखनह माही।।
जे नर नािर न अवसर आए। ितनह िसय रामु न देखन पाए।।
सुिन सुरप बूझिहं अकुलाई। अब लिग गए कहा लिग भाई।।
समरथ धाइ िबलोकिहं जाई। पमुिदत िफरिहं जनमफलु पाई।।
दो0-अबला बालक बृद जन कर मीजिहं पिछतािहं।।
होिहं पेमबस लोग इिम रामु जहा जहँ जािहं।।121।।
–*–*–
गाव गाव अस होइ अनंद। ू देिख भानुकुल कैरव चंद। ू ।
जे कछु समाचार सुिन पाविहं। ते नृप रािनिह दोसु लगाविहं।।
कहिहं एक अित भल नरनाहू। दीनह हमिह जोइ लोचन लाहू।।
कहिहं परसपर लोग लोगाई। बाते सरल सनेह सुहाई।।
ते िपतु मातु धनय िजनह जाए। धनय सो नगर जहा ते आए।।
धनय सो देसु सैलु बन गाऊँ। जहँ जहँ जािहं धनय सोइ ठाऊँ।।
सुख पायउ िबरंिच रिच तेही। ए जेिह के सब भाित सनेही।।
राम लखन पिथ कथा सुहाई। रही सकल मग कानन छाई।।
दो0-एिह िबिध रघुकुल कमल रिब मग लोगनह सुख देत।
जािहं चले देखत िबिपन िसय सौिमित समेत।।122।।
–*–*–
आगे रामु लखनु बने पाछे। तापस बेष िबराजत काछे।।
उभय बीच िसय सोहित कैसे। बह जीव िबच माया जैसे।।
बहुिर कहउँ छिब जिस मन बसई। जनु मधु मदन मधय रित लसई।।
उपमा बहुिर कहउँ िजयँ जोही। जनु बुध िबधु िबच रोिहिन सोही।।
पभु पद रेख बीच िबच सीता। धरित चरन मग चलित सभीता।।
सीय राम पद अंक बराएँ। लखन चलिहं मगु दािहन लाएँ।।
राम लखन िसय पीित सुहाई। बचन अगोचर िकिम किह जाई।।
खग मृग मगन देिख छिब होही। िलए चोिर िचत राम बटोही।।
दो0-िजनह िजनह देखे पिथक िपय िसय समेत दोउ भाइ।
भव मगु अगमु अनंदु तेइ िबनु शम रहे िसराइ।।123।।
–*–*–
अजहुँ जासु उर सपनेहुँ काऊ। बसहुँ लखनु िसय रामु बटाऊ।।
राम धाम पथ पाइिह सोई। जो पथ पाव कबहुँ मुिन कोई।।
तब रघुबीर शिमत िसय जानी। देिख िनकट बटु सीतल पानी।।
तहँ बिस कंद मूल फल खाई। पात नहाइ चले रघुराई।।
देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीिक आशम पभु आए।।
राम दीख मुिन बासु सुहावन। सुंदर िगिर काननु जलु पावन।।
सरिन सरोज िबटप बन फूले। गुंजत मंजु मधुप रस भूले।।
खग मृग िबपुल कोलाहल करही। िबरिहत बैर मुिदत मन चरही।।
दो0-सुिच सुंदर आशमु िनरिख हरषे रािजवनेन।
सुिन रघुबर आगमनु मुिन आगे आयउ लेन।।124।।
–*–*–
मुिन कहुँ राम दंडवत कीनहा। आिसरबादु िबपबर दीनहा।।
देिख राम छिब नयन जुड़ाने। किर सनमानु आशमिहं आने।।
मुिनबर अितिथ पानिपय पाए। कंद मूल फल मधुर मगाए।।
िसय सौिमित राम फल खाए। तब मुिन आशम िदए सुहाए।।
बालमीिक मन आनँदु भारी। मंगल मूरित नयन िनहारी।।
तब कर कमल जोिर रघुराई। बोले बचन शवन सुखदाई।।
तुमह ितकाल दरसी मुिननाथा। िबसव बदर िजिम तुमहरे हाथा।।
अस किह पभु सब कथा बखानी। जेिह जेिह भाित दीनह बनु रानी।।
दो0-तात बचन पुिन मातु िहत भाइ भरत अस राउ।
मो कहुँ दरस तुमहार पभु सबु मम पुनय पभाउ।।125।।
–*–*–
देिख पाय मुिनराय तुमहारे। भए सुकृत सब सुफल हमारे।।
अब जहँ राउर आयसु होई। मुिन उदबेगु न पावै कोई।।
मुिन तापस िजनह ते दुखु लहही। ते नरेस िबनु पावक दहही।।
मंगल मूल िबप पिरतोषू। दहइ कोिट कुल भूसुर रोषू।।
अस िजयँ जािन किहअ सोइ ठाऊँ। िसय सौिमित सिहत जहँ जाऊँ।।
तहँ रिच रिचर परन तृन साला। बासु करौ कछु काल कृपाला।।
सहज सरल सुिन रघुबर बानी। साधु साधु बोले मुिन गयानी।।
कस न कहहु अस रघुकुलकेतू। तुमह पालक संतत शुित सेतू।।
छं0-शुित सेतु पालक राम तुमह जगदीस माया जानकी।
जो सृजित जगु पालित हरित रख पाइ कृपािनधान की।।
जो सहससीसु अहीसु मिहधर लखनु सचराचर धनी।
सुर काज धिर नरराज तनु चले दलन खल िनिसचर अनी।।
सो0-राम सरप तुमहार बचन अगोचर बुिदपर।
अिबगत अकथ अपार नेित िनत िनगम कह।।126।।
जगु पेखन तुमह देखिनहारे। िबिध हिर संभु नचाविनहारे।।
तेउ न जानिहं मरमु तुमहारा। और तुमहिह को जानिनहारा।।
सोइ जानइ जेिह देहु जनाई। जानत तुमहिह तुमहइ होइ जाई।।
तुमहिरिह कृपा तुमहिह रघुनदं न। जानिहं भगत भगत उर चंदन।।
िचदानंदमय देह तुमहारी। िबगत िबकार जान अिधकारी।।
नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस पाकृत राजा।।
राम देिख सुिन चिरत तुमहारे। जड़ मोहिहं बुध होिहं सुखारे।।
तुमह जो कहहु करहु सबु साचा। जस कािछअ तस चािहअ नाचा।।
दो0-पूँछेहु मोिह िक रहौ कहँ मै पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु किह तुमहिह देखावौ ठाउँ।।127।।
–*–*–
सुिन मुिन बचन पेम रस साने। सकुिच राम मन महुँ मुसुकाने।।
बालमीिक हँिस कहिहं बहोरी। बानी मधुर अिमअ रस बोरी।।
सुनहु राम अब कहउँ िनकेता। जहा बसहु िसय लखन समेता।।
िजनह के शवन समुद समाना। कथा तुमहािर सुभग सिर नाना।।
भरिहं िनरंतर होिहं न पूरे। ितनह के िहय तुमह कहुँ गृह ररे।।
लोचन चातक िजनह किर राखे। रहिहं दरस जलधर अिभलाषे।।
िनदरिहं सिरत िसंधु सर भारी। रप िबंदु जल होिहं सुखारी।।
ितनह के हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु िसय सह रघुनायक।।
दो0-जसु तुमहार मानस िबमल हंिसिन जीहा जासु।
मुकुताहल गुन गन चुनइ राम बसहु िहयँ तासु।।128।।
–*–*–
पभु पसाद सुिच सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ िनत नासा।।
तुमहिह िनबेिदत भोजन करही। पभु पसाद पट भूषन धरही।।
सीस नविहं सुर गुर िदज देखी। पीित सिहत किर िबनय िबसेषी।।
कर िनत करिहं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ निह दूजा।।
चरन राम तीरथ चिल जाही। राम बसहु ितनह के मन माही।।
मंतराजु िनत जपिहं तुमहारा। पूजिहं तुमहिह सिहत पिरवारा।।
तरपन होम करिहं िबिध नाना। िबप जेवाइ देिहं बहु दाना।।
तुमह ते अिधक गुरिह िजयँ जानी। सकल भायँ सेविहं सनमानी।।
दो0-सबु किर मागिहं एक फलु राम चरन रित होउ।
ितनह के मन मंिदर बसहु िसय रघुनदं न दोउ।।129।।
–*–*–
काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न दोहा।।
िजनह के कपट दंभ निहं माया। ितनह के हृदय बसहु रघुराया।।
सब के िपय सब के िहतकारी। दुख सुख सिरस पसंसा गारी।।
कहिहं सतय िपय बचन िबचारी। जागत सोवत सरन तुमहारी।।
तुमहिह छािड़ गित दूसिर नाही। राम बसहु ितनह के मन माही।।
जननी सम जानिहं परनारी। धनु पराव िबष ते िबष भारी।।
जे हरषिहं पर संपित देखी। दुिखत होिहं पर िबपित िबसेषी।।
िजनहिह राम तुमह पानिपआरे। ितनह के मन सुभ सदन तुमहारे।।
दो0-सवािम सखा िपतु मातु गुर िजनह के सब तुमह तात।
मन मंिदर ितनह के बसहु सीय सिहत दोउ भात।।130।।
–*–*–
अवगुन तिज सब के गुन गहही। िबप धेनु िहत संकट सहही।।
नीित िनपुन िजनह कइ जग लीका। घर तुमहार ितनह कर मनु नीका।।
गुन तुमहार समुझइ िनज दोसा। जेिह सब भाित तुमहार भरोसा।।
राम भगत िपय लागिहं जेही। तेिह उर बसहु सिहत बैदेही।।
जाित पाित धनु धरम बड़ाई। िपय पिरवार सदन सुखदाई।।
सब तिज तुमहिह रहइ उर लाई। तेिह के हृदयँ रहहु रघुराई।।
सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरे धनु बाना।।
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेिह के उर डेरा।।
दो0-जािह न चािहअ कबहुँ कछु तुमह सन सहज सनेहु।
बसहु िनरंतर तासु मन सो राउर िनज गेहु।।131।।
–*–*–
एिह िबिध मुिनबर भवन देखाए। बचन सपेम राम मन भाए।।
कह मुिन सुनहु भानुकुलनायक। आशम कहउँ समय सुखदायक।।
िचतकूट िगिर करहु िनवासू। तहँ तुमहार सब भाित सुपासू।।
सैलु सुहावन कानन चार। किर केहिर मृग िबहग िबहार।।
नदी पुनीत पुरान बखानी। अितिपया िनज तपबल आनी।।
सुरसिर धार नाउँ मंदािकिन। जो सब पातक पोतक डािकिन।।
अित आिद मुिनबर बहु बसही। करिहं जोग जप तप तन कसही।।
चलहु सफल शम सब कर करहू। राम देहु गौरव िगिरबरहू।।
दो0-िचतकूट मिहमा अिमत कही महामुिन गाइ।
आए नहाए सिरत बर िसय समेत दोउ भाइ।।132।।
–*–*–
रघुबर कहेउ लखन भल घाटू । करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू ।।
लखन दीख पय उतर करारा। चहुँ िदिस िफरेउ धनुष िजिम नारा।।
नदी पनच सर सम दम दाना। सकल कलुष किल साउज नाना।।
िचतकूट जनु अचल अहेरी। चुकइ न घात मार मुठभेरी।।
अस किह लखन ठाउँ देखरावा। थलु िबलोिक रघुबर सुखु पावा।।
रमेउ राम मनु देवनह जाना। चले सिहत सुर थपित पधाना।।
कोल िकरात बेष सब आए। रचे परन तृन सदन सुहाए।।
बरिन न जािह मंजु दुइ साला। एक लिलत लघु एक िबसाला।।
दो0-लखन जानकी सिहत पभु राजत रिचर िनकेत।
सोह मदनु मुिन बेष जनु रित िरतुराज समेत।।133।।
मासपारायण, सतहँवा िवशाम
–*–*–
अमर नाग िकंनर िदिसपाला। िचतकूट आए तेिह काला।।
राम पनामु कीनह सब काहू। मुिदत देव लिह लोचन लाहू।।
बरिष सुमन कह देव समाजू। नाथ सनाथ भए हम आजू।।
किर िबनती दुख दुसह सुनाए। हरिषत िनज िनज सदन िसधाए।।
िचतकूट रघुनदं नु छाए। समाचार सुिन सुिन मुिन आए।।
आवत देिख मुिदत मुिनबृंदा। कीनह दंडवत रघुकुल चंदा।।
मुिन रघुबरिह लाइ उर लेही। सुफल होन िहत आिसष देही।।
िसय सौिमत राम छिब देखिहं। साधन सकल सफल किर लेखिहं।।
दो0-जथाजोग सनमािन पभु िबदा िकए मुिनबृंद।
करिह जोग जप जाग तप िनज आशमिनह सुछंद।।134।।
–*–*–
यह सुिध कोल िकरातनह पाई। हरषे जनु नव िनिध घर आई।।
कंद मूल फल भिर भिर दोना। चले रंक जनु लूटन सोना।।
ितनह महँ िजनह देखे दोउ भाता। अपर ितनहिह पूँछिह मगु जाता।।
कहत सुनत रघुबीर िनकाई। आइ सबिनह देखे रघुराई।।
करिहं जोहार भेट धिर आगे। पभुिह िबलोकिहं अित अनुरागे।।
िचत िलखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े। पुलक सरीर नयन जल बाढ़े।।
राम सनेह मगन सब जाने। किह िपय बचन सकल सनमाने।।
पभुिह जोहािर बहोिर बहोरी। बचन िबनीत कहिहं कर जोरी।।
दो0-अब हम नाथ सनाथ सब भए देिख पभु पाय।
भाग हमारे आगमनु राउर कोसलराय।।135।।
–*–*–
धनय भूिम बन पंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाउ तुमह धारा।।
धनय िबहग मृग काननचारी। सफल जनम भए तुमहिह िनहारी।।
हम सब धनय सिहत पिरवारा। दीख दरसु भिर नयन तुमहारा।।
कीनह बासु भल ठाउँ िबचारी। इहा सकल िरतु रहब सुखारी।।
हम सब भाित करब सेवकाई। किर केहिर अिह बाघ बराई।।
बन बेहड़ िगिर कंदर खोहा। सब हमार पभु पग पग जोहा।।
तहँ तहँ तुमहिह अहेर खेलाउब। सर िनरझर जलठाउँ देखाउब।।
हम सेवक पिरवार समेता। नाथ न सकुचब आयसु देता।।
दो0-बेद बचन मुिन मन अगम ते पभु करना ऐन।
बचन िकरातनह के सुनत िजिम िपतु बालक बैन।।136।।
–*–*–
रामिह केवल पेमु िपआरा। जािन लेउ जो जानिनहारा।।
राम सकल बनचर तब तोषे। किह मृदु बचन पेम पिरपोषे।।
िबदा िकए िसर नाइ िसधाए। पभु गुन कहत सुनत घर आए।।
एिह िबिध िसय समेत दोउ भाई। बसिहं िबिपन सुर मुिन सुखदाई।।
जब ते आइ रहे रघुनायकु। तब ते भयउ बनु मंगलदायकु।।
फूलिहं फलिहं िबटप िबिध नाना।।मंजु बिलत बर बेिल िबताना।।
सुरतर सिरस सुभायँ सुहाए। मनहुँ िबबुध बन पिरहिर आए।।
गंज मंजुतर मधुकर शेनी। ितिबध बयािर बहइ सुख देनी।।
दो0-नीलकंठ कलकंठ सुक चातक चक चकोर।
भाित भाित बोलिहं िबहग शवन सुखद िचत चोर।।137।।
–*–*–
केिर केहिर किप कोल कुरगं ा। िबगतबैर िबचरिहं सब संगा।।
िफरत अहेर राम छिब देखी। होिहं मुिदत मृगबंद िबसेषी।।
िबबुध िबिपन जहँ लिग जग माही। देिख राम बनु सकल िसहाही।।
सुरसिर सरसइ िदनकर कनया। मेकलसुता गोदाविर धनया।।
सब सर िसंधु नदी नद नाना। मंदािकिन कर करिहं बखाना।।
उदय असत िगिर अर कैलासू। मंदर मेर सकल सुरबासू।।
सैल िहमाचल आिदक जेते। िचतकूट जसु गाविहं तेते।।
िबंिध मुिदत मन सुखु न समाई। शम िबनु िबपुल बड़ाई पाई।।
दो0-िचतकूट के िबहग मृग बेिल िबटप तृन जाित।
पुनय पुंज सब धनय अस कहिहं देव िदन राित।।138।।
–*–*–
नयनवंत रघुबरिह िबलोकी। पाइ जनम फल होिहं िबसोकी।।
परिस चरन रज अचर सुखारी। भए परम पद के अिधकारी।।
सो बनु सैलु सुभायँ सुहावन। मंगलमय अित पावन पावन।।
मिहमा किहअ कविन िबिध तासू। सुखसागर जहँ कीनह िनवासू।।
पय पयोिध तिज अवध िबहाई। जहँ िसय लखनु रामु रहे आई।।
किह न सकिहं सुषमा जिस कानन। जौ सत सहस होिहं सहसानन।।
सो मै बरिन कहौ िबिध केही। डाबर कमठ िक मंदर लेही।।
सेविहं लखनु करम मन बानी। जाइ न सीलु सनेहु बखानी।।
दो0–िछनु िछनु लिख िसय राम पद जािन आपु पर नेह। ु
करत न सपनेहुँ लखनु िचतु बंधु मातु िपतु गेहु।।139।।
–*–*–
राम संग िसय रहित सुखारी। पुर पिरजन गृह सुरित िबसारी।।
िछनु िछनु िपय िबधु बदनु िनहारी। पमुिदत मनहुँ चकोरकुमारी।।
नाह नेहु िनत बढ़त िबलोकी। हरिषत रहित िदवस िजिम कोकी।।
िसय मनु राम चरन अनुरागा। अवध सहस सम बनु िपय लागा।।
परनकुटी िपय िपयतम संगा। िपय पिरवार कुरगं िबहंगा।।
सासु ससुर सम मुिनितय मुिनबर। असनु अिमअ सम कंद मूल फर।।
नाथ साथ साथरी सुहाई। मयन सयन सय सम सुखदाई।।
लोकप होिहं िबलोकत जासू। तेिह िक मोिह सक िबषय िबलासू।।
दो0–सुिमरत रामिह तजिहं जन तृन सम िबषय िबलासु।
रामिपया जग जनिन िसय कछु न आचरजु तासु।।140।।
–*–*–
सीय लखन जेिह िबिध सुखु लहही। सोइ रघुनाथ करिह सोइ कहही।।
कहिहं पुरातन कथा कहानी। सुनिहं लखनु िसय अित सुखु मानी।
जब जब रामु अवध सुिध करही। तब तब बािर िबलोचन भरही।।
सुिमिर मातु िपतु पिरजन भाई। भरत सनेहु सीलु सेवकाई।।
कृपािसंधु पभु होिहं दुखारी। धीरजु धरिहं कुसमउ िबचारी।।
लिख िसय लखनु िबकल होइ जाही। िजिम पुरषिह अनुसर पिरछाही।।
िपया बंधु गित लिख रघुनदं नु। धीर कृपाल भगत उर चंदनु।।
लगे कहन कछु कथा पुनीता। सुिन सुखु लहिहं लखनु अर सीता।।
दो0-रामु लखन सीता सिहत सोहत परन िनकेत।
िजिम बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत।।141।।
–*–*–
जोगविहं पभु िसय लखनिहं कैसे। पलक िबलोचन गोलक जैसे।।
सेविहं लखनु सीय रघुबीरिह। िजिम अिबबेकी पुरष सरीरिह।।
एिह िबिध पभु बन बसिहं सुखारी। खग मृग सुर तापस िहतकारी।।
कहेउँ राम बन गवनु सुहावा। सुनहु सुमंत अवध िजिम आवा।।
िफरेउ िनषादु पभुिह पहुँचाई। सिचव सिहत रथ देखेिस आई।।
मंती िबकल िबलोिक िनषादू। किह न जाइ जस भयउ िबषादू।।
राम राम िसय लखन पुकारी। परेउ धरिनतल बयाकुल भारी।।
देिख दिखन िदिस हय िहिहनाही। जनु िबनु पंख िबहग अकुलाही।।
दो0-निहं तृन चरिहं िपअिहं जलु मोचिहं लोचन बािर।
बयाकुल भए िनषाद सब रघुबर बािज िनहािर।।142।।
–*–*–
धिर धीरज तब कहइ िनषादू। अब सुमंत पिरहरहु िबषादू।।
तुमह पंिडत परमारथ गयाता। धरहु धीर लिख िबमुख िबधाता
िबिबध कथा किह किह मृदु बानी। रथ बैठारेउ बरबस आनी।।
सोक िसिथल रथ सकइ न हाकी। रघुबर िबरह पीर उर बाकी।।
चरफरािहँ मग चलिहं न घोरे। बन मृग मनहुँ आिन रथ जोरे।।
अढ़ुिक परिहं िफिर हेरिहं पीछे। राम िबयोिग िबकल दुख तीछे।।
जो कह रामु लखनु बैदेही। िहंकिर िहंकिर िहत हेरिहं तेही।।
बािज िबरह गित किह िकिम जाती। िबनु मिन फिनक िबकल जेिह भाती।।
दो0-भयउ िनषाद िबषादबस देखत सिचव तुरगं ।
बोिल सुसेवक चािर तब िदए सारथी संग।।143।।
–*–*–
गुह सारिथिह िफरेउ पहुँचाई। िबरहु िबषादु बरिन निहं जाई।।
चले अवध लेइ रथिह िनषादा। होिह छनिहं छन मगन िबषादा।।
सोच सुमंत िबकल दुख दीना। िधग जीवन रघुबीर िबहीना।।
रिहिह न अंतहुँ अधम सरीर। जसु न लहेउ िबछुरत रघुबीर।।
भए अजस अघ भाजन पाना। कवन हेतु निहं करत पयाना।।
अहह मंद मनु अवसर चूका। अजहुँ न हृदय होत दुइ टू का।।
मीिज हाथ िसर धुिन पिछताई। मनहँ कृपन धन रािस गवाई।।
िबिरद बािध बर बीर कहाई। चलेउ समर जनु सुभट पराई।।
दो0-िबप िबबेकी बेदिबद संमत साधु सुजाित।
िजिम धोखे मदपान कर सिचव सोच तेिह भाित।।144।।
–*–*–
िजिम कुलीन ितय साधु सयानी। पितदेवता करम मन बानी।।
रहै करम बस पिरहिर नाहू। सिचव हृदयँ ितिम दारन दाहु।।
लोचन सजल डीिठ भइ थोरी। सुनइ न शवन िबकल मित भोरी।।
सूखिहं अधर लािग मुहँ लाटी। िजउ न जाइ उर अविध कपाटी।।
िबबरन भयउ न जाइ िनहारी। मारेिस मनहुँ िपता महतारी।।
हािन गलािन िबपुल मन बयापी। जमपुर पंथ सोच िजिम पापी।।
बचनु न आव हृदयँ पिछताई। अवध काह मै देखब जाई।।
राम रिहत रथ देिखिह जोई। सकुिचिह मोिह िबलोकत सोई।।
दो0–धाइ पूँिछहिहं मोिह जब िबकल नगर नर नािर।
उतर देब मै सबिह तब हृदयँ बजु बैठािर।।145।।
–*–*–
पुिछहिहं दीन दुिखत सब माता। कहब काह मै ितनहिह िबधाता।।
पूिछिह जबिहं लखन महतारी। किहहउँ कवन सँदेस सुखारी।।
राम जनिन जब आइिह धाई। सुिमिर बचछु िजिम धेनु लवाई।।
पूँछत उतर देब मै तेही। गे बनु राम लखनु बैदेही।।
जोइ पूँिछिह तेिह ऊतर देबा।जाइ अवध अब यहु सुखु लेबा।।
पूँिछिह जबिहं राउ दुख दीना। िजवनु जासु रघुनाथ अधीना।।
देहउँ उतर कौनु मुहु लाई। आयउँ कुसल कुअँर पहुँचाई।।
सुनत लखन िसय राम सँदेसू। तृन िजिम तनु पिरहिरिह नरेसू।।
दो0–हदउ न िबदरेउ पंक िजिम िबछुरत पीतमु नीर।।
जानत हौ मोिह दीनह िबिध यहु जातना सरीर।।146।।
–*–*–
एिह िबिध करत पंथ पिछतावा। तमसा तीर तुरत रथु आवा।।
िबदा िकए किर िबनय िनषादा। िफरे पायँ पिर िबकल िबषादा।।
पैठत नगर सिचव सकुचाई। जनु मारेिस गुर बाभन गाई।।
बैिठ िबटप तर िदवसु गवावा। साझ समय तब अवसर पावा।।
अवध पबेसु कीनह अँिधआरे। पैठ भवन रथु रािख दुआरे।।
िजनह िजनह समाचार सुिन पाए। भूप दार रथु देखन आए।।
रथु पिहचािन िबकल लिख घोरे। गरिहं गात िजिम आतप ओरे।।
नगर नािर नर बयाकुल कैसे। िनघटत नीर मीनगन जैसे।।
दो0–सिचव आगमनु सुनत सबु िबकल भयउ रिनवासु।
भवन भयंकर लाग तेिह मानहुँ पेत िनवासु।।147।।
–*–*–
अित आरित सब पूँछिहं रानी। उतर न आव िबकल भइ बानी।।
सुनइ न शवन नयन निहं सूझा। कहहु कहा नृप तेिह तेिह बूझा।।
दािसनह दीख सिचव िबकलाई। कौसलया गृहँ गई लवाई।।
जाइ सुमंत दीख कस राजा। अिमअ रिहत जनु चंदु िबराजा।।
आसन सयन िबभूषन हीना। परेउ भूिमतल िनपट मलीना।।
लेइ उसासु सोच एिह भाती। सुरपुर ते जनु खँसेउ जजाती।।
लेत सोच भिर िछनु िछनु छाती। जनु जिर पंख परेउ संपाती।।
राम राम कह राम सनेही। पुिन कह राम लखन बैदेही।।
दो0-देिख सिचवँ जय जीव किह कीनहेउ दंड पनामु।
सुनत उठेउ बयाकुल नृपित कहु सुमंत कहँ रामु।।148।।
–*–*–
भूप सुमंतु लीनह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई।।
सिहत सनेह िनकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भिर बारी।।
राम कुसल कहु सखा सनेही। कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही।।
आने फेिर िक बनिह िसधाए। सुनत सिचव लोचन जल छाए।।
सोक िबकल पुिन पूँछ नरेसू। कहु िसय राम लखन संदेसू।।
राम रप गुन सील सुभाऊ। सुिमिर सुिमिर उर सोचत राऊ।।
राउ सुनाइ दीनह बनबासू। सुिन मन भयउ न हरषु हरासू।।
सो सुत िबछुरत गए न पाना। को पापी बड़ मोिह समाना।।
दो0-सखा रामु िसय लखनु जहँ तहा मोिह पहुँचाउ।
नािहं त चाहत चलन अब पान कहउँ सितभाउ।।149।।
–*–*–
पुिन पुिन पूँछत मंतिह राऊ। िपयतम सुअन सँदेस सुनाऊ।।
करिह सखा सोइ बेिग उपाऊ। रामु लखनु िसय नयन देखाऊ।।
सिचव धीर धिर कह मुदु बानी। महाराज तुमह पंिडत गयानी।।
बीर सुधीर धुरध ं र देवा। साधु समाजु सदा तुमह सेवा।।
जनम मरन सब दुख भोगा। हािन लाभ िपय िमलन िबयोगा।।
काल करम बस हौिहं गोसाई। बरबस राित िदवस की नाई।।
सुख हरषिहं जड़ दुख िबलखाही। दोउ सम धीर धरिहं मन माही।।
धीरज धरहु िबबेकु िबचारी। छािड़अ सोच सकल िहतकारी।।
दो0-पथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसिर तीर।
नहाई रहे जलपानु किर िसय समेत दोउ बीर।।150।।
–*–*–
केवट कीिनह बहुत सेवकाई। सो जािमिन िसंगरौर गवाई।।
होत पात बट छीर मगावा। जटा मुकुट िनज सीस बनावा।।
राम सखा तब नाव मगाई। िपया चढ़ाइ चढ़े रघुराई।।
लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढ़े पभु आयसु पाई।।
िबकल िबलोिक मोिह रघुबीरा। बोले मधुर बचन धिर धीरा।।
तात पनामु तात सन कहेहु। बार बार पद पंकज गहेहू।।
करिब पायँ पिर िबनय बहोरी। तात किरअ जिन िचंता मोरी।।
बन मग मंगल कुसल हमारे। कृपा अनुगह पुनय तुमहारे।।
छं0- तुमहरे अनुगह तात कानन जात सब सुखु पाइहौ।
पितपािल आयसु कुसल देखन पाय पुिन िफिर आइहौ।।
जननी सकल पिरतोिष पिर पिर पायँ किर िबनती घनी।
तुलसी करेहु सोइ जतनु जेिहं कुसली रहिहं कोसल धनी।।
सो0-गुर सन कहब सँदेसु बार बार पद पदुम गिह।
करब सोइ उपदेसु जेिहं न सोच मोिह अवधपित।।151।।
पुरजन पिरजन सकल िनहोरी। तात सुनाएहु िबनती मोरी।।
सोइ सब भाित मोर िहतकारी। जाते रह नरनाहु सुखारी।।
कहब सँदेसु भरत के आएँ। नीित न तिजअ राजपदु पाएँ।।
पालेहु पजिह करम मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी।।
ओर िनबाहेहु भायप भाई। किर िपतु मातु सुजन सेवकाई।।
तात भाित तेिह राखब राऊ। सोच मोर जेिहं करै न काऊ।।
लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरिज राम पुिन मोिह िनहोरा।।
बार बार िनज सपथ देवाई। कहिब न तात लखन लिरकाई।।
दो0-किह पनाम कछु कहन िलय िसय भइ िसिथल सनेह।
थिकत बचन लोचन सजल पुलक पललिवत देह।।152।।
–*–*–
तेिह अवसर रघुबर रख पाई। केवट पारिह नाव चलाई।।
रघुकुलितलक चले एिह भाती। देखउँ ठाढ़ कुिलस धिर छाती।।
मै आपन िकिम कहौ कलेसू। िजअत िफरेउँ लेइ राम सँदेसू।।
अस किह सिचव बचन रिह गयऊ। हािन गलािन सोच बस भयऊ।।
सुत बचन सुनतिहं नरनाहू। परेउ धरिन उर दारन दाहू।।
तलफत िबषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ बयापा।।
किर िबलाप सब रोविहं रानी। महा िबपित िकिम जाइ बखानी।।
सुिन िबलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहू कर धीरजु भागा।।
दो0-भयउ कोलाहलु अवध अित सुिन नृप राउर सोर।
िबपुल िबहग बन परेउ िनिस मानहुँ कुिलस कठोर।।153।।
–*–*–
पान कंठगत भयउ भुआलू। मिन िबहीन जनु बयाकुल बयालू।।
इदी सकल िबकल भइँ भारी। जनु सर सरिसज बनु िबनु बारी।।
कौसलया नृपु दीख मलाना। रिबकुल रिब अँथयउ िजयँ जाना।
उर धिर धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी।।
नाथ समुिझ मन किरअ िबचार। राम िबयोग पयोिध अपार।।
करनधार तुमह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल िपय पिथक समाजू।।
धीरजु धिरअ त पाइअ पार। नािहं त बूिड़िह सबु पिरवार।।
जौ िजयँ धिरअ िबनय िपय मोरी। रामु लखनु िसय िमलिहं बहोरी।।
दो0–िपया बचन मृदु सुनत नृपु िचतयउ आँिख उघािर।
तलफत मीन मलीन जनु सीचत सीतल बािर।।154।।
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धिर धीरजु उठी बैठ भुआलू। कहु सुमंत कहँ राम कृपालू।।
कहा लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ िपय पुतबधू बैदेही।।
िबलपत राउ िबकल बहु भाती। भइ जुग सिरस िसराित न राती।।
तापस अंध साप सुिध आई। कौसलयिह सब कथा सुनाई।।
भयउ िबकल बरनत इितहासा। राम रिहत िधग जीवन आसा।।
सो तनु रािख करब मै काहा। जेिह न पेम पनु मोर िनबाहा।।
हा रघुनदं न पान िपरीते। तुमह िबनु िजअत बहुत िदन बीते।।
हा जानकी लखन हा रघुबर। हा िपतु िहत िचत चातक जलधर।
दो0-राम राम किह राम किह राम राम किह राम।
तनु पिरहिर रघुबर िबरहँ राउ गयउ सुरधाम।।155।।
–*–*–
िजअन मरन फलु दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जसु छावा।।
िजअत राम िबधु बदनु िनहारा। राम िबरह किर मरनु सँवारा।।
सोक िबकल सब रोविहं रानी। रपु सील बलु तेजु बखानी।।
करिहं िबलाप अनेक पकारा। परही भूिमतल बारिहं बारा।।
िबलपिहं िबकल दास अर दासी। घर घर रदनु करिहं पुरबासी।।
अँथयउ आजु भानुकुल भानू। धरम अविध गुन रप िनधानू।।
गारी सकल कैकइिह देही। नयन िबहीन कीनह जग जेही।।
एिह िबिध िबलपत रैिन िबहानी। आए सकल महामुिन गयानी।।
दो0-तब बिसष मुिन समय सम किह अनेक इितहास।
सोक नेवारेउ सबिह कर िनज िबगयान पकास।।156।।
–*–*–
तेल नाव भिर नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुिर अस भाषा।।
धावहु बेिग भरत पिहं जाह।ू नृप सुिध कतहुँ कहहु जिन काह।
ू ।
एतनेइ कहेहु भरत सन जाई। गुर बोलाई पठयउ दोउ भाई।।
सुिन मुिन आयसु धावन धाए। चले बेग बर बािज लजाए।।
अनरथु अवध अरंभेउ जब ते। कुसगुन होिहं भरत कहुँ तब ते।।
देखिहं राित भयानक सपना। जािग करिहं कटु कोिट कलपना।।
िबप जेवाइ देिहं िदन दाना। िसव अिभषेक करिहं िबिध नाना।।
मागिहं हृदयँ महेस मनाई। कुसल मातु िपतु पिरजन भाई।।
दो0-एिह िबिध सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ।
गुर अनुसासन शवन सुिन चले गनेसु मनाइ।।157।।
–*–*–
चले समीर बेग हय हाके। नाघत सिरत सैल बन बाके।।
हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानिहं िजयँ जाउँ उड़ाई।।
एक िनमेष बरस सम जाई। एिह िबिध भरत नगर िनअराई।।
असगुन होिहं नगर पैठारा। रटिहं कुभाित कुखेत करारा।।
खर िसआर बोलिहं पितकूला। सुिन सुिन होइ भरत मन सूला।।
शीहत सर सिरता बन बागा। नगर िबसेिष भयावनु लागा।।
खग मृग हय गय जािहं न जोए। राम िबयोग कुरोग िबगोए।।
नगर नािर नर िनपट दुखारी। मनहुँ सबिनह सब संपित हारी।।
दो0-पुरजन िमिलिहं न कहिहं कछु गवँिहं जोहारिहं जािहं।
भरत कुसल पूँिछ न सकिहं भय िबषाद मन मािहं।।158।।
–*–*–
हाट बाट निहं जाइ िनहारी। जनु पुर दहँ िदिस लािग दवारी।।
आवत सुत सुिन कैकयनंिदिन। हरषी रिबकुल जलरह चंिदिन।।
सिज आरती मुिदत उिठ धाई। दारेिहं भेिट भवन लेइ आई।।
भरत दुिखत पिरवार िनहारा। मानहुँ तुिहन बनज बनु मारा।।
कैकेई हरिषत एिह भाित। मनहुँ मुिदत दव लाइ िकराती।।
सुतिह ससोच देिख मनु मारे। पूँछित नैहर कुसल हमारे।।
सकल कुसल किह भरत सुनाई। पूँछी िनज कुल कुसल भलाई।।
कहु कहँ तात कहा सब माता। कहँ िसय राम लखन िपय भाता।।
दो0-सुिन सुत बचन सनेहमय कपट नीर भिर नैन।
भरत शवन मन सूल सम पािपिन बोली बैन।।159।।
–*–*–
तात बात मै सकल सँवारी। भै मंथरा सहाय िबचारी।।
कछुक काज िबिध बीच िबगारेउ। भूपित सुरपित पुर पगु धारेउ।।
सुनत भरतु भए िबबस िबषादा। जनु सहमेउ किर केहिर नादा।।
तात तात हा तात पुकारी। परे भूिमतल बयाकुल भारी।।
चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामिह सौपेहु मोही।।
बहुिर धीर धिर उठे सँभारी। कहु िपतु मरन हेतु महतारी।।
सुिन सुत बचन कहित कैकेई। मरमु पािछ जनु माहुर देई।।
आिदहु ते सब आपिन करनी। कुिटल कठोर मुिदत मन बरनी।।
दो0-भरतिह िबसरेउ िपतु मरन सुनत राम बन गौनु।
हेतु अपनपउ जािन िजयँ थिकत रहे धिर मौनु।।160।।
–*–*–
िबकल िबलोिक सुतिह समुझावित। मनहुँ जरे पर लोनु लगावित।।
तात राउ निहं सोचे जोगू। िबढ़इ सुकृत जसु कीनहेउ भोगू।।
जीवत सकल जनम फल पाए। अंत अमरपित सदन िसधाए।।
अस अनुमािन सोच पिरहरह। ू सिहत समाज राज पुर करह। ू ।
सुिन सुिठ सहमेउ राजकुमार। पाके छत जनु लाग अँगार।।
धीरज धिर भिर लेिहं उसासा। पापिन सबिह भाित कुल नासा।।
जौ पै कुरिच रही अित तोही। जनमत काहे न मारे मोही।।
पेड़ कािट तै पालउ सीचा। मीन िजअन िनित बािर उलीचा।।
दो0-हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ।
जननी तूँ जननी भई िबिध सन कछु न बसाइ।।161।।
–*–*–
जब तै कुमित कुमत िजयँ ठयऊ। खंड खंड होइ हदउ न गयऊ।।
बर मागत मन भइ निहं पीरा। गिर न जीह मुहँ परेउ न कीरा।।
भूपँ पतीत तोिर िकिम कीनही। मरन काल िबिध मित हिर लीनही।।
िबिधहुँ न नािर हृदय गित जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी।।
सरल सुसील धरम रत राऊ। सो िकिम जानै तीय सुभाऊ।।
अस को जीव जंतु जग माही। जेिह रघुनाथ पानिपय नाही।।
भे अित अिहत रामु तेउ तोही। को तू अहिस सतय कहु मोही।।
जो हिस सो हिस मुहँ मिस लाई। आँिख ओट उिठ बैठिहं जाई।।
दो0-राम िबरोधी हृदय ते पगट कीनह िबिध मोिह।
मो समान को पातकी बािद कहउँ कछु तोिह।।162।।
–*–*–
सुिन सतुघुन मातु कुिटलाई। जरिहं गात िरस कछु न बसाई।।
तेिह अवसर कुबरी तहँ आई। बसन िबभूषन िबिबध बनाई।।
लिख िरस भरेउ लखन लघु भाई। बरत अनल घृत आहुित पाई।।
हुमिग लात तिक कूबर मारा। पिर मुह भर मिह करत पुकारा।।
कूबर टू टेउ फूट कपार। दिलत दसन मुख रिधर पचार।।
आह दइअ मै काह नसावा। करत नीक फलु अनइस पावा।।
सुिन िरपुहन लिख नख िसख खोटी। लगे घसीटन धिर धिर झोटी।।
भरत दयािनिध दीिनह छड़ाई। कौसलया पिहं गे दोउ भाई।।
दो0-मिलन बसन िबबरन िबकल कृस सरीर दुख भार।
कनक कलप बर बेिल बन मानहुँ हनी तुसार।।163।।
–*–*–
भरतिह देिख मातु उिठ धाई। मुरिछत अविन परी झइँ आई।।
देखत भरतु िबकल भए भारी। परे चरन तन दसा िबसारी।।
मातु तात कहँ देिह देखाई। कहँ िसय रामु लखनु दोउ भाई।।
कैकइ कत जनमी जग माझा। जौ जनिम त भइ काहे न बाझा।।
कुल कलंकु जेिहं जनमेउ मोही। अपजस भाजन िपयजन दोही।।
को ितभुवन मोिह सिरस अभागी। गित अिस तोिर मातु जेिह लागी।।
िपतु सुरपुर बन रघुबर केतू। मै केवल सब अनरथ हेतु।।
िधग मोिह भयउँ बेनु बन आगी। दुसह दाह दुख दूषन भागी।।
दो0-मातु भरत के बचन मृदु सुिन सुिन उठी सँभािर।।
िलए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचित बािर।।164।।
–*–*–
सरल सुभाय मायँ िहयँ लाए। अित िहत मनहुँ राम िफिर आए।।
भेटेउ बहुिर लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई।।
देिख सुभाउ कहत सबु कोई। राम मातु अस काहे न होई।।
माता भरतु गोद बैठारे। आँसु पौिछ मृदु बचन उचारे।।
अजहुँ बचछ बिल धीरज धरहू। कुसमउ समुिझ सोक पिरहरहू।।
जिन मानहु िहयँ हािन गलानी। काल करम गित अघिटत जािन।।
काहुिह दोसु देहु जिन ताता। भा मोिह सब िबिध बाम िबधाता।।
जो एतेहुँ दुख मोिह िजआवा। अजहुँ को जानइ का तेिह भावा।।
दो0-िपतु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
िबसमउ हरषु न हृदयँ कछु पिहरे बलकल चीर। 165।।
–*–*–
मुख पसन मन रंग न रोषू। सब कर सब िबिध किर पिरतोषू।।
चले िबिपन सुिन िसय सँग लागी। रहइ न राम चरन अनुरागी।।
सुनतिहं लखनु चले उिठ साथा। रहिहं न जतन िकए रघुनाथा।।
तब रघुपित सबही िसर नाई। चले संग िसय अर लघु भाई।।
रामु लखनु िसय बनिह िसधाए। गइउँ न संग न पान पठाए।।
यहु सबु भा इनह आँिखनह आगे। तउ न तजा तनु जीव अभागे।।
मोिह न लाज िनज नेहु िनहारी। राम सिरस सुत मै महतारी।।
िजऐ मरै भल भूपित जाना। मोर हृदय सत कुिलस समाना।।
दो0- कौसलया के बचन सुिन भरत सिहत रिनवास।
बयाकुल िबलपत राजगृह मानहुँ सोक नेवासु।।166।।
–*–*–
िबलपिहं िबकल भरत दोउ भाई। कौसलया िलए हृदयँ लगाई।।
भाित अनेक भरतु समुझाए। किह िबबेकमय बचन सुनाए।।
भरतहुँ मातु सकल समुझाई। किह पुरान शुित कथा सुहाई।।
छल िबहीन सुिच सरल सुबानी। बोले भरत जोिर जुग पानी।।
जे अघ मातु िपता सुत मारे। गाइ गोठ मिहसुर पुर जारे।।
जे अघ ितय बालक बध कीनहे। मीत महीपित माहुर दीनहे।।
जे पातक उपपातक अहही। करम बचन मन भव किब कहही।।
ते पातक मोिह होहुँ िबधाता। जौ यहु होइ मोर मत माता।।
दो0-जे पिरहिर हिर हर चरन भजिहं भूतगन घोर।
तेिह कइ गित मोिह देउ िबिध जौ जननी मत मोर।।167।।
–*–*–
बेचिहं बेदु धरमु दुिह लेही। िपसुन पराय पाप किह देही।।
कपटी कुिटल कलहिपय कोधी। बेद िबदूषक िबसव िबरोधी।।
लोभी लंपट लोलुपचारा। जे ताकिहं परधनु परदारा।।
पावौ मै ितनह के गित घोरा। जौ जननी यहु संमत मोरा।।
जे निहं साधुसंग अनुरागे। परमारथ पथ िबमुख अभागे।।
जे न भजिहं हिर नरतनु पाई। िजनहिह न हिर हर सुजसु सोहाई।।
तिज शुितपंथु बाम पथ चलही। बंचक िबरिच बेष जगु छलही।।
ितनह कै गित मोिह संकर देऊ। जननी जौ यहु जानौ भेऊ।।
दो0-मातु भरत के बचन सुिन साचे सरल सुभायँ।
कहित राम िपय तात तुमह सदा बचन मन कायँ।।168।।
–*–*–
राम पानहु ते पान तुमहारे। तुमह रघुपितिह पानहु ते पयारे।।
िबधु िबष चवै सतवै िहमु आगी। होइ बािरचर बािर िबरागी।।
भएँ गयानु बर िमटै न मोहू। तुमह रामिह पितकूल न होहू।।
मत तुमहार यहु जो जग कहही। सो सपनेहुँ सुख सुगित न लहही।।
अस किह मातु भरतु िहयँ लाए। थन पय सतविहं नयन जल छाए।।
करत िबलाप बहुत यिह भाती। बैठेिहं बीित गइ सब राती।।
बामदेउ बिसष तब आए। सिचव महाजन सकल बोलाए।।
मुिन बहु भाित भरत उपदेसे। किह परमारथ बचन सुदेसे।।
दो0-तात हृदयँ धीरजु धरहु करहु जो अवसर आजु।
उठे भरत गुर बचन सुिन करन कहेउ सबु साजु।।169।।
–*–*–
नृपतनु बेद िबिदत अनहवावा। परम िबिचत िबमानु बनावा।।
गिह पद भरत मातु सब राखी। रही रािन दरसन अिभलाषी।।
चंदन अगर भार बहु आए। अिमत अनेक सुगंध सुहाए।।
सरजु तीर रिच िचता बनाई। जनु सुरपुर सोपान सुहाई।।
एिह िबिध दाह िकया सब कीनही। िबिधवत नहाइ ितलाजुिल दीनही।।
सोिध सुमृित सब बेद पुराना। कीनह भरत दसगात िबधाना।।
जहँ जस मुिनबर आयसु दीनहा। तहँ तस सहस भाित सबु कीनहा।।
भए िबसुद िदए सब दाना। धेनु बािज गज बाहन नाना।।
दो0-िसंघासन भूषन बसन अन धरिन धन धाम।
िदए भरत लिह भूिमसुर भे पिरपूरन काम।।170।।
–*–*–
िपतु िहत भरत कीिनह जिस करनी। सो मुख लाख जाइ निहं बरनी।।
सुिदनु सोिध मुिनबर तब आए। सिचव महाजन सकल बोलाए।।
बैठे राजसभा सब जाई। पठए बोिल भरत दोउ भाई।।
भरतु बिसष िनकट बैठारे। नीित धरममय बचन उचारे।।
पथम कथा सब मुिनबर बरनी। कैकइ कुिटल कीिनह जिस करनी।।
भूप धरमबतु सतय सराहा। जेिहं तनु पिरहिर पेमु िनबाहा।।
कहत राम गुन सील सुभाऊ। सजल नयन पुलकेउ मुिनराऊ।।
बहुिर लखन िसय पीित बखानी। सोक सनेह मगन मुिन गयानी।।
दो0-सुनहु भरत भावी पबल िबलिख कहेउ मुिननाथ।
हािन लाभु जीवन मरनु जसु अपजसु िबिध हाथ।।171।।
–*–*–
अस िबचािर केिह देइअ दोसू। बयरथ कािह पर कीिजअ रोसू।।
तात िबचार केिह करहु मन माही। सोच जोगु दसरथु नृपु नाही।।
सोिचअ िबप जो बेद िबहीना। तिज िनज धरमु िबषय लयलीना।।
सोिचअ नृपित जो नीित न जाना। जेिह न पजा िपय पान समाना।।
सोिचअ बयसु कृपन धनवानू। जो न अितिथ िसव भगित सुजानू।।
सोिचअ सूदु िबप अवमानी। मुखर मानिपय गयान गुमानी।।
सोिचअ पुिन पित बंचक नारी। कुिटल कलहिपय इचछाचारी।।
सोिचअ बटु िनज बतु पिरहरई। जो निहं गुर आयसु अनुसरई।।
दो0-सोिचअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ तयाग।
सोिचअ जित पंपच रत िबगत िबबेक िबराग।।172।।
–*–*–
बैखानस सोइ सोचै जोगु। तपु िबहाइ जेिह भावइ भोगू।।
सोिचअ िपसुन अकारन कोधी। जनिन जनक गुर बंधु िबरोधी।।
सब िबिध सोिचअ पर अपकारी। िनज तनु पोषक िनरदय भारी।।
सोचनीय सबिह िबिध सोई। जो न छािड़ छलु हिर जन होई।।
सोचनीय निहं कोसलराऊ। भुवन चािरदस पगट पभाऊ।।
भयउ न अहइ न अब होिनहारा। भूप भरत जस िपता तुमहारा।।
िबिध हिर हर सुरपित िदिसनाथा। बरनिहं सब दसरथ गुन गाथा।।
दो0-कहहु तात केिह भाित कोउ किरिह बड़ाई तासु।
राम लखन तुमह सतुहन सिरस सुअन सुिच जासु।।173।।
–*–*–
सब पकार भूपित बड़भागी। बािद िबषादु किरअ तेिह लागी।।
यहु सुिन समुिझ सोचु पिरहरहू। िसर धिर राज रजायसु करहू।।
राय राजपदु तुमह कहुँ दीनहा। िपता बचनु फुर चािहअ कीनहा।।
तजे रामु जेिहं बचनिह लागी। तनु पिरहरेउ राम िबरहागी।।
नृपिह बचन िपय निहं िपय पाना। करहु तात िपतु बचन पवाना।।
करहु सीस धिर भूप रजाई। हइ तुमह कहँ सब भाित भलाई।।
परसुराम िपतु अगया राखी। मारी मातु लोक सब साखी।।
तनय जजाितिह जौबनु दयऊ। िपतु अगया अघ अजसु न भयऊ।।
दो0-अनुिचत उिचत िबचार तिज जे पालिहं िपतु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसिहं अमरपित ऐन।।174।।
–*–*–
अविस नरेस बचन फुर करहू। पालहु पजा सोकु पिरहरहू।।
सुरपुर नृप पाइिह पिरतोषू। तुमह कहुँ सुकृत सुजसु निहं दोषू।।
बेद िबिदत संमत सबही का। जेिह िपतु देइ सो पावइ टीका।।
करहु राजु पिरहरहु गलानी। मानहु मोर बचन िहत जानी।।
सुिन सुखु लहब राम बैदेही। अनुिचत कहब न पंिडत केही।।
कौसलयािद सकल महतारी। तेउ पजा सुख होिहं सुखारी।।
परम तुमहार राम कर जािनिह। सो सब िबिध तुमह सन भल मािनिह।।
सौपेहु राजु राम कै आएँ। सेवा करेहु सनेह सुहाएँ।।
दो0-कीिजअ गुर आयसु अविस कहिहं सिचव कर जोिर।
रघुपित आएँ उिचत जस तस तब करब बहोिर।।175।।
–*–*–
कौसलया धिर धीरजु कहई। पूत पथय गुर आयसु अहई।।
सो आदिरअ किरअ िहत मानी। तिजअ िबषादु काल गित जानी।।
बन रघुपित सुरपित नरनाहू। तुमह एिह भाित तात कदराहू।।
पिरजन पजा सिचव सब अंबा। तुमहही सुत सब कहँ अवलंबा।।
लिख िबिध बाम कालु किठनाई। धीरजु धरहु मातु बिल जाई।।
िसर धिर गुर आयसु अनुसरहू। पजा पािल पिरजन दुखु हरहू।।
गुर के बचन सिचव अिभनंदनु। सुने भरत िहय िहत जनु चंदनु।।
सुनी बहोिर मातु मृदु बानी। सील सनेह सरल रस सानी।।
छं0-सानी सरल रस मातु बानी सुिन भरत बयाकुल भए।
लोचन सरोरह सतवत सीचत िबरह उर अंकुर नए।।
सो दसा देखत समय तेिह िबसरी सबिह सुिध देह की।
तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की।।
सो0-भरतु कमल कर जोिर धीर धुरध ं र धीर धिर।
बचन अिमअँ जनु बोिर देत उिचत उतर सबिह।।176।।
मासपारायण, अठारहवा िवशाम
मोिह उपदेसु दीनह गुर नीका। पजा सिचव संमत सबही का।।
मातु उिचत धिर आयसु दीनहा। अविस सीस धिर चाहउँ कीनहा।।
गुर िपतु मातु सवािम िहत बानी। सुिन मन मुिदत किरअ भिल जानी।।
उिचत िक अनुिचत िकएँ िबचार। धरमु जाइ िसर पातक भार।।
तुमह तौ देहु सरल िसख सोई। जो आचरत मोर भल होई।।
जदिप यह समुझत हउँ नीके। तदिप होत पिरतोषु न जी के।।
अब तुमह िबनय मोिर सुिन लेह। ू मोिह अनुहरत िसखावनु देह।
ू ।
ऊतर देउँ छमब अपराधू। दुिखत दोष गुन गनिहं न साधू।।
दो0-िपतु सुरपुर िसय रामु बन करन कहहु मोिह राजु।
एिह ते जानहु मोर िहत कै आपन बड़ काजु।।177।।
–*–*–
िहत हमार िसयपित सेवकाई। सो हिर लीनह मातु कुिटलाई।।
मै अनुमािन दीख मन माही। आन उपायँ मोर िहत नाही।।
सोक समाजु राजु केिह लेखे। लखन राम िसय िबनु पद देखे।।
बािद बसन िबनु भूषन भार। बािद िबरित िबनु बह िबचार।।
सरज सरीर बािद बहु भोगा। िबनु हिरभगित जायँ जप जोगा।।
जायँ जीव िबनु देह सुहाई। बािद मोर सबु िबनु रघुराई।।
जाउँ राम पिहं आयसु देहू। एकिहं आँक मोर िहत एहू।।
मोिह नृप किर भल आपन चहह। ू सोउ सनेह जड़ता बस कहह। ू ।
दो0-कैकेई सुअ कुिटलमित राम िबमुख गतलाज।
तुमह चाहत सुखु मोहबस मोिह से अधम के राज।।178।।
–*–*–
कहउँ साचु सब सुिन पितआह। ू चािहअ धरमसील नरनाह। ू ।
मोिह राजु हिठ देइहहु जबही। रसा रसातल जाइिह तबही।।
मोिह समान को पाप िनवासू। जेिह लिग सीय राम बनबासू।।
रायँ राम कहुँ काननु दीनहा। िबछुरत गमनु अमरपुर कीनहा।।
मै सठु सब अनरथ कर हेतू। बैठ बात सब सुनउँ सचेतू।।
िबनु रघुबीर िबलोिक अबासू। रहे पान सिह जग उपहासू।।
राम पुनीत िबषय रस रखे। लोलुप भूिम भोग के भूखे।।
कहँ लिग कहौ हृदय किठनाई। िनदिर कुिलसु जेिहं लही बड़ाई।।
दो0-कारन ते कारजु किठन होइ दोसु निह मोर।
कुिलस अिसथ ते उपल ते लोह कराल कठोर।।179।।
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कैकेई भव तनु अनुरागे। पावर पान अघाइ अभागे।।
जौ िपय िबरहँ पान िपय लागे। देखब सुनब बहुत अब आगे।।
लखन राम िसय कहुँ बनु दीनहा। पठइ अमरपुर पित िहत कीनहा।।
लीनह िबधवपन अपजसु आपू। दीनहेउ पजिह सोकु संतापू।।
मोिह दीनह सुखु सुजसु सुराजू। कीनह कैकेई सब कर काजू।।
एिह ते मोर काह अब नीका। तेिह पर देन कहहु तुमह टीका।।
कैकई जठर जनिम जग माही। यह मोिह कहँ कछु अनुिचत नाही।।
मोिर बात सब िबिधिहं बनाई। पजा पाच कत करहु सहाई।।
दो0-गह गहीत पुिन बात बस तेिह पुिन बीछी मार।
तेिह िपआइअ बारनी कहहु काह उपचार।।180।।
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कैकइ सुअन जोगु जग जोई। चतुर िबरंिच दीनह मोिह सोई।।
दसरथ तनय राम लघु भाई। दीिनह मोिह िबिध बािद बड़ाई।।
तुमह सब कहहु कढ़ावन टीका। राय रजायसु सब कहँ नीका।।
उतर देउँ केिह िबिध केिह केही। कहहु सुखेन जथा रिच जेही।।
मोिह कुमातु समेत िबहाई। कहहु किहिह के कीनह भलाई।।
मो िबनु को सचराचर माही। जेिह िसय रामु पानिपय नाही।।
परम हािन सब कहँ बड़ लाह। ू अिदनु मोर निह दूषन काह।ू ।
संसय सील पेम बस अहहू। सबुइ उिचत सब जो कछु कहहू।।
दो0-राम मातु सुिठ सरलिचत मो पर पेमु िबसेिष।
कहइ सुभाय सनेह बस मोिर दीनता देिख।।181।
–*–*–
गुर िबबेक सागर जगु जाना। िजनहिह िबसव कर बदर समाना।।
मो कहँ ितलक साज सज सोऊ। भएँ िबिध िबमुख िबमुख सबु कोऊ।।
पिरहिर रामु सीय जग माही। कोउ न किहिह मोर मत नाही।।
सो मै सुनब सहब सुखु मानी। अंतहँु कीच तहा जहँ पानी।।
डर न मोिह जग किहिह िक पोचू। परलोकहु कर नािहन सोचू।।
एकइ उर बस दुसह दवारी। मोिह लिग भे िसय रामु दुखारी।।
जीवन लाहु लखन भल पावा। सबु तिज राम चरन मनु लावा।।
मोर जनम रघुबर बन लागी। झूठ काह पिछताउँ अभागी।।
दो0-आपिन दारन दीनता कहउँ सबिह िसर नाइ।
देखे िबनु रघुनाथ पद िजय कै जरिन न जाइ।।182।।
–*–*–
आन उपाउ मोिह निह सूझा। को िजय कै रघुबर िबनु बूझा।।
एकिहं आँक इहइ मन माही। पातकाल चिलहउँ पभु पाही।।
जदिप मै अनभल अपराधी। भै मोिह कारन सकल उपाधी।।
तदिप सरन सनमुख मोिह देखी। छिम सब किरहिहं कृपा िबसेषी।।
सील सकुच सुिठ सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन रघुराऊ।।
अिरहुक अनभल कीनह न रामा। मै िससु सेवक जदिप बामा।।
तुमह पै पाच मोर भल मानी। आयसु आिसष देहु सुबानी।।
जेिहं सुिन िबनय मोिह जनु जानी। आविहं बहुिर रामु रजधानी।।
दो0-जदिप जनमु कुमातु ते मै सठु सदा सदोस।
आपन जािन न तयािगहिहं मोिह रघुबीर भरोस।।183।।
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भरत बचन सब कहँ िपय लागे। राम सनेह सुधा जनु पागे।।
लोग िबयोग िबषम िबष दागे। मंत सबीज सुनत जनु जागे।।
मातु सिचव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ िबकल भए भारी।।
भरतिह कहिह सरािह सराही। राम पेम मूरित तनु आही।।
तात भरत अस काहे न कहहू। पान समान राम िपय अहहू।।
जो पावँर अपनी जड़ताई। तुमहिह सुगाइ मातु कुिटलाई।।
सो सठु कोिटक पुरष समेता। बिसिह कलप सत नरक िनकेता।।
अिह अघ अवगुन निह मिन गहई। हरइ गरल दुख दािरद दहई।।
दो0-अविस चिलअ बन रामु जहँ भरत मंतु भल कीनह।
सोक िसंधु बूड़त सबिह तुमह अवलंबनु दीनह।।184।।
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भा सब के मन मोदु न थोरा। जनु घन धुिन सुिन चातक मोरा।।
चलत पात लिख िनरनउ नीके। भरतु पानिपय भे सबही के।।
मुिनिह बंिद भरतिह िसर नाई। चले सकल घर िबदा कराई।।
धनय भरत जीवनु जग माही। सीलु सनेहु सराहत जाही।।
कहिह परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर साजिहं साजू।।
जेिह राखिहं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदिन मारी।।
कोउ कह रहन किहअ निहं काह। ू को न चहइ जग जीवन लाह। ू ।
दो0-जरउ सो संपित सदन सुखु सुहद मातु िपतु भाइ।
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ।।185।।
–*–*–
घर घर साजिहं बाहन नाना। हरषु हृदयँ परभात पयाना।।
भरत जाइ घर कीनह िबचार। नगर बािज गज भवन भँडार।।
संपित सब रघुपित कै आही। जौ िबनु जतन चलौ तिज ताही।।
तौ पिरनाम न मोिर भलाई। पाप िसरोमिन साइँ दोहाई।।
करइ सवािम िहत सेवकु सोई। दूषन कोिट देइ िकन कोई।।
अस िबचािर सुिच सेवक बोले। जे सपनेहुँ िनज धरम न डोले।।
किह सबु मरमु धरमु भल भाषा। जो जेिह लायक सो तेिहं राखा।।
किर सबु जतनु रािख रखवारे। राम मातु पिहं भरतु िसधारे।।
दो0-आरत जननी जािन सब भरत सनेह सुजान।
कहेउ बनावन पालकी सजन सुखासन जान।।186।।
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चक चिक िजिम पुर नर नारी। चहत पात उर आरत भारी।।
जागत सब िनिस भयउ िबहाना। भरत बोलाए सिचव सुजाना।।
कहेउ लेहु सबु ितलक समाजू। बनिहं देब मुिन रामिहं राजू।।
बेिग चलहु सुिन सिचव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे।।
अरं धती अर अिगिन समाऊ। रथ चिढ़ चले पथम मुिनराऊ।।
िबप बृंद चिढ़ बाहन नाना। चले सकल तप तेज िनधाना।।
नगर लोग सब सिज सिज जाना। िचतकूट कहँ कीनह पयाना।।
िसिबका सुभग न जािहं बखानी। चिढ़ चिढ़ चलत भई सब रानी।।
दो0-सौिप नगर सुिच सेवकिन सादर सकल चलाइ।
सुिमिर राम िसय चरन तब चले भरत दोउ भाइ।।187।।
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राम दरस बस सब नर नारी। जनु किर किरिन चले तिक बारी।।
बन िसय रामु समुिझ मन माही। सानुज भरत पयादेिहं जाही।।
देिख सनेहु लोग अनुरागे। उतिर चले हय गय रथ तयागे।।
जाइ समीप रािख िनज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली।।
तात चढ़हु रथ बिल महतारी। होइिह िपय पिरवार दुखारी।।
तुमहरे चलत चिलिह सबु लोगू। सकल सोक कृस निहं मग जोगू।।
िसर धिर बचन चरन िसर नाई। रथ चिढ़ चलत भए दोउ भाई।।
तमसा पथम िदवस किर बासू। दूसर गोमित तीर िनवासू।।
दो0-पय अहार फल असन एक िनिस भोजन एक लोग।
करत राम िहत नेम बत पिरहिर भूषन भोग।।188।।
–*–*–
सई तीर बिस चले िबहाने। सृंगबेरपुर सब िनअराने।।
समाचार सब सुने िनषादा। हृदयँ िबचार करइ सिबषादा।।
कारन कवन भरतु बन जाही। है कछु कपट भाउ मन माही।।
जौ पै िजयँ न होित कुिटलाई। तौ कत लीनह संग कटकाई।।
जानिहं सानुज रामिह मारी। करउँ अकंटक राजु सुखारी।।
भरत न राजनीित उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी।।
सकल सुरासुर जुरिहं जुझारा। रामिह समर न जीतिनहारा।।
का आचरजु भरतु अस करही। निहं िबष बेिल अिमअ फल फरही।।
दो0-अस िबचािर गुहँ गयाित सन कहेउ सजग सब होहु।
हथवासहु बोरहु तरिन कीिजअ घाटारोहु।।189।।
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होहु सँजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै के ठाटा।।
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। िजअत न सुरसिर उतरन देऊँ।।
समर मरनु पुिन सुरसिर तीरा। राम काजु छनभंगु सरीरा।।
भरत भाइ नृपु मै जन नीचू। बड़े भाग अिस पाइअ मीचू।।
सवािम काज किरहउँ रन रारी। जस धविलहउँ भुवन दस चारी।।
तजउँ पान रघुनाथ िनहोरे। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरे।।
साधु समाज न जाकर लेखा। राम भगत महुँ जासु न रेखा।।
जायँ िजअत जग सो मिह भार। जननी जौबन िबटप कुठार।।
दो0-िबगत िबषाद िनषादपित सबिह बढ़ाइ उछाहु।
सुिमिर राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु।।190।।
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बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ। सुिन रजाइ कदराइ न कोऊ।।
भलेिहं नाथ सब कहिहं सहरषा। एकिहं एक बढ़ावइ करषा।।
चले िनषाद जोहािर जोहारी। सूर सकल रन रचइ रारी।।
सुिमिर राम पद पंकज पनही। भाथी बािध चढ़ाइिनह धनही।।
अँगरी पिहिर कूँिड़ िसर धरही। फरसा बास सेल सम करही।।
एक कुसल अित ओड़न खाड़े। कूदिह गगन मनहुँ िछित छाड़े।।
िनज िनज साजु समाजु बनाई। गुह राउतिह जोहारे जाई।।
देिख सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने।।
दो0-भाइहु लावहु धोख जिन आजु काज बड़ मोिह।
सुिन सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होिह।।191।।
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राम पताप नाथ बल तोरे। करिहं कटकु िबनु भट िबनु घोरे।।
जीवत पाउ न पाछे धरही। रं ड मुंडमय मेिदिन करही।।
दीख िनषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू।।
एतना कहत छीक भइ बाए। कहेउ सगुिनअनह खेत सुहाए।।
बूढ़ु एकु कह सगुन िबचारी। भरतिह िमिलअ न होइिह रारी।।
रामिह भरतु मनावन जाही। सगुन कहइ अस िबगहु नाही।।
सुिन गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा किर पिछतािहं िबमूढ़ा।।
भरत सुभाउ सीलु िबनु बूझे। बिड़ िहत हािन जािन िबनु जूझे।।
दो0-गहहु घाट भट सिमिट सब लेउँ मरम िमिल जाइ।
बूिझ िमत अिर मधय गित तस तब किरहउँ आइ।।192।।
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लखन सनेहु सुभायँ सुहाएँ। बैर पीित निहं दुरइँ दुराएँ।।
अस किह भेट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग

मागे।।
मीन पीन पाठीन पुराने। भिर भिर भार कहारनह आने।।
िमलन साजु सिज िमलन िसधाए। मंगल मूल सगुन सुभ पाए।।
देिख दूिर ते किह िनज नामू। कीनह मुनीसिह दंड पनामू।।
जािन रामिपय दीिनह असीसा। भरतिह कहेउ बुझाइ मुनीसा।।
राम सखा सुिन संदनु तयागा। चले उतिर उमगत अनुरागा।।
गाउँ जाित गुहँ नाउँ सुनाई। कीनह जोहार माथ मिह लाई।।
दो0-करत दंडवत देिख तेिह भरत लीनह उर लाइ।
मनहँु लखन सन भेट भइ पेम न हृदयँ समाइ।।193।।
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भेटत भरतु तािह अित पीती। लोग िसहािहं पेम कै रीती।।
धनय धनय धुिन मंगल मूला। सुर सरािह तेिह बिरसिहं फूला।।
लोक बेद सब भाितिहं नीचा। जासु छाह छुइ लेइअ सीचा।।
तेिह भिर अंक राम लघु भाता। िमलत पुलक पिरपूिरत गाता।।
राम राम किह जे जमुहाही। ितनहिह न पाप पुंज समुहाही।।
यह तौ राम लाइ उर लीनहा। कुल समेत जगु पावन कीनहा।।
करमनास जलु सुरसिर परई। तेिह को कहहु सीस निहं धरई।।
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीिक भए बह समाना।।
दो0-सवपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल िकरात।
रामु कहत पावन परम होत भुवन िबखयात।।194।।
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निहं अिचरजु जुग जुग चिल आई। केिह न दीिनह रघुबीर बड़ाई।।
राम नाम मिहमा सुर कहही। सुिन सुिन अवधलोग सुखु लहही।।
रामसखिह िमिल भरत सपेमा। पूँछी कुसल सुमंगल खेमा।।
देिख भरत कर सील सनेहू। भा िनषाद तेिह समय िबदेहू।।
सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतिह िचतवत एकटक ठाढ़ा।।
धिर धीरजु पद बंिद बहोरी। िबनय सपेम करत कर जोरी।।
कुसल मूल पद पंकज पेखी। मै ितहुँ काल कुसल िनज लेखी।।
अब पभु परम अनुगह तोरे। सिहत कोिट कुल मंगल मोरे।।
दो0-समुिझ मोिर करतूित कुलु पभु मिहमा िजयँ जोइ।
जो न भजइ रघुबीर पद जग िबिध बंिचत सोइ।।195।।
–*–*–
कपटी कायर कुमित कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाती।।
राम कीनह आपन जबही ते। भयउँ भुवन भूषन तबही ते।।
देिख पीित सुिन िबनय सुहाई। िमलेउ बहोिर भरत लघु भाई।।
किह िनषाद िनज नाम सुबानी। सादर सकल जोहारी रानी।।
जािन लखन सम देिहं असीसा। िजअहु सुखी सय लाख बरीसा।।
िनरिख िनषादु नगर नर नारी। भए सुखी जनु लखनु िनहारी।।
कहिहं लहेउ एिहं जीवन लाहू। भेटेउ रामभद भिर बाहू।।
सुिन िनषादु िनज भाग बड़ाई। पमुिदत मन लइ चलेउ लेवाई।।
दो0-सनकारे सेवक सकल चले सवािम रख पाइ।
घर तर तर सर बाग बन बास बनाएिनह जाइ।।196।।
–*–*–
सृंगबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अंग िसिथल तब।।
सोहत िदएँ िनषादिह लागू। जनु तनु धरे िबनय अनुरागू।।
एिह िबिध भरत सेनु सबु संगा। दीिख जाइ जग पाविन गंगा।।
रामघाट कहँ कीनह पनामू। भा मनु मगनु िमले जनु रामू।।
करिहं पनाम नगर नर नारी। मुिदत बहमय बािर िनहारी।।
किर मजजनु मागिहं कर जोरी। रामचंद पद पीित न थोरी।।
भरत कहेउ सुरसिर तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू।।
जोिर पािन बर मागउँ एह। ू सीय राम पद सहज सनेह। ू ।
दो0-एिह िबिध मजजनु भरतु किर गुर अनुसासन पाइ।
मातु नहानी जािन सब डेरा चले लवाइ।।197।।
–*–*–
जहँ तहँ लोगनह डेरा कीनहा। भरत सोधु सबही कर लीनहा।।
सुर सेवा किर आयसु पाई। राम मातु पिहं गे दोउ भाई।।
चरन चािप किह किह मृदु बानी। जननी सकल भरत सनमानी।।
भाइिह सौिप मातु सेवकाई। आपु िनषादिह लीनह बोलाई।।
चले सखा कर सो कर जोरे। िसिथल सरीर सनेह न थोरे।।
पूँछत सखिह सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरिन जुड़ाऊ।।
जहँ िसय रामु लखनु िनिस सोए। कहत भरे जल लोचन कोए।।
भरत बचन सुिन भयउ िबषादू। तुरत तहा लइ गयउ िनषादू।।
दो0-जहँ िसंसुपा पुनीत तर रघुबर िकय िबशामु।
अित सनेहँ सादर भरत कीनहेउ दंड पनामु।।198।।
–*–*–
कुस साथरीí िनहािर सुहाई। कीनह पनामु पदिचछन जाई।।
चरन रेख रज आँिखनह लाई। बनइ न कहत पीित अिधकाई।।
कनक िबंदु दुइ चािरक देखे। राखे सीस सीय सम लेखे।।
सजल िबलोचन हृदयँ गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानी।।
शीहत सीय िबरहँ दुितहीना। जथा अवध नर नािर िबलीना।।
िपता जनक देउँ पटतर केही। करतल भोगु जोगु जग जेही।।
ससुर भानुकुल भानु भुआलू। जेिह िसहात अमरावितपालू।।
पाननाथु रघुनाथ गोसाई। जो बड़ होत सो राम बड़ाई।।
दो0-पित देवता सुतीय मिन सीय साथरी देिख।
िबहरत हदउ न हहिर हर पिब ते किठन िबसेिष।।199।।
–*–*–
लालन जोगु लखन लघु लोने। भे न भाइ अस अहिहं न होने।।
पुरजन िपय िपतु मातु दुलारे। िसय रघुबरिह पानिपआरे।।
मृदु मूरित सुकुमार सुभाऊ। तात बाउ तन लाग न काऊ।।
ते बन सहिहं िबपित सब भाती। िनदरे कोिट कुिलस एिहं छाती।।
राम जनिम जगु कीनह उजागर। रप सील सुख सब गुन सागर।।
पुरजन पिरजन गुर िपतु माता। राम सुभाउ सबिह सुखदाता।।
बैिरउ राम बड़ाई करही। बोलिन िमलिन िबनय मन हरही।।
सारद कोिट कोिट सत सेषा। किर न सकिहं पभु गुन गन लेखा।।
दो0-सुखसवरप रघुबस ं मिन मंगल मोद िनधान।
ते सोवत कुस डािस मिह िबिध गित अित बलवान।।200।।
–*–*–
राम सुना दुखु कान न काऊ। जीवनतर िजिम जोगवइ राऊ।।
पलक नयन फिन मिन जेिह भाती। जोगविहं जनिन सकल िदन राती।।
ते अब िफरत िबिपन पदचारी। कंद मूल फल फूल अहारी।।
िधग कैकेई अमंगल मूला। भइिस पान िपयतम पितकूला।।
मै िधग िधग अघ उदिध अभागी। सबु उतपातु भयउ जेिह लागी।।
कुल कलंकु किर सृजेउ िबधाता। साइँदोह मोिह कीनह कुमाता।।
सुिन सपेम समुझाव िनषादू। नाथ किरअ कत बािद िबषादू।।
राम तुमहिह िपय तुमह िपय रामिह। यह िनरजोसु दोसु िबिध बामिह।।
छं0-िबिध बाम की करनी किठन जेिहं मातु कीनही बावरी।
तेिह राित पुिन पुिन करिहं पभु सादर सरहना रावरी।।
तुलसी न तुमह सो राम पीतमु कहतु हौ सौहे िकएँ।
पिरनाम मंगल जािन अपने आिनए धीरजु िहएँ।।
सो0-अंतरजामी रामु सकुच सपेम कृपायतन।
चिलअ किरअ िबशामु यह िबचािर दृढ़ आिन मन।।201।।
सखा बचन सुिन उर धिर धीरा। बास चले सुिमरत रघुबीरा।।
यह सुिध पाइ नगर नर नारी। चले िबलोकन आरत भारी।।
परदिखना किर करिहं पनामा। देिहं कैकइिह खोिर िनकामा।।
भरी भिर बािर िबलोचन लेही। बाम िबधातािह दूषन देही।।
एक सराहिहं भरत सनेहू। कोउ कह नृपित िनबाहेउ नेहू।।
िनंदिहं आपु सरािह िनषादिह। को किह सकइ िबमोह िबषादिह।।
एिह िबिध राित लोगु सबु जागा। भा िभनुसार गुदारा लागा।।
गुरिह सुनावँ चढ़ाइ सुहाई। नई नाव सब मातु चढ़ाई।।
दंड चािर महँ भा सबु पारा। उतिर भरत तब सबिह सँभारा।।
दो0-पातिकया किर मातु पद बंिद गुरिह िसर नाइ।
आगे िकए िनषाद गन दीनहेउ कटकु चलाइ।।202।।
–*–*–
िकयउ िनषादनाथु अगुआई। मातु पालकी सकल चलाई।।
साथ बोलाइ भाइ लघु दीनहा। िबपनह सिहत गवनु गुर कीनहा।।
आपु सुरसिरिह कीनह पनामू। सुिमरे लखन सिहत िसय रामू।।
गवने भरत पयोदेिहं पाए। कोतल संग जािहं डोिरआए।।
कहिहं सुसेवक बारिहं बारा। होइअ नाथ असव असवारा।।
रामु पयोदेिह पायँ िसधाए। हम कहँ रथ गज बािज बनाए।।
िसर भर जाउँ उिचत अस मोरा। सब ते सेवक धरमु कठोरा।।
देिख भरत गित सुिन मृदु बानी। सब सेवक गन गरिहं गलानी।।
दो0-भरत तीसरे पहर कहँ कीनह पबेसु पयाग।
कहत राम िसय राम िसय उमिग उमिग अनुराग।।203।।
–*–*–
झलका झलकत पायनह कैसे। पंकज कोस ओस कन जैसे।।
भरत पयादेिहं आए आजू। भयउ दुिखत सुिन सकल समाजू।।
खबिर लीनह सब लोग नहाए। कीनह पनामु ितबेिनिहं आए।।
सिबिध िसतािसत नीर नहाने। िदए दान मिहसुर सनमाने।।
देखत सयामल धवल हलोरे। पुलिक सरीर भरत कर जोरे।।
सकल काम पद तीरथराऊ। बेद िबिदत जग पगट पभाऊ।।
मागउँ भीख तयािग िनज धरमू। आरत काह न करइ कुकरमू।।
अस िजयँ जािन सुजान सुदानी। सफल करिहं जग जाचक बानी।।
दो0-अरथ न धरम न काम रिच गित न चहउँ िनरबान।
जनम जनम रित राम पद यह बरदानु न आन।।204।।
–*–*–
जानहुँ रामु कुिटल किर मोही। लोग कहउ गुर सािहब दोही।।
सीता राम चरन रित मोरे। अनुिदन बढ़उ अनुगह तोरे।।
जलदु जनम भिर सुरित िबसारउ। जाचत जलु पिब पाहन डारउ।।
चातकु रटिन घटे घिट जाई। बढ़े पेमु सब भाित भलाई।।
कनकिहं बान चढ़इ िजिम दाहे। ितिम िपयतम पद नेम िनबाहे।।
भरत बचन सुिन माझ ितबेनी। भइ मृदु बािन सुमंगल देनी।।
तात भरत तुमह सब िबिध साधू। राम चरन अनुराग अगाधू।।
बाद गलािन करहु मन माही। तुमह सम रामिह कोउ िपय नाही।।
दो0-तनु पुलकेउ िहयँ हरषु सुिन बेिन बचन अनुकूल।
भरत धनय किह धनय सुर हरिषत बरषिहं फूल।।205।।
–*–*–
पमुिदत तीरथराज िनवासी। बैखानस बटु गृही उदासी।।
कहिहं परसपर िमिल दस पाचा। भरत सनेह सीलु सुिच साचा।।
सुनत राम गुन गाम सुहाए। भरदाज मुिनबर पिहं आए।।
दंड पनामु करत मुिन देखे। मूरितमंत भागय िनज लेखे।।
धाइ उठाइ लाइ उर लीनहे। दीिनह असीस कृतारथ कीनहे।।
आसनु दीनह नाइ िसर बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भिज पैठे।।
मुिन पूँछब कछु यह बड़ सोचू। बोले िरिष लिख सीलु सँकोचू।।
सुनहु भरत हम सब सुिध पाई। िबिध करतब पर िकछु न बसाई।।
दो0-तुमह गलािन िजयँ जिन करहु समुझी मातु करतूित।
तात कैकइिह दोसु निहं गई िगरा मित धूित।।206।।
–*–*–
यहउ कहत भल किहिह न कोऊ। लोकु बेद बुध संमत दोऊ।।
तात तुमहार िबमल जसु गाई। पाइिह लोकउ बेदु बड़ाई।।
लोक बेद संमत सबु कहई। जेिह िपतु देइ राजु सो लहई।।
राउ सतयबत तुमहिह बोलाई। देत राजु सुखु धरमु बड़ाई।।
राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुिन सकल िबसव भइ सूला।।
सो भावी बस रािन अयानी। किर कुचािल अंतहुँ पिछतानी।।
तहँउँ तुमहार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू।।
करतेहु राजु त तुमहिह न दोषू। रामिह होत सुनत संतोषू।।
दो0-अब अित कीनहेहु भरत भल तुमहिह उिचत मत एहु।
सकल सुमग ं ल मूल जग रघुबर चरन सनेहु।।207।।
–*–*–
सो तुमहार धनु जीवनु पाना। भूिरभाग को तुमहिह समाना।।
यह तमहार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम िपय भाता।।
सुनहु भरत रघुबर मन माही। पेम पातु तुमह सम कोउ नाही।।
लखन राम सीतिह अित पीती। िनिस सब तुमहिह सराहत बीती।।
जाना मरमु नहात पयागा। मगन होिहं तुमहरे अनुरागा।।
तुमह पर अस सनेहु रघुबर के। सुख जीवन जग जस जड़ नर के।।
यह न अिधक रघुबीर बड़ाई। पनत कुटुंब पाल रघुराई।।
तुमह तौ भरत मोर मत एहू। धरे देह जनु राम सनेहू।।
दो0-तुमह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेसु।
राम भगित रस िसिद िहत भा यह समउ गनेसु।।208।।
–*–*–
नव िबधु िबमल तात जसु तोरा। रघुबर िकंकर कुमुद चकोरा।।
उिदत सदा अँथइिह कबहूँ ना। घिटिह न जग नभ िदन िदन दूना।।
कोक ितलोक पीित अित किरही। पभु पताप रिब छिबिह न हिरही।।
िनिस िदन सुखद सदा सब काहू। गिसिह न कैकइ करतबु राहू।।
पूरन राम सुपेम िपयूषा। गुर अवमान दोष निहं दूषा।।
राम भगत अब अिमअँ अघाहूँ। कीनहेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ।।
भूप भगीरथ सुरसिर आनी। सुिमरत सकल सुंमगल खानी।।
दसरथ गुन गन बरिन न जाही। अिधकु कहा जेिह सम जग नाही।।
दो0-जासु सनेह सकोच बस राम पगट भए आइ।।
जे हर िहय नयनिन कबहुँ िनरखे नही अघाइ।।209।।
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कीरित िबधु तुमह कीनह अनूपा। जहँ बस राम पेम मृगरपा।।
तात गलािन करहु िजयँ जाएँ। डरहु दिरदिह पारसु पाएँ।।।।
सुनहु भरत हम झूठ न कहही। उदासीन तापस बन रहही।।
सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम िसय दरसनु पावा।।
तेिह फल कर फलु दरस तुमहारा। सिहत पयाग सुभाग हमारा।।
भरत धनय तुमह जसु जगु जयऊ। किह अस पेम मगन पुिन भयऊ।।
सुिन मुिन बचन सभासद हरषे। साधु सरािह सुमन सुर बरषे।।
धनय धनय धुिन गगन पयागा। सुिन सुिन भरतु मगन अनुरागा।।
दो0-पुलक गात िहयँ रामु िसय सजल सरोरह नैन।
किर पनामु मुिन मंडिलिह बोले गदगद बैन।।210।।
–*–*–
मुिन समाजु अर तीरथराजू। सािचहुँ सपथ अघाइ अकाजू।।
एिहं थल जौ िकछु किहअ बनाई। एिह सम अिधक न अघ अधमाई।।
तुमह सबरगय कहउँ सितभाऊ। उर अंतरजामी रघुराऊ।।
मोिह न मातु करतब कर सोचू। निहं दुखु िजयँ जगु जािनिह पोचू।।
नािहन डर िबगिरिह परलोकू। िपतहु मरन कर मोिह न सोकू।।
सुकृत सुजस भिर भुअन सुहाए। लिछमन राम सिरस सुत पाए।।
राम िबरहँ तिज तनु छनभंगू। भूप सोच कर कवन पसंगू।।
राम लखन िसय िबनु पग पनही। किर मुिन बेष िफरिहं बन बनही।।
दो0-अिजन बसन फल असन मिह सयन डािस कुस पात।
बिस तर तर िनत सहत िहम आतप बरषा बात।।211।।
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एिह दुख दाहँ दहइ िदन छाती। भूख न बासर नीद न राती।।
एिह कुरोग कर औषधु नाही। सोधेउँ सकल िबसव मन माही।।
मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेिहं हमार िहत कीनह बँसूला।।
किल कुकाठ कर कीनह कुजत ं ू। गािड़ अविध पिढ़ किठन कुमंतु।।
मोिह लिग यहु कुठाटु तेिहं ठाटा। घालेिस सब जगु बारहबाटा।।
िमटइ कुजोगु राम िफिर आएँ। बसइ अवध निहं आन उपाएँ।।
भरत बचन सुिन मुिन सुखु पाई। सबिहं कीनह बहु भाित बड़ाई।।
तात करहु जिन सोचु िबसेषी। सब दुखु िमटिह राम पग देखी।।
दो0-किर पबोध मुिनबर कहेउ अितिथ पेमिपय होहु।
कंद मूल फल फूल हम देिहं लेहु किर छोहु।।212।।
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सुिन मुिन बचन भरत िहँय सोचू। भयउ कुअवसर किठन सँकोचू।।
जािन गरइ गुर िगरा बहोरी। चरन बंिद बोले कर जोरी।।
िसर धिर आयसु किरअ तुमहारा। परम धरम यहु नाथ हमारा।।
भरत बचन मुिनबर मन भाए। सुिच सेवक िसष िनकट बोलाए।।
चािहए कीनह भरत पहुनाई। कंद मूल फल आनहु जाई।।
भलेही नाथ किह ितनह िसर नाए। पमुिदत िनज िनज काज िसधाए।।
मुिनिह सोच पाहुन बड़ नेवता। तिस पूजा चािहअ जस देवता।।
सुिन िरिध िसिध अिनमािदक आई। आयसु होइ सो करिहं गोसाई।।
दो0-राम िबरह बयाकुल भरतु सानुज सिहत समाज।
पहुनाई किर हरहु शम कहा मुिदत मुिनराज।।213।।
–*–*–
िरिध िसिध िसर धिर मुिनबर बानी। बड़भािगिन आपुिह अनुमानी।।
कहिहं परसपर िसिध समुदाई। अतुिलत अितिथ राम लघु भाई।।
मुिन पद बंिद किरअ सोइ आजू। होइ सुखी सब राज समाजू।।
अस किह रचेउ रिचर गृह नाना। जेिह िबलोिक िबलखािहं िबमाना।।
भोग िबभूित भूिर भिर राखे। देखत िजनहिह अमर अिभलाषे।।
दासी दास साजु सब लीनहे। जोगवत रहिहं मनिह मनु दीनहे।।
सब समाजु सिज िसिध पल माही। जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाही।।
पथमिहं बास िदए सब केही। सुंदर सुखद जथा रिच जेही।।
दो0-बहुिर सपिरजन भरत कहुँ िरिष अस आयसु दीनह।
िबिध िबसमय दायकु िबभव मुिनबर तपबल कीनह।।214।।
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मुिन पभाउ जब भरत िबलोका। सब लघु लगे लोकपित लोका।।
सुख समाजु निहं जाइ बखानी। देखत िबरित िबसारही गयानी।।
आसन सयन सुबसन िबताना। बन बािटका िबहग मृग नाना।।
सुरिभ फूल फल अिमअ समाना। िबमल जलासय िबिबध िबधाना।
असन पान सुच अिमअ अमी से। देिख लोग सकुचात जमी से।।
सुर सुरभी सुरतर सबही के। लिख अिभलाषु सुरेस सची के।।
िरतु बसंत बह ितिबध बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी।।
सतक चंदन बिनतािदक भोगा। देिख हरष िबसमय बस लोगा।।
दो0-संपत चकई भरतु चक मुिन आयस खेलवार।।
तेिह िनिस आशम िपंजरा राखे भा िभनुसार।।215।।
मासपारायण, उनीसवा िवशाम
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कीनह िनमजजनु तीरथराजा। नाइ मुिनिह िसर सिहत समाजा।।
िरिष आयसु असीस िसर राखी। किर दंडवत िबनय बहु भाषी।।
पथ गित कुसल साथ सब लीनहे। चले िचतकूटिहं िचतु दीनहे।।
रामसखा कर दीनहे लागू। चलत देह धिर जनु अनुरागू।।
निहं पद तान सीस निहं छाया। पेमु नेमु बतु धरमु अमाया।।
लखन राम िसय पंथ कहानी। पूँछत सखिह कहत मृदु बानी।।
राम बास थल िबटप िबलोके। उर अनुराग रहत निहं रोकै।।
दैिख दसा सुर बिरसिहं फूला। भइ मृदु मिह मगु मंगल मूला।।
दो0-िकएँ जािहं छाया जलद सुखद बहइ बर बात।
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतिह जात।।216।।
–*–*–
जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे िचतए पभु िजनह पभु हेरे।।
ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू।।
यह बिड़ बात भरत कइ नाही। सुिमरत िजनिह रामु मन माही।।
बारक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ।।
भरतु राम िपय पुिन लघु भाता। कस न होइ मगु मंगलदाता।।
िसद साधु मुिनबर अस कहही। भरतिह िनरिख हरषु िहयँ लहही।।
देिख पभाउ सुरेसिह सोचू। जगु भल भलेिह पोच कहुँ पोचू।।
गुर सन कहेउ किरअ पभु सोई। रामिह भरतिह भेट न होई।।
दो0-रामु सँकोची पेम बस भरत सपेम पयोिध।
बनी बात बेगरन चहित किरअ जतनु छलु सोिध।।217।।
–*–*–
बचन सुनत सुरगुर मुसकाने। सहसनयन िबनु लोचन जाने।।
मायापित सेवक सन माया। करइ त उलिट परइ सुरराया।।
तब िकछु कीनह राम रख जानी। अब कुचािल किर होइिह हानी।।
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। िनज अपराध िरसािहं न काऊ।।
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई।।
लोकहुँ बेद िबिदत इितहासा। यह मिहमा जानिहं दुरबासा।।
भरत सिरस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही।।
दो0-मनहुँ न आिनअ अमरपित रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक परलोक दुख िदन िदन सोक समाजु।।218।।
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सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामिह सेवकु परम िपआरा।।
मानत सुखु सेवक सेवकाई। सेवक बैर बैर अिधकाई।।
जदिप सम निहं राग न रोषू। गहिहं न पाप पूनु गुन दोषू।।
करम पधान िबसव किर राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा।।
तदिप करिहं सम िबषम िबहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा।।
अगुन अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत पेम बस।।
राम सदा सेवक रिच राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी।।
अस िजयँ जािन तजहु कुिटलाई। करहु भरत पद पीित सुहाई।।
दो0-राम भगत परिहत िनरत पर दुख दुखी दयाल।
भगत िसरोमिन भरत ते जिन डरपहु सुरपाल।।219।।
–*–*–
सतयसंध पभु सुर िहतकारी। भरत राम आयस अनुसारी।।
सवारथ िबबस िबकल तुमह होहू। भरत दोसु निहं राउर मोहू।।
सुिन सुरबर सुरगुर बर बानी। भा पमोदु मन िमटी गलानी।।
बरिष पसून हरिष सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ।।
एिह िबिध भरत चले मग जाही। दसा देिख मुिन िसद िसहाही।।
जबिहं रामु किह लेिहं उसासा। उमगत पेमु मनहँ चहु पासा।।
दविहं बचन सुिन कुिलस पषाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना।।
बीच बास किर जमुनिहं आए। िनरिख नीर लोचन जल छाए।।
दो0-रघुबर बरन िबलोिक बर बािर समेत समाज।
होत मगन बािरिध िबरह चढ़े िबबेक जहाज।।220।।
–*–*–
जमुन तीर तेिह िदन किर बासू। भयउ समय सम सबिह सुपासू।।
रातिहं घाट घाट की तरनी। आई अगिनत जािहं न बरनी।।
पात पार भए एकिह खेवा। तोषे रामसखा की सेवा।।
चले नहाइ निदिह िसर नाई। साथ िनषादनाथ दोउ भाई।।
आगे मुिनबर बाहन आछे। राजसमाज जाइ सबु पाछे।।
तेिहं पाछे दोउ बंधु पयादे। भूषन बसन बेष सुिठ सादे।।
सेवक सुहद सिचवसुत साथा। सुिमरत लखनु सीय रघुनाथा।।
जहँ जहँ राम बास िबशामा। तहँ तहँ करिहं सपेम पनामा।।
दो0-मगबासी नर नािर सुिन धाम काम तिज धाइ।
देिख सरप सनेह सब मुिदत जनम फलु पाइ।।221।।
–*–*–
कहिहं सपेम एक एक पाही। रामु लखनु सिख होिहं िक नाही।।
बय बपु बरन रप सोइ आली। सीलु सनेहु सिरस सम चाली।।
बेषु न सो सिख सीय न संगा। आगे अनी चली चतुरगं ा।।
निहं पसन मुख मानस खेदा। सिख संदेहु होइ एिहं भेदा।।
तासु तरक ितयगन मन मानी। कहिहं सकल तेिह सम न सयानी।।
तेिह सरािह बानी फुिर पूजी। बोली मधुर बचन ितय दूजी।।
किह सपेम सब कथापसंगू। जेिह िबिध राम राज रस भंगू।।
भरतिह बहुिर सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी।।
दो0-चलत पयादे खात फल िपता दीनह तिज राजु।
जात मनावन रघुबरिह भरत सिरस को आजु।।222।।
–*–*–
भायप भगित भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू।।
जो कछु कहब थोर सिख सोई। राम बंधु अस काहे न होई।।
हम सब सानुज भरतिह देखे। भइनह धनय जुबती जन लेखे।।
सुिन गुन देिख दसा पिछताही। कैकइ जनिन जोगु सुतु नाही।।
कोउ कह दूषनु रािनिह नािहन। िबिध सबु कीनह हमिह जो दािहन।।
कहँ हम लोक बेद िबिध हीनी। लघु ितय कुल करतूित मलीनी।।
बसिहं कुदेस कुगाव कुबामा। कहँ यह दरसु पुनय पिरनामा।।
अस अनंदु अिचिरजु पित गामा। जनु मरभूिम कलपतर जामा।।
दो0-भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगनह कर भागु।
जनु िसंघलबािसनह भयउ िबिध बस सुलभ पयागु।।223।।
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िनज गुन सिहत राम गुन गाथा। सुनत जािहं सुिमरत रघुनाथा।।
तीरथ मुिन आशम सुरधामा। िनरिख िनमजजिहं करिहं पनामा।।
मनही मन मागिहं बर एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू।।
िमलिहं िकरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी।।
किर पनामु पूँछिहं जेिहं तेही। केिह बन लखनु रामु बैदेही।।
ते पभु समाचार सब कहही। भरतिह देिख जनम फलु लहही।।
जे जन कहिहं कुसल हम देखे। ते िपय राम लखन सम लेखे।।
एिह िबिध बूझत सबिह सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी।।
दो0-तेिह बासर बिस पातही चले सुिमिर रघुनाथ।
राम दरस की लालसा भरत सिरस सब साथ।।224।।
–*–*–
मंगल सगुन होिहं सब काहू। फरकिहं सुखद िबलोचन बाहू।।
भरतिह सिहत समाज उछाहू। िमिलहिहं रामु िमटिह दुख दाहू।।
करत मनोरथ जस िजयँ जाके। जािहं सनेह सुरा सब छाके।।
िसिथल अंग पग मग डिग डोलिहं। िबहबल बचन पेम बस बोलिहं।।
रामसखा तेिह समय देखावा। सैल िसरोमिन सहज सुहावा।।
जासु समीप सिरत पय तीरा। सीय समेत बसिहं दोउ बीरा।।
देिख करिहं सब दंड पनामा। किह जय जानिक जीवन रामा।।
पेम मगन अस राज समाजू। जनु िफिर अवध चले रघुराजू।।
दो0-भरत पेमु तेिह समय जस तस किह सकइ न सेषु।
किबिहं अगम िजिम बहसुखु अह मम मिलन जनेषु।।225।
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सकल सनेह िसिथल रघुबर के। गए कोस दुइ िदनकर ढरके।।
जलु थलु देिख बसे िनिस बीते। कीनह गवन रघुनाथ िपरीते।।
उहा रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा।।
सिहत समाज भरत जनु आए। नाथ िबयोग ताप तन ताए।।
सकल मिलन मन दीन दुखारी। देखी सासु आन अनुहारी।।
सुिन िसय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच िबमोचन।।
लखन सपन यह नीक न होई। किठन कुचाह सुनाइिह कोई।।
अस किह बंधु समेत नहाने। पूिज पुरािर साधु सनमाने।।
छं0-सनमािन सुर मुिन बंिद बैठे उतर िदिस देखत भए।
नभ धूिर खग मृग भूिर भागे िबकल पभु आशम गए।।
तुलसी उठे अवलोिक कारनु काह िचत सचिकत रहे।
सब समाचार िकरात कोलिनह आइ तेिह अवसर कहे।।
दो0-सुनत सुमंगल बैन मन पमोद तन पुलक भर।
सरद सरोरह नैन तुलसी भरे सनेह जल।।226।।
–*–*–
बहुिर सोचबस भे िसयरवनू। कारन कवन भरत आगवनू।।
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरगं न थोरी।।
सो सुिन रामिह भा अित सोचू। इत िपतु बच इत बंधु सकोचू।।
भरत सुभाउ समुिझ मन माही। पभु िचत िहत िथित पावत नाही।।
समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने।।
लखन लखेउ पभु हृदयँ खभार। कहत समय सम नीित िबचार।।
िबनु पूँछ कछु कहउँ गोसाई। सेवकु समयँ न ढीठ िढठाई।।
तुमह सबरगय िसरोमिन सवामी। आपिन समुिझ कहउँ अनुगामी।।
दो0-नाथ सुहद सुिठ सरल िचत सील सनेह िनधान।।
सब पर पीित पतीित िजयँ जािनअ आपु समान।।227।।
–*–*–
िबषई जीव पाइ पभुताई। मूढ़ मोह बस होिहं जनाई।।
भरतु नीित रत साधु सुजाना। पभु पद पेम सकल जगु जाना।।
तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई।।
कुिटल कुबध ं कुअवसर ताकी। जािन राम बनवास एकाकी।।
किर कुमंतु मन सािज समाजू। आए करै अकंटक राजू।।
कोिट पकार कलिप कुटलाई। आए दल बटोिर दोउ भाई।।
जौ िजयँ होित न कपट कुचाली। केिह सोहाित रथ बािज गजाली।।
भरतिह दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ।।
दो0-सिस गुर ितय गामी नघुषु चढ़ेउ भूिमसुर जान।
लोक बेद ते िबमुख भा अधम न बेन समान।।228।।
–*–*–
सहसबाहु सुरनाथु ितसंकू। केिह न राजमद दीनह कलंकू।।
भरत कीनह यह उिचत उपाऊ। िरपु िरन रंच न राखब काऊ।।
एक कीिनह निहं भरत भलाई। िनदरे रामु जािन असहाई।।
समुिझ पिरिह सोउ आजु िबसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी।।
एतना कहत नीित रस भूला। रन रस िबटपु पुलक िमस फूला।।
पभु पद बंिद सीस रज राखी। बोले सतय सहज बलु भाषी।।
अनुिचत नाथ न मानब मोरा। भरत हमिह उपचार न थोरा।।
कहँ लिग सिहअ रिहअ मनु मारे। नाथ साथ धनु हाथ हमारे।।
दो0-छित जाित रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान।
लातहुँ मारे चढ़ित िसर नीच को धूिर समान।।229।।
–*–*–
उिठ कर जोिर रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा।।
बािध जटा िसर किस किट भाथा। सािज सरासनु सायकु हाथा।।
आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतिह समर िसखावन देऊँ।।
राम िनरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई।।
आइ बना भल सकल समाजू। पगट करउँ िरस पािछल आजू।।
िजिम किर िनकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेिट लवा िजिम बाजू।।
तैसेिहं भरतिह सेन समेता। सानुज िनदिर िनपातउँ खेता।।
जौ सहाय कर संकर आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई।।
दो0-अित सरोष माखे लखनु लिख सुिन सपथ पवान।
सभय लोक सब लोकपित चाहत भभिर भगान।।230।।
–*–*–
जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु िबपुल बखानी।।
तात पताप पभाउ तुमहारा। को किह सकइ को जानिनहारा।।
अनुिचत उिचत काजु िकछु होऊ। समुिझ किरअ भल कह सबु कोऊ।।
सहसा किर पाछै पिछताही। कहिहं बेद बुध ते बुध नाही।।
सुिन सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीयँ सादर सनमाने।।
कही तात तुमह नीित सुहाई। सब ते किठन राजमदु भाई।।
जो अचवँत नृप मातिहं तेई। नािहन साधुसभा जेिहं सेई।।
सुनहु लखन भल भरत सरीसा। िबिध पपंच महँ सुना न दीसा।।
दो0-भरतिह होइ न राजमदु िबिध हिर हर पद पाइ।।
कबहुँ िक काजी सीकरिन छीरिसंधु िबनसाइ।।231।।
–*–*–
ितिमर तरन तरिनिह मकु िगलई। गगनु मगन मकु मेघिहं िमलई।।
गोपद जल बूड़िहं घटजोनी। सहज छमा बर छाड़ै छोनी।।
मसक फूँक मकु मेर उड़ाई। होइ न नृपमदु भरतिह भाई।।
लखन तुमहार सपथ िपतु आना। सुिच सुबध ं ु निहं भरत समाना।।
सगुन खीर अवगुन जलु ताता। िमलइ रचइ परपंचु िबधाता।।
भरतु हंस रिबबंस तड़ागा। जनिम कीनह गुन दोष िबभागा।।
गिह गुन पय तिज अवगुन बारी। िनज जस जगत कीिनह उिजआरी।।
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। पेम पयोिध मगन रघुराऊ।।
दो0-सुिन रघुबर बानी िबबुध देिख भरत पर हेतु।
सकल सराहत राम सो पभु को कृपािनकेतु।।232।।
–*–*–
जौ न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरिन धरत को।।
किब कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुमह िबनु रघुनाथा।।
लखन राम िसयँ सुिन सुर बानी। अित सुखु लहेउ न जाइ बखानी।।
इहा भरतु सब सिहत सहाए। मंदािकनी पुनीत नहाए।।
सिरत समीप रािख सब लोगा। मािग मातु गुर सिचव िनयोगा।।
चले भरतु जहँ िसय रघुराई। साथ िनषादनाथु लघु भाई।।
समुिझ मातु करतब सकुचाही। करत कुतरक कोिट मन माही।।
रामु लखनु िसय सुिन मम नाऊँ। उिठ जिन अनत जािहं तिज ठाऊँ।।
दो0-मातु मते महुँ मािन मोिह जो कछु करिहं सो थोर।
अघ अवगुन छिम आदरिहं समुिझ आपनी ओर।।233।।
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जौ पिरहरिहं मिलन मनु जानी। जौ सनमानिहं सेवकु मानी।।
मोरे सरन रामिह की पनही। राम सुसवािम दोसु सब जनही।।
जग जस भाजन चातक मीना। नेम पेम िनज िनपुन नबीना।।
अस मन गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहँ िसिथल सब गाता।।
फेरत मनहुँ मातु कृत खोरी। चलत भगित बल धीरज धोरी।।
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ।।
भरत दसा तेिह अवसर कैसी। जल पबाहँ जल अिल गित जैसी।।
देिख भरत कर सोचु सनेहू। भा िनषाद तेिह समयँ िबदेहू।।
दो0-लगे होन मंगल सगुन सुिन गुिन कहत िनषादु।
िमिटिह सोचु होइिह हरषु पुिन पिरनाम िबषादु।।234।।
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सेवक बचन सतय सब जाने। आशम िनकट जाइ िनअराने।।
भरत दीख बन सैल समाजू। मुिदत छुिधत जनु पाइ सुनाजू।।
ईित भीित जनु पजा दुखारी। ितिबध ताप पीिड़त गह मारी।।
जाइ सुराज सुदेस सुखारी। होिहं भरत गित तेिह अनुहारी।।
राम बास बन संपित भाजा। सुखी पजा जनु पाइ सुराजा।।
सिचव िबरागु िबबेकु नरेसू। िबिपन सुहावन पावन देसू।।
भट जम िनयम सैल रजधानी। साित सुमित सुिच सुंदर रानी।।
सकल अंग संपन सुराऊ। राम चरन आिशत िचत चाऊ।।
दो0-जीित मोह मिहपालु दल सिहत िबबेक भुआलु।
करत अकंटक राजु पुरँ सुख संपदा सुकालु।।235।।
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बन पदेस मुिन बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे।।
िबपुल िबिचत िबहग मृग नाना। पजा समाजु न जाइ बखाना।।
खगहा किर हिर बाघ बराहा। देिख मिहष बृष साजु सराहा।।
बयर िबहाइ चरिहं एक संगा। जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरगं ा।।
झरना झरिहं मत गज गाजिहं। मनहुँ िनसान िबिबिध िबिध बाजिहं।।
चक चकोर चातक सुक िपक गन। कूजत मंजु मराल मुिदत मन।।
अिलगन गावत नाचत मोरा। जनु सुराज मंगल चहु ओरा।।
बेिल िबटप तृन सफल सफूला। सब समाजु मुद मंगल मूला।।
दो-राम सैल सोभा िनरिख भरत हृदयँ अित पेमु।
तापस तप फलु पाइ िजिम सुखी िसराने नेमु।।236।।
मासपारायण, बीसवा िवशाम
नवाहपारायण, पाचवा िवशाम
तब केवट ऊँचे चिढ़ धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई।।
नाथ देिखअिहं िबटप िबसाला। पाकिर जंबु रसाल तमाला।।
िजनह तरबरनह मधय बटु सोहा। मंजु िबसाल देिख मनु मोहा।।
नील सघन पललव फल लाला। अिबरल छाहँ सुखद सब काला।।
मानहुँ ितिमर अरनमय रासी। िबरची िबिध सँकेिल सुषमा सी।।
ए तर सिरत समीप गोसाई। रघुबर परनकुटी जहँ छाई।।
तुलसी तरबर िबिबध सुहाए। कहुँ कहुँ िसयँ कहुँ लखन लगाए।।
बट छाया बेिदका बनाई। िसयँ िनज पािन सरोज सुहाई।।
दो0-जहा बैिठ मुिनगन सिहत िनत िसय रामु सुजान।
सुनिहं कथा इितहास सब आगम िनगम पुरान।।237।।
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सखा बचन सुिन िबटप िनहारी। उमगे भरत िबलोचन बारी।।
करत पनाम चले दोउ भाई। कहत पीित सारद सकुचाई।।
हरषिहं िनरिख राम पद अंका। मानहुँ पारसु पायउ रंका।।
रज िसर धिर िहयँ नयनिनह लाविहं। रघुबर िमलन सिरस सुख पाविहं।।
देिख भरत गित अकथ अतीवा। पेम मगन मृग खग जड़ जीवा।।
सखिह सनेह िबबस मग भूला। किह सुपथ ं सुर बरषिहं फूला।।
िनरिख िसद साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे।।
होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को।।
दो0-पेम अिमअ मंदर िबरहु भरतु पयोिध गँभीर।
मिथ पगटेउ सुर साधु िहत कृपािसंधु रघुबीर।।238।।
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सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा।।
भरत दीख पभु आशमु पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन।।

करत पबेस िमटे दुख दावा। जनु जोगी परमारथु पावा।।


देखे भरत लखन पभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे।।
सीस जटा किट मुिन पट बाधे। तून कसे कर सर धनु काधे।।
बेदी पर मुिन साधु समाजू। सीय सिहत राजत रघुराजू।।
बलकल बसन जिटल तनु सयामा। जनु मुिन बेष कीनह रित कामा।।
कर कमलिन धनु सायकु फेरत। िजय की जरिन हरत हँिस हेरत।।
दो0-लसत मंजु मुिन मंडली मधय सीय रघुचंदु।
गयान सभा जनु तनु धरे भगित सिचचदानंदु।।239।।
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सानुज सखा समेत मगन मन। िबसरे हरष सोक सुख दुख गन।।
पािह नाथ किह पािह गोसाई। भूतल परे लकुट की नाई।।
बचन सपेम लखन पिहचाने। करत पनामु भरत िजयँ जाने।।
बंधु सनेह सरस एिह ओरा। उत सािहब सेवा बस जोरा।।
िमिल न जाइ निहं गुदरत बनई। सुकिब लखन मन की गित भनई।।
रहे रािख सेवा पर भार। चढ़ी चंग जनु खैच खेलार।।
कहत सपेम नाइ मिह माथा। भरत पनाम करत रघुनाथा।।
उठे रामु सुिन पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ िनषंग धनु तीरा।।
दो0-बरबस िलए उठाइ उर लाए कृपािनधान।
भरत राम की िमलिन लिख िबसरे सबिह अपान।।240।।
–*–*–
िमलिन पीित िकिम जाइ बखानी। किबकुल अगम करम मन बानी।।
परम पेम पूरन दोउ भाई। मन बुिध िचत अहिमित िबसराई।।
कहहु सुपेम पगट को करई। केिह छाया किब मित अनुसरई।।
किबिह अरथ आखर बलु साचा। अनुहिर ताल गितिह नटु नाचा।।
अगम सनेह भरत रघुबर को। जहँ न जाइ मनु िबिध हिर हर को।।
सो मै कुमित कहौ केिह भाती। बाज सुराग िक गाडर ताती।।
िमलिन िबलोिक भरत रघुबर की। सुरगन सभय धकधकी धरकी।।
समुझाए सुरगुर जड़ जागे। बरिष पसून पसंसन लागे।।
दो0-िमिल सपेम िरपुसूदनिह केवटु भेटेउ राम।
भूिर भायँ भेटे भरत लिछमन करत पनाम।।241।।
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भेटेउ लखन ललिक लघु भाई। बहुिर िनषादु लीनह उर लाई।।
पुिन मुिनगन दुहुँ भाइनह बंदे। अिभमत आिसष पाइ अनंदे।।
सानुज भरत उमिग अनुरागा। धिर िसर िसय पद पदुम परागा।।
पुिन पुिन करत पनाम उठाए। िसर कर कमल परिस बैठाए।।
सीयँ असीस दीिनह मन माही। मगन सनेहँ देह सुिध नाही।।
सब िबिध सानुकूल लिख सीता। भे िनसोच उर अपडर बीता।।
कोउ िकछु कहइ न कोउ िकछु पूँछा। पेम भरा मन िनज गित छू ँछा।।
तेिह अवसर केवटु धीरजु धिर। जोिर पािन िबनवत पनामु किर।।
दो0-नाथ साथ मुिननाथ के मातु सकल पुर लोग।
सेवक सेनप सिचव सब आए िबकल िबयोग।।242।।
–*–*–
सीलिसंधु सुिन गुर आगवनू। िसय समीप राखे िरपुदवनू।।
चले सबेग रामु तेिह काला। धीर धरम धुर दीनदयाला।।
गुरिह देिख सानुज अनुरागे। दंड पनाम करन पभु लागे।।
मुिनबर धाइ िलए उर लाई। पेम उमिग भेटे दोउ भाई।।
पेम पुलिक केवट किह नामू। कीनह दूिर ते दंड पनामू।।
रामसखा िरिष बरबस भेटा। जनु मिह लुठत सनेह समेटा।।
रघुपित भगित सुमग ं ल मूला। नभ सरािह सुर बिरसिहं फूला।।
एिह सम िनपट नीच कोउ नाही। बड़ बिसष सम को जग माही।।
दो0-जेिह लिख लखनहु ते अिधक िमले मुिदत मुिनराउ।
सो सीतापित भजन को पगट पताप पभाउ।।243।।
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आरत लोग राम सबु जाना। करनाकर सुजान भगवाना।।
जो जेिह भायँ रहा अिभलाषी। तेिह तेिह कै तिस तिस रख राखी।।
सानुज िमिल पल महु सब काहू। कीनह दूिर दुखु दारन दाहू।।
यह बिड़ बातँ राम कै नाही। िजिम घट कोिट एक रिब छाही।।
िमिल केविटिह उमिग अनुरागा। पुरजन सकल सराहिहं भागा।।
देखी राम दुिखत महतारी। जनु सुबेिल अवली िहम मारी।।
पथम राम भेटी कैकेई। सरल सुभायँ भगित मित भेई।।
पग पिर कीनह पबोधु बहोरी। काल करम िबिध िसर धिर खोरी।।
दो0-भेटी रघुबर मातु सब किर पबोधु पिरतोषु।।
अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु।।244।।
–*–*–
गुरितय पद बंदे दुहु भाई। सिहत िबपितय जे सँग आई।।
गंग गौिर सम सब सनमानी।।देिहं असीस मुिदत मृदु बानी।।
गिह पद लगे सुिमता अंका। जनु भेटी संपित अित रंका।।
पुिन जनिन चरनिन दोउ भाता। परे पेम बयाकुल सब गाता।।
अित अनुराग अंब उर लाए। नयन सनेह सिलल अनहवाए।।
तेिह अवसर कर हरष िबषादू। िकिम किब कहै मूक िजिम सवादू।।
िमिल जननिह सानुज रघुराऊ। गुर सन कहेउ िक धािरअ पाऊ।।
पुरजन पाइ मुनीस िनयोगू। जल थल तिक तिक उतरेउ लोगू।।
दो0-मिहसुर मंती मातु गुर गने लोग िलए साथ।।
पावन आशम गवनु िकय भरत लखन रघुनाथ।।245।।
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सीय आइ मुिनबर पग लागी। उिचत असीस लही मन मागी।।
गुरपितिनिह मुिनितयनह समेता। िमली पेमु किह जाइ न जेता।।
बंिद बंिद पग िसय सबही के। आिसरबचन लहे िपय जी के।।
सासु सकल जब सीयँ िनहारी। मूदे नयन सहिम सुकुमारी।।
परी बिधक बस मनहुँ मराली। काह कीनह करतार कुचाली।।
ितनह िसय िनरिख िनपट दुखु पावा। सो सबु सिहअ जो दैउ सहावा।।
जनकसुता तब उर धिर धीरा। नील निलन लोयन भिर नीरा।।
िमली सकल सासुनह िसय जाई। तेिह अवसर करना मिह छाई।।
दो0-लािग लािग पग सबिन िसय भेटित अित अनुराग।।
हृदयँ असीसिहं पेम बस रिहअहु भरी सोहाग।।246।।
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िबकल सनेहँ सीय सब रानी। बैठन सबिह कहेउ गुर गयानी।।
किह जग गित माियक मुिननाथा। कहे कछुक परमारथ गाथा।।
नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुिन रघुनाथ दुसह दुखु पावा।।
मरन हेतु िनज नेहु िबचारी। भे अित िबकल धीर धुर धारी।।
कुिलस कठोर सुनत कटु बानी। िबलपत लखन सीय सब रानी।।
सोक िबकल अित सकल समाजू। मानहुँ राजु अकाजेउ आजू।।
मुिनबर बहुिर राम समुझाए। सिहत समाज सुसिरत नहाए।।
बतु िनरंबु तेिह िदन पभु कीनहा। मुिनहु कहे जलु काहुँ न लीनहा।।
दो0-भोर भएँ रघुनदं निह जो मुिन आयसु दीनह।।
शदा भगित समेत पभु सो सबु सादर कीनह।।247।।
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किर िपतु िकया बेद जिस बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी।।
जासु नाम पावक अघ तूला। सुिमरत सकल सुमंगल मूला।।
सुद सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुरसिर जस।।
सुद भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सन राम िपरीते।।
नाथ लोग सब िनपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु अहारी।।
सानुज भरतु सिचव सब माता। देिख मोिह पल िजिम जुग जाता।।
सब समेत पुर धािरअ पाऊ। आपु इहा अमरावित राऊ।।
बहुत कहेउँ सब िकयउँ िढठाई। उिचत होइ तस किरअ गोसाई।।
दो0-धमर सेतु करनायतन कस न कहहु अस राम।
लोग दुिखत िदन दुइ दरस देिख लहहुँ िबशाम।।248।।
–*–*–
राम बचन सुिन सभय समाजू। जनु जलिनिध महुँ िबकल जहाजू।।
सुिन गुर िगरा सुमगं ल मूला। भयउ मनहुँ मारत अनुकुला।।
पावन पयँ ितहुँ काल नहाही। जो िबलोिक अंघ ओघ नसाही।।
मंगलमूरित लोचन भिर भिर। िनरखिहं हरिष दंडवत किर किर।।
राम सैल बन देखन जाही। जहँ सुख सकल सकल दुख नाही।।
झरना झिरिहं सुधासम बारी। ितिबध तापहर ितिबध बयारी।।
िबटप बेिल तृन अगिनत जाती। फल पसून पललव बहु भाती।।
सुंदर िसला सुखद तर छाही। जाइ बरिन बन छिब केिह पाही।।
दो0-सरिन सरोरह जल िबहग कूजत गुंजत भृंग।
बैर िबगत िबहरत िबिपन मृग िबहंग बहुरगं ।।249।।
–*–*–
कोल िकरात िभलल बनबासी। मधु सुिच सुंदर सवादु सुधा सी।।
भिर भिर परन पुटी रिच ररी। कंद मूल फल अंकुर जूरी।।
सबिह देिहं किर िबनय पनामा। किह किह सवाद भेद गुन नामा।।
देिहं लोग बहु मोल न लेही। फेरत राम दोहाई देही।।
कहिहं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पिहचानी।।
तुमह सुकृती हम नीच िनषादा। पावा दरसनु राम पसादा।।
हमिह अगम अित दरसु तुमहारा। जस मर धरिन देवधुिन धारा।।
राम कृपाल िनषाद नेवाजा। पिरजन पजउ चिहअ जस राजा।।
दो0-यह िजँयँ जािन सँकोचु तिज किरअ छोहु लिख नेहु।
हमिह कृतारथ करन लिग फल तृन अंकुर लेहु।।250।।
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तुमह िपय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे।।
देब काह हम तुमहिह गोसाई। ईधनु पात िकरात िमताई।।
यह हमािर अित बिड़ सेवकाई। लेिह न बासन बसन चोराई।।
हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुिटल कुचाली कुमित कुजाती।।
पाप करत िनिस बासर जाही। निहं पट किट निह पेट अघाही।।
सपोनेहुँ धरम बुिद कस काऊ। यह रघुनदं न दरस पभाऊ।।
जब ते पभु पद पदुम िनहारे। िमटे दुसह दुख दोष हमारे।।
बचन सुनत पुरजन अनुरागे। ितनह के भाग सराहन लागे।।
छं0-लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावही।
बोलिन िमलिन िसय राम चरन सनेहु लिख सुखु पावही।।
नर नािर िनदरिहं नेहु िनज सुिन कोल िभललिन की िगरा।
तुलसी कृपा रघुबस ं मिन की लोह लै लौका ितरा।।
सो0-िबहरिहं बन चहु ओर पितिदन पमुिदत लोग सब।
जल जयो दादुर मोर भए पीन पावस पथम।।251।।
पुर जन नािर मगन अित पीती। बासर जािहं पलक सम बीती।।
सीय सासु पित बेष बनाई। सादर करइ सिरस सेवकाई।।
लखा न मरमु राम िबनु काहूँ। माया सब िसय माया माहूँ।।
सीयँ सासु सेवा बस कीनही। ितनह लिह सुख िसख आिसष दीनही।।
लिख िसय सिहत सरल दोउ भाई। कुिटल रािन पिछतािन अघाई।।
अविन जमिह जाचित कैकेई। मिह न बीचु िबिध मीचु न देई।।
लोकहुँ बेद िबिदत किब कहही। राम िबमुख थलु नरक न लहही।।
यहु संसउ सब के मन माही। राम गवनु िबिध अवध िक नाही।।
दो0-िनिस न नीद निहं भूख िदन भरतु िबकल सुिच सोच।
नीच कीच िबच मगन जस मीनिह सिलल सँकोच।।252।।
–*–*–
कीनही मातु िमस काल कुचाली। ईित भीित जस पाकत साली।।
केिह िबिध होइ राम अिभषेकू। मोिह अवकलत उपाउ न एकू।।
अविस िफरिहं गुर आयसु मानी। मुिन पुिन कहब राम रिच जानी।।
मातु कहेहुँ बहुरिहं रघुराऊ। राम जनिन हठ करिब िक काऊ।।
मोिह अनुचर कर केितक बाता। तेिह महँ कुसमउ बाम िबधाता।।
जौ हठ करउँ त िनपट कुकरमू। हरिगिर ते गुर सेवक धरमू।।
एकउ जुगुित न मन ठहरानी। सोचत भरतिह रैिन िबहानी।।
पात नहाइ पभुिह िसर नाई। बैठत पठए िरषयँ बोलाई।।
दो0-गुर पद कमल पनामु किर बैठे आयसु पाइ।
िबप महाजन सिचव सब जुरे सभासद आइ।।253।।
–*–*–
बोले मुिनबर समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना।।
धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु सवबस भगवानू।।
सतयसंध पालक शुित सेतू। राम जनमु जग मंगल हेतू।।
गुर िपतु मातु बचन अनुसारी। खल दलु दलन देव िहतकारी।।
नीित पीित परमारथ सवारथु। कोउ न राम सम जान जथारथु।।
िबिध हिर हर सिस रिब िदिसपाला। माया जीव करम कुिल काला।।
अिहप मिहप जहँ लिग पभुताई। जोग िसिद िनगमागम गाई।।
किर िबचार िजँयँ देखहु नीके। राम रजाइ सीस सबही के।।
दो0-राखे राम रजाइ रख हम सब कर िहत होइ।
समुिझ सयाने करहु अब सब िमिल संमत सोइ।।254।।
–*–*–
सब कहुँ सुखद राम अिभषेकू। मंगल मोद मूल मग एकू।।
केिह िबिध अवध चलिहं रघुराऊ। कहहु समुिझ सोइ किरअ उपाऊ।।
सब सादर सुिन मुिनबर बानी। नय परमारथ सवारथ सानी।।
उतर न आव लोग भए भोरे। तब िसर नाइ भरत कर जोरे।।
भानुबसं भए भूप घनेरे। अिधक एक ते एक बड़ेरे।।
जनमु हेतु सब कहँ िपतु माता। करम सुभासुभ देइ िबधाता।।
दिल दुख सजइ सकल कलयाना। अस असीस राउिर जगु जाना।।
सो गोसाइँ िबिध गित जेिहं छेकी। सकइ को टािर टेक जो टेकी।।
दो0-बूिझअ मोिह उपाउ अब सो सब मोर अभागु।
सुिन सनेहमय बचन गुर उर उमगा अनुरागु।।255।।
–*–*–
तात बात फुिर राम कृपाही। राम िबमुख िसिध सपनेहुँ नाही।।
सकुचउँ तात कहत एक बाता। अरध तजिहं बुध सरबस जाता।।
तुमह कानन गवनहु दोउ भाई। फेिरअिहं लखन सीय रघुराई।।
सुिन सुबचन हरषे दोउ भाता। भे पमोद पिरपूरन गाता।।
मन पसन तन तेजु िबराजा। जनु िजय राउ रामु भए राजा।।
बहुत लाभ लोगनह लघु हानी। सम दुख सुख सब रोविहं रानी।।
कहिहं भरतु मुिन कहा सो कीनहे। फलु जग जीवनह अिभमत दीनहे।।
कानन करउँ जनम भिर बासू। एिहं ते अिधक न मोर सुपासू।।
दो0-अँतरजामी रामु िसय तुमह सरबगय सुजान।
जो फुर कहहु त नाथ िनज कीिजअ बचनु पवान।।256।।
–*–*–
भरत बचन सुिन देिख सनेहू। सभा सिहत मुिन भए िबदेहू।।
भरत महा मिहमा जलरासी। मुिन मित ठािढ़ तीर अबला सी।।
गा चह पार जतनु िहयँ हेरा। पावित नाव न बोिहतु बेरा।।
और किरिह को भरत बड़ाई। सरसी सीिप िक िसंधु समाई।।
भरतु मुिनिह मन भीतर भाए। सिहत समाज राम पिहँ आए।।
पभु पनामु किर दीनह सुआसनु। बैठे सब सुिन मुिन अनुसासनु।।
बोले मुिनबर बचन िबचारी। देस काल अवसर अनुहारी।।
सुनहु राम सरबगय सुजाना। धरम नीित गुन गयान िनधाना।।
दो0-सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ।
पुरजन जननी भरत िहत होइ सो किहअ उपाउ।।257।।
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आरत कहिहं िबचािर न काऊ। सूझ जूआिरिह आपन दाऊ।।
सुिन मुिन बचन कहत रघुराऊ। नाथ तुमहारेिह हाथ उपाऊ।।
सब कर िहत रख राउिर राखे। आयसु िकएँ मुिदत फुर भाषे।।
पथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथे मािन करौ िसख सोई।।
पुिन जेिह कहँ जस कहब गोसाईँ। सो सब भाित घिटिह सेवकाईँ।।
कह मुिन राम सतय तुमह भाषा। भरत सनेहँ िबचार न राखा।।
तेिह ते कहउँ बहोिर बहोरी। भरत भगित बस भइ मित मोरी।।
मोरे जान भरत रिच रािख। जो कीिजअ सो सुभ िसव साखी।।
दो0-भरत िबनय सादर सुिनअ किरअ िबचार बहोिर।
करब साधुमत लोकमत नृपनय िनगम िनचोिर।।258।।
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गुर अनुराग भरत पर देखी। राम हदयँ आनंदु िबसेषी।।
भरतिह धरम धुरध ं र जानी। िनज सेवक तन मानस बानी।।
बोले गुर आयस अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगलमूला।।
नाथ सपथ िपतु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई।।
जे गुर पद अंबुज अनुरागी। ते लोकहँु बेदहुँ बड़भागी।।
राउर जा पर अस अनुरागू। को किह सकइ भरत कर भागू।।
लिख लघु बंधु बुिद सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई।।
भरतु कहही सोइ िकएँ भलाई। अस किह राम रहे अरगाई।।
दो0-तब मुिन बोले भरत सन सब सँकोचु तिज तात।
कृपािसंधु िपय बंधु सन कहहु हृदय कै बात।।259।।
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सुिन मुिन बचन राम रख पाई। गुर सािहब अनुकूल अघाई।।
लिख अपने िसर सबु छर भार। किह न सकिहं कछु करिहं िबचार।।
पुलिक सरीर सभा भए ठाढे। नीरज नयन नेह जल बाढ़े।।
कहब मोर मुिननाथ िनबाहा। एिह ते अिधक कहौ मै काहा।
मै जानउँ िनज नाथ सुभाऊ। अपरािधहु पर कोह न काऊ।।
मो पर कृपा सनेह िबसेषी। खेलत खुिनस न कबहँू देखी।।
िससुपन तेम पिरहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीनह मोर मन भंगू।।
मै पभु कृपा रीित िजयँ जोही। हारेहुँ खेल िजताविहं मोही।।
दो0-महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
दरसन तृिपत न आजु लिग पेम िपआसे नैन।।260।।
–*–*–
िबिध न सकेउ सिह मोर दुलारा। नीच बीचु जननी िमस पारा।
यहउ कहत मोिह आजु न सोभा। अपनी समुिझ साधु सुिच को भा।।
मातु मंिद मै साधु सुचाली। उर अस आनत कोिट कुचाली।।
फरइ िक कोदव बािल सुसाली। मुकुता पसव िक संबुक काली।।
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदिध अवगाहू।।
िबनु समुझे िनज अघ पिरपाकू। जािरउँ जायँ जनिन किह काकू।।
हृदयँ हेिर हारेउँ सब ओरा। एकिह भाित भलेिहं भल मोरा।।
गुर गोसाइँ सािहब िसय रामू। लागत मोिह नीक पिरनामू।।
दो0-साधु सभा गुर पभु िनकट कहउँ सुथल सित भाउ।
पेम पपंचु िक झूठ फुर जानिहं मुिन रघुराउ।।261।।
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भूपित मरन पेम पनु राखी। जननी कुमित जगतु सबु साखी।।
देिख न जािह िबकल महतारी। जरिहं दुसह जर पुर नर नारी।।
मही सकल अनरथ कर मूला। सो सुिन समुिझ सिहउँ सब सूला।।
सुिन बन गवनु कीनह रघुनाथा। किर मुिन बेष लखन िसय साथा।।
िबनु पानिहनह पयादेिह पाएँ। संकर सािख रहेउँ एिह घाएँ।।
बहुिर िनहार िनषाद सनेहू। कुिलस किठन उर भयउ न बेहू।।
अब सबु आँिखनह देखेउँ आई। िजअत जीव जड़ सबइ सहाई।।
िजनहिह िनरिख मग सािपिन बीछी। तजिहं िबषम िबषु तामस तीछी।।
दो0-तेइ रघुनदं नु लखनु िसय अनिहत लागे जािह।
तासु तनय तिज दुसह दुख दैउ सहावइ कािह।।262।।
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सुिन अित िबकल भरत बर बानी। आरित पीित िबनय नय सानी।।
सोक मगन सब सभा खभार। मनहुँ कमल बन परेउ तुसार।।
किह अनेक िबिध कथा पुरानी। भरत पबोधु कीनह मुिन गयानी।।
बोले उिचत बचन रघुनदं । ू िदनकर कुल कैरव बन चंद। ू ।
तात जाय िजयँ करहु गलानी। ईस अधीन जीव गित जानी।।
तीिन काल ितभुअन मत मोरे। पुनयिसलोक तात तर तोरे।।
उर आनत तुमह पर कुिटलाई। जाइ लोकु परलोकु नसाई।।
दोसु देिहं जनिनिह जड़ तेई। िजनह गुर साधु सभा निहं सेई।।
दो0-िमिटहिहं पाप पपंच सब अिखल अमंगल भार।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुिमरत नामु तुमहार।।263।।
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कहउँ सुभाउ सतय िसव साखी। भरत भूिम रह राउिर राखी।।
तात कुतरक करहु जिन जाएँ। बैर पेम निह दुरइ दुराएँ।।
मुिन गन िनकट िबहग मृग जाही। बाधक बिधक िबलोिक पराही।।
िहत अनिहत पसु पिचछउ जाना। मानुष तनु गुन गयान िनधाना।।
तात तुमहिह मै जानउँ नीके। करौ काह असमंजस जीके।।
राखेउ रायँ सतय मोिह तयागी। तनु पिरहरेउ पेम पन लागी।।
तासु बचन मेटत मन सोचू। तेिह ते अिधक तुमहार सँकोचू।।
ता पर गुर मोिह आयसु दीनहा। अविस जो कहहु चहउँ सोइ कीनहा।।
दो0-मनु पसन किर सकुच तिज कहहु करौ सोइ आजु।
सतयसंध रघुबर बचन सुिन भा सुखी समाजु।।264।।
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सुर गन सिहत सभय सुरराजू। सोचिहं चाहत होन अकाजू।।
बनत उपाउ करत कछु नाही। राम सरन सब गे मन माही।।
बहुिर िबचािर परसपर कहही। रघुपित भगत भगित बस अहही।
सुिध किर अंबरीष दुरबासा। भे सुर सुरपित िनपट िनरासा।।
सहे सुरनह बहु काल िबषादा। नरहिर िकए पगट पहलादा।।
लिग लिग कान कहिहं धुिन माथा। अब सुर काज भरत के हाथा।।
आन उपाउ न देिखअ देवा। मानत रामु सुसेवक सेवा।।
िहयँ सपेम सुिमरहु सब भरतिह। िनज गुन सील राम बस करतिह।।
दो0-सुिन सुर मत सुरगुर कहेउ भल तुमहार बड़ भागु।
सकल सुमग ं ल मूल जग भरत चरन अनुरागु।।265।।
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सीतापित सेवक सेवकाई। कामधेनु सय सिरस सुहाई।।
भरत भगित तुमहरे मन आई। तजहु सोचु िबिध बात बनाई।।
देखु देवपित भरत पभाऊ। सहज सुभायँ िबबस रघुराऊ।।
मन िथर करहु देव डर नाही। भरतिह जािन राम पिरछाही।।
सुनो सुरगुर सुर संमत सोचू। अंतरजामी पभुिह सकोचू।।
िनज िसर भार भरत िजयँ जाना। करत कोिट िबिध उर अनुमाना।।
किर िबचार मन दीनही ठीका। राम रजायस आपन नीका।।
िनज पन तिज राखेउ पनु मोरा। छोहु सनेहु कीनह निहं थोरा।।
दो0-कीनह अनुगह अिमत अित सब िबिध सीतानाथ।
किर पनामु बोले भरतु जोिर जलज जुग हाथ।।266।।
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कहौ कहावौ का अब सवामी। कृपा अंबुिनिध अंतरजामी।।
गुर पसन सािहब अनुकूला। िमटी मिलन मन कलिपत सूला।।
अपडर डरेउँ न सोच समूले। रिबिह न दोसु देव िदिस भूले।।
मोर अभागु मातु कुिटलाई। िबिध गित िबषम काल किठनाई।।
पाउ रोिप सब िमिल मोिह घाला। पनतपाल पन आपन पाला।।
यह नइ रीित न राउिर होई। लोकहुँ बेद िबिदत निहं गोई।।
जगु अनभल भल एकु गोसाई। किहअ होइ भल कासु भलाई।।
देउ देवतर सिरस सुभाऊ। सनमुख िबमुख न काहुिह काऊ।।
दो0-जाइ िनकट पिहचािन तर छाहँ समिन सब सोच।
मागत अिभमत पाव जग राउ रंकु भल पोच।।267।।
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लिख सब िबिध गुर सवािम सनेहू। िमटेउ छोभु निहं मन संदेहू।।
अब करनाकर कीिजअ सोई। जन िहत पभु िचत छोभु न होई।।
जो सेवकु सािहबिह सँकोची। िनज िहत चहइ तासु मित पोची।।
सेवक िहत सािहब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ िबहाई।।
सवारथु नाथ िफरे सबही का। िकएँ रजाइ कोिट िबिध नीका।।
यह सवारथ परमारथ सार। सकल सुकृत फल सुगित िसंगार।।
देव एक िबनती सुिन मोरी। उिचत होइ तस करब बहोरी।।
ितलक समाजु सािज सबु आना। किरअ सुफल पभु जौ मनु माना।।
दो0-सानुज पठइअ मोिह बन कीिजअ सबिह सनाथ।
नतर फेिरअिहं बंधु दोउ नाथ चलौ मै साथ।।268।।
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नतर जािहं बन तीिनउ भाई। बहुिरअ सीय सिहत रघुराई।।
जेिह िबिध पभु पसन मन होई। करना सागर कीिजअ सोई।।
देवँ दीनह सबु मोिह अभार। मोरे नीित न धरम िबचार।।
कहउँ बचन सब सवारथ हेतू। रहत न आरत के िचत चेतू।।
उतर देइ सुिन सवािम रजाई। सो सेवकु लिख लाज लजाई।।
अस मै अवगुन उदिध अगाधू। सवािम सनेहँ सराहत साधू।।
अब कृपाल मोिह सो मत भावा। सकुच सवािम मन जाइँ न पावा।।
पभु पद सपथ कहउँ सित भाऊ। जग मंगल िहत एक उपाऊ।।
दो0-पभु पसन मन सकुच तिज जो जेिह आयसु देब।
सो िसर धिर धिर किरिह सबु िमिटिह अनट अवरेब।।269।।
–*–*–
भरत बचन सुिच सुिन सुर हरषे। साधु सरािह सुमन सुर बरषे।।
असमंजस बस अवध नेवासी। पमुिदत मन तापस बनबासी।।
चुपिहं रहे रघुनाथ सँकोची। पभु गित देिख सभा सब सोची।।
जनक दूत तेिह अवसर आए। मुिन बिसषँ सुिन बेिग बोलाए।।
किर पनाम ितनह रामु िनहारे। बेषु देिख भए िनपट दुखारे।।
दूतनह मुिनबर बूझी बाता। कहहु िबदेह भूप कुसलाता।।
सुिन सकुचाइ नाइ मिह माथा। बोले चर बर जोरे हाथा।।
बूझब राउर सादर साई। कुसल हेतु सो भयउ गोसाई।।
दो0-नािह त कोसल नाथ के साथ कुसल गइ नाथ।
िमिथला अवध िबसेष ते जगु सब भयउ अनाथ।।270।।
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कोसलपित गित सुिन जनकौरा। भे सब लोक सोक बस बौरा।।
जेिहं देखे तेिह समय िबदेहू। नामु सतय अस लाग न केहू।।
रािन कुचािल सुनत नरपालिह। सूझ न कछु जस मिन िबनु बयालिह।।
भरत राज रघुबर बनबासू। भा िमिथलेसिह हृदयँ हरासू।।
नृप बूझे बुध सिचव समाजू। कहहु िबचािर उिचत का आजू।।
समुिझ अवध असमंजस दोऊ। चिलअ िक रिहअ न कह कछु कोऊ।।
नृपिह धीर धिर हृदयँ िबचारी। पठए अवध चतुर चर चारी।।
बूिझ भरत सित भाउ कुभाऊ। आएहु बेिग न होइ लखाऊ।।
दो0-गए अवध चर भरत गित बूिझ देिख करतूित।
चले िचतकूटिह भरतु चार चले तेरहूित।।271।।
–*–*–
दूतनह आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामित बरनी।।
सुिन गुर पिरजन सिचव महीपित। भे सब सोच सनेहँ िबकल अित।।
धिर धीरजु किर भरत बड़ाई। िलए सुभट साहनी बोलाई।।
घर पुर देस रािख रखवारे। हय गय रथ बहु जान सँवारे।।
दुघरी सािध चले ततकाला। िकए िबशामु न मग महीपाला।।
भोरिहं आजु नहाइ पयागा। चले जमुन उतरन सबु लागा।।
खबिर लेन हम पठए नाथा। ितनह किह अस मिह नायउ माथा।।
साथ िकरात छ सातक दीनहे। मुिनबर तुरत िबदा चर कीनहे।।
दो0-सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु।
रघुनदं निह सकोचु बड़ सोच िबबस सुरराजु।।272।।
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गरइ गलािन कुिटल कैकेई। कािह कहै केिह दूषनु देई।।
अस मन आिन मुिदत नर नारी। भयउ बहोिर रहब िदन चारी।।
एिह पकार गत बासर सोऊ। पात नहान लाग सबु कोऊ।।
किर मजजनु पूजिहं नर नारी। गनप गौिर ितपुरािर तमारी।।
रमा रमन पद बंिद बहोरी। िबनविहं अंजुिल अंचल जोरी।।
राजा रामु जानकी रानी। आनँद अविध अवध रजधानी।।
सुबस बसउ िफिर सिहत समाजा। भरतिह रामु करहुँ जुबराजा।।
एिह सुख सुधा सीची सब काहू। देव देहु जग जीवन लाहू।।
दो0-गुर समाज भाइनह सिहत राम राजु पुर होउ।
अछत राम राजा अवध मिरअ माग सबु कोउ।।273।।
–*–*–
सुिन सनेहमय पुरजन बानी। िनंदिहं जोग िबरित मुिन गयानी।।
एिह िबिध िनतयकरम किर पुरजन। रामिह करिहं पनाम पुलिक तन।।
ऊँच नीच मधयम नर नारी। लहिहं दरसु िनज िनज अनुहारी।।
सावधान सबही सनमानिहं। सकल सराहत कृपािनधानिहं।।
लिरकाइिह ते रघुबर बानी। पालत नीित पीित पिहचानी।।
सील सकोच िसंधु रघुराऊ। सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ।।
कहत राम गुन गन अनुरागे। सब िनज भाग सराहन लागे।।
हम सम पुनय पुंज जग थोरे। िजनहिह रामु जानत किर मोरे।।
दो0-पेम मगन तेिह समय सब सुिन आवत िमिथलेसु।
सिहत सभा संभम उठेउ रिबकुल कमल िदनेसु।।274।।
–*–*–
भाइ सिचव गुर पुरजन साथा। आगे गवनु कीनह रघुनाथा।।
िगिरबर दीख जनकपित जबही। किर पनाम रथ तयागेउ तबही।।
राम दरस लालसा उछाहू। पथ शम लेसु कलेसु न काहू।।
मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही। िबनु मन तन दुख सुख सुिध केही।।
आवत जनकु चले एिह भाती। सिहत समाज पेम मित माती।।
आए िनकट देिख अनुरागे। सादर िमलन परसपर लागे।।
लगे जनक मुिनजन पद बंदन। िरिषनह पनामु कीनह रघुनदं न।।
भाइनह सिहत रामु िमिल राजिह। चले लवाइ समेत समाजिह।।
दो0-आशम सागर सात रस पूरन पावन पाथु।
सेन मनहुँ करना सिरत िलएँ जािहं रघुनाथु।।275।।
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बोरित गयान िबराग करारे। बचन ससोक िमलत नद नारे।।
सोच उसास समीर तंरगा। धीरज तट तरबर कर भंगा।।
िबषम िबषाद तोरावित धारा। भय भम भवँर अबतर अपारा।।
केवट बुध िबदा बिड़ नावा। सकिहं न खेइ ऐक निहं आवा।।
बनचर कोल िकरात िबचारे। थके िबलोिक पिथक िहयँ हारे।।
आशम उदिध िमली जब जाई। मनहुँ उठेउ अंबुिध अकुलाई।।
सोक िबकल दोउ राज समाजा। रहा न गयानु न धीरजु लाजा।।
भूप रप गुन सील सराही। रोविहं सोक िसंधु अवगाही।।
छं0-अवगािह सोक समुद सोचिहं नािर नर बयाकुल महा।
दै दोष सकल सरोष बोलिहं बाम िबिध कीनहो कहा।।
सुर िसद तापस जोिगजन मुिन देिख दसा िबदेह की।
तुलसी न समरथु कोउ जो तिर सकै सिरत सनेह की।।
सो0-िकए अिमत उपदेस जहँ तहँ लोगनह मुिनबरनह।
धीरजु धिरअ नरेस कहेउ बिसष िबदेह सन।।276।।
जासु गयानु रिब भव िनिस नासा। बचन िकरन मुिन कमल िबकासा।।
तेिह िक मोह ममता िनअराई। यह िसय राम सनेह बड़ाई।।
िबषई साधक िसद सयाने। ितिबध जीव जग बेद बखाने।।
राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभा बड़ आदर तासू।।
सोह न राम पेम िबनु गयानू। करनधार िबनु िजिम जलजानू।।
मुिन बहुिबिध िबदेहु समुझाए। रामघाट सब लोग नहाए।।
सकल सोक संकुल नर नारी। सो बासर बीतेउ िबनु बारी।।
पसु खग मृगनह न कीनह अहार। िपय पिरजन कर कौन िबचार।।
दो0-दोउ समाज िनिमराजु रघुराजु नहाने पात।
बैठे सब बट िबटप तर मन मलीन कृस गात।।277।।
–*–*–
जे मिहसुर दसरथ पुर बासी। जे िमिथलापित नगर िनवासी।।
हंस बंस गुर जनक पुरोधा। िजनह जग मगु परमारथु सोधा।।
लगे कहन उपदेस अनेका। सिहत धरम नय िबरित िबबेका।।
कौिसक किह किह कथा पुरानी। समुझाई सब सभा सुबानी।।
तब रघुनाथ कोिसकिह कहेऊ। नाथ कािल जल िबनु सबु रहेऊ।।
मुिन कह उिचत कहत रघुराई। गयउ बीित िदन पहर अढ़ाई।।
िरिष रख लिख कह तेरहुितराजू। इहा उिचत निहं असन अनाजू।।
कहा भूप भल सबिह सोहाना। पाइ रजायसु चले नहाना।।
दो0-तेिह अवसर फल फूल दल मूल अनेक पकार।
लइ आए बनचर िबपुल भिर भिर काविर भार।।278।।
–*–*–
कामद मे िगिर राम पसादा। अवलोकत अपहरत िबषादा।।
सर सिरता बन भूिम िबभागा। जनु उमगत आनँद अनुरागा।।
बेिल िबटप सब सफल सफूला। बोलत खग मृग अिल अनुकूला।।
तेिह अवसर बन अिधक उछाहू। ितिबध समीर सुखद सब काहू।।
जाइ न बरिन मनोहरताई। जनु मिह करित जनक पहुनाई।।
तब सब लोग नहाइ नहाई। राम जनक मुिन आयसु पाई।।
देिख देिख तरबर अनुरागे। जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे।।
दल फल मूल कंद िबिध नाना। पावन सुंदर सुधा समाना।।
दो0-सादर सब कहँ रामगुर पठए भिर भिर भार।
पूिज िपतर सुर अितिथ गुर लगे करन फरहार।।279।।
–*–*–
एिह िबिध बासर बीते चारी। रामु िनरिख नर नािर सुखारी।।
दुहु समाज अिस रिच मन माही। िबनु िसय राम िफरब भल नाही।।
सीता राम संग बनबासू। कोिट अमरपुर सिरस सुपासू।।
पिरहिर लखन रामु बैदेही। जेिह घर भाव बाम िबिध तेही।।
दािहन दइउ होइ जब सबही। राम समीप बिसअ बन तबही।।
मंदािकिन मजजनु ितहु काला। राम दरसु मुद मंगल माला।।
अटनु राम िगिर बन तापस थल। असनु अिमअ सम कंद मूल फल।।
सुख समेत संबत दुइ साता। पल सम होिहं न जिनअिहं जाता।।
दो0-एिह सुख जोग न लोग सब कहिहं कहा अस भागु।।
सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु।।280।।
–*–*–
एिह िबिध सकल मनोरथ करही। बचन सपेम सुनत मन हरही।।
सीय मातु तेिह समय पठाई। दासी देिख सुअवसर आई।।
सावकास सुिन सब िसय सासू। आयउ जनकराज रिनवासू।।
कौसलया सादर सनमानी। आसन िदए समय सम आनी।।
सीलु सनेह सकल दुहु ओरा। दविहं देिख सुिन कुिलस कठोरा।।
पुलक िसिथल तन बािर िबलोचन। मिह नख िलखन लगी सब सोचन।।
सब िसय राम पीित िक िस मूरती। जनु करना बहु बेष िबसूरित।।
सीय मातु कह िबिध बुिध बाकी। जो पय फेनु फोर पिब टाकी।।
दो0-सुिनअ सुधा देिखअिहं गरल सब करतूित कराल।
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल।।281।।
–*–*–
सुिन ससोच कह देिब सुिमता। िबिध गित बिड़ िबपरीत िबिचता।।
जो सृिज पालइ हरइ बहोरी। बाल केिल सम िबिध मित भोरी।।
कौसलया कह दोसु न काहू। करम िबबस दुख सुख छित लाहू।।
किठन करम गित जान िबधाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता।।
ईस रजाइ सीस सबही के। उतपित िथित लय िबषहु अमी के।।
देिब मोह बस सोिचअ बादी। िबिध पपंचु अस अचल अनादी।।
भूपित िजअब मरब उर आनी। सोिचअ सिख लिख िनज िहत हानी।।
सीय मातु कह सतय सुबानी। सुकृती अविध अवधपित रानी।।
दो0-लखनु राम िसय जाहुँ बन भल पिरनाम न पोचु।
गहबिर िहयँ कह कौिसला मोिह भरत कर सोचु।।282।।
–*–*–
ईस पसाद असीस तुमहारी। सुत सुतबधू देवसिर बारी।।
राम सपथ मै कीनह न काऊ। सो किर कहउँ सखी सित भाऊ।।
भरत सील गुन िबनय बड़ाई। भायप भगित भरोस भलाई।।
कहत सारदहु कर मित हीचे। सागर सीप िक जािहं उलीचे।।
जानउँ सदा भरत कुलदीपा। बार बार मोिह कहेउ महीपा।।
कसे कनकु मिन पािरिख पाएँ। पुरष पिरिखअिहं समयँ सुभाएँ।
अनुिचत आजु कहब अस मोरा। सोक सनेहँ सयानप थोरा।।
सुिन सुरसिर सम पाविन बानी। भई सनेह िबकल सब रानी।।
दो0-कौसलया कह धीर धिर सुनहु देिब िमिथलेिस।
को िबबेकिनिध बललभिह तुमहिह सकइ उपदेिस।।283।।
–*–*–
रािन राय सन अवसर पाई। अपनी भाित कहब समुझाई।।
रिखअिहं लखनु भरतु गबनिहं बन। जौ यह मत मानै महीप मन।।
तौ भल जतनु करब सुिबचारी। मोरे सौचु भरत कर भारी।।
गूढ़ सनेह भरत मन माही। रहे नीक मोिह लागत नाही।।
लिख सुभाउ सुिन सरल सुबानी। सब भइ मगन करन रस रानी।।
नभ पसून झिर धनय धनय धुिन। िसिथल सनेहँ िसद जोगी मुिन।।
सबु रिनवासु िबथिक लिख रहेऊ। तब धिर धीर सुिमता कहेऊ।।
देिब दंड जुग जािमिन बीती। राम मातु सुनी उठी सपीती।।
दो0-बेिग पाउ धािरअ थलिह कह सनेहँ सितभाय।
हमरे तौ अब ईस गित के िमिथलेस सहाय।।284।।
–*–*–
लिख सनेह सुिन बचन िबनीता। जनकिपया गह पाय पुनीता।।
देिब उिचत अिस िबनय तुमहारी। दसरथ घिरिन राम महतारी।।
पभु अपने नीचहु आदरही। अिगिन धूम िगिर िसर ितनु धरही।।
सेवकु राउ करम मन बानी। सदा सहाय महेसु भवानी।।
रउरे अंग जोगु जग को है। दीप सहाय िक िदनकर सोहै।।
रामु जाइ बनु किर सुर काजू। अचल अवधपुर किरहिहं राजू।।
अमर नाग नर राम बाहुबल। सुख बिसहिहं अपने अपने थल।।
यह सब जागबिलक किह राखा। देिब न होइ मुधा मुिन भाषा।।
दो0-अस किह पग पिर पेम अित िसय िहत िबनय सुनाइ।।
िसय समेत िसयमातु तब चली सुआयसु पाइ।।285।।
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िपय पिरजनिह िमली बैदेही। जो जेिह जोगु भाित तेिह तेही।।
तापस बेष जानकी देखी। भा सबु िबकल िबषाद िबसेषी।।
जनक राम गुर आयसु पाई। चले थलिह िसय देखी आई।।
लीिनह लाइ उर जनक जानकी। पाहुन पावन पेम पान की।।
उर उमगेउ अंबुिध अनुरागू। भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू।।
िसय सनेह बटु बाढ़त जोहा। ता पर राम पेम िससु सोहा।।
िचरजीवी मुिन गयान िबकल जनु। बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु।।
मोह मगन मित निहं िबदेह की। मिहमा िसय रघुबर सनेह की।।
दो0-िसय िपतु मातु सनेह बस िबकल न सकी सँभािर।
धरिनसुता धीरजु धरेउ समउ सुधरमु िबचािर।।286।।
–*–*–
तापस बेष जनक िसय देखी। भयउ पेमु पिरतोषु िबसेषी।।
पुित पिवत िकए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ।।
िजित सुरसिर कीरित सिर तोरी। गवनु कीनह िबिध अंड करोरी।।
गंग अविन थल तीिन बड़ेरे। एिहं िकए साधु समाज घनेरे।।
िपतु कह सतय सनेहँ सुबानी। सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी।।
पुिन िपतु मातु लीनह उर लाई। िसख आिसष िहत दीिनह सुहाई।।
कहित न सीय सकुिच मन माही। इहा बसब रजनी भल नाही।।
लिख रख रािन जनायउ राऊ। हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ।।
दो0-बार बार िमिल भेट िसय िबदा कीनह सनमािन।
कही समय िसर भरत गित रािन सुबािन सयािन।।287।।
–*–*–
सुिन भूपाल भरत बयवहार। सोन सुगंध सुधा सिस सार।।
मूदे सजल नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुिदत मन।।
सावधान सुनु सुमुिख सुलोचिन। भरत कथा भव बंध िबमोचिन।।
धरम राजनय बहिबचार। इहा जथामित मोर पचार।।
सो मित मोिर भरत मिहमाही। कहै काह छिल छुअित न छाही।।
िबिध गनपित अिहपित िसव सारद। किब कोिबद बुध बुिद िबसारद।।
भरत चिरत कीरित करतूती। धरम सील गुन िबमल िबभूती।।
समुझत सुनत सुखद सब काहू। सुिच सुरसिर रिच िनदर सुधाहू।।
दो0-िनरविध गुन िनरपम पुरषु भरतु भरत सम जािन।
किहअ सुमेर िक सेर सम किबकुल मित सकुचािन।।288।।
–*–*–
अगम सबिह बरनत बरबरनी। िजिम जलहीन मीन गमु धरनी।।
भरत अिमत मिहमा सुनु रानी। जानिहं रामु न सकिहं बखानी।।
बरिन सपेम भरत अनुभाऊ। ितय िजय की रिच लिख कह राऊ।।
बहुरिहं लखनु भरतु बन जाही। सब कर भल सब के मन माही।।
देिब परंतु भरत रघुबर की। पीित पतीित जाइ निहं तरकी।।
भरतु अविध सनेह ममता की। जदिप रामु सीम समता की।।
परमारथ सवारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुँ मनहुँ िनहारे।।
साधन िसद राम पग नेह। ू ।मोिह लिख परत भरत मत एह। ू ।
दो0-भोरेहुँ भरत न पेिलहिहं मनसहुँ राम रजाइ।
किरअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप िबलखाइ।।289।।
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राम भरत गुन गनत सपीती। िनिस दंपितिह पलक सम बीती।।
राज समाज पात जुग जागे। नहाइ नहाइ सुर पूजन लागे।।
गे नहाइ गुर पही रघुराई। बंिद चरन बोले रख पाई।।
नाथ भरतु पुरजन महतारी। सोक िबकल बनबास दुखारी।।
सिहत समाज राउ िमिथलेसू। बहुत िदवस भए सहत कलेसू।।
उिचत होइ सोइ कीिजअ नाथा। िहत सबही कर रौरे हाथा।।
अस किह अित सकुचे रघुराऊ। मुिन पुलके लिख सीलु सुभाऊ।।
तुमह िबनु राम सकल सुख साजा। नरक सिरस दुहु राज समाजा।।
दो0-पान पान के जीव के िजव सुख के सुख राम।
तुमह तिज तात सोहात गृह िजनहिह ितनहिहं िबिध बाम।।290।।
–*–*–
सो सुखु करमु धरमु जिर जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ।।
जोगु कुजोगु गयानु अगयानू। जहँ निहं राम पेम परधानू।।
तुमह िबनु दुखी सुखी तुमह तेही। तुमह जानहु िजय जो जेिह केही।।
राउर आयसु िसर सबही के। िबिदत कृपालिह गित सब नीके।।
आपु आशमिह धािरअ पाऊ। भयउ सनेह िसिथल मुिनराऊ।।
किर पनाम तब रामु िसधाए। िरिष धिर धीर जनक पिहं आए।।
राम बचन गुर नृपिह सुनाए। सील सनेह सुभायँ सुहाए।।
महाराज अब कीिजअ सोई। सब कर धरम सिहत िहत होई।
दो0-गयान िनधान सुजान सुिच धरम धीर नरपाल।
तुमह िबनु असमंजस समन को समरथ एिह काल।।291।।
–*–*–
सुिन मुिन बचन जनक अनुरागे। लिख गित गयानु िबरागु िबरागे।।
िसिथल सनेहँ गुनत मन माही। आए इहा कीनह भल नाही।।
रामिह रायँ कहेउ बन जाना। कीनह आपु िपय पेम पवाना।।
हम अब बन ते बनिह पठाई। पमुिदत िफरब िबबेक बड़ाई।।
तापस मुिन मिहसुर सुिन देखी। भए पेम बस िबकल िबसेषी।।
समउ समुिझ धिर धीरजु राजा। चले भरत पिहं सिहत समाजा।।
भरत आइ आगे भइ लीनहे। अवसर सिरस सुआसन दीनहे।।
तात भरत कह तेरहुित राऊ। तुमहिह िबिदत रघुबीर सुभाऊ।।
दो0-राम सतयबत धरम रत सब कर सीलु सनेहु।।
संकट सहत सकोच बस किहअ जो आयसु देहु।।292।।
–*–*–
सुिन तन पुलिक नयन भिर बारी। बोले भरतु धीर धिर भारी।।
पभु िपय पूजय िपता सम आपू। कुलगुर सम िहत माय न बापू।।
कौिसकािद मुिन सिचव समाजू। गयान अंबुिनिध आपुनु आजू।।
िससु सेवक आयसु अनुगामी। जािन मोिह िसख देइअ सवामी।।
एिहं समाज थल बूझब राउर। मौन मिलन मै बोलब बाउर।।
छोटे बदन कहउँ बिड़ बाता। छमब तात लिख बाम िबधाता।।
आगम िनगम पिसद पुराना। सेवाधरमु किठन जगु जाना।।
सवािम धरम सवारथिह िबरोधू। बैर अंध पेमिह न पबोधू।।
दो0-रािख राम रख धरमु बतु पराधीन मोिह जािन।
सब के संमत सबर िहत किरअ पेमु पिहचािन।।293।।
–*–*–
भरत बचन सुिन देिख सुभाऊ। सिहत समाज सराहत राऊ।।
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथु अिमत अित आखर थोरे।।
जयौ मुख मुकुर मुकुर िनज पानी। गिह न जाइ अस अदभुत बानी।।
भूप भरत मुिन सिहत समाजू। गे जहँ िबबुध कुमुद िदजराजू।।
सुिन सुिध सोच िबकल सब लोगा। मनहुँ मीनगन नव जल जोगा।।
देवँ पथम कुलगुर गित देखी। िनरिख िबदेह सनेह िबसेषी।।
राम भगितमय भरतु िनहारे। सुर सवारथी हहिर िहयँ हारे।।
सब कोउ राम पेममय पेखा। भउ अलेख सोच बस लेखा।।
दो0-रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराज।
रचहु पपंचिह पंच िमिल नािहं त भयउ अकाजु।।294।।
–*–*–
सुरनह सुिमिर सारदा सराही। देिब देव सरनागत पाही।।
फेिर भरत मित किर िनज माया। पालु िबबुध कुल किर छल छाया।।
िबबुध िबनय सुिन देिब सयानी। बोली सुर सवारथ जड़ जानी।।
मो सन कहहु भरत मित फेर। लोचन सहस न सूझ सुमेर।।
िबिध हिर हर माया बिड़ भारी। सोउ न भरत मित सकइ िनहारी।।
सो मित मोिह कहत कर भोरी। चंिदिन कर िक चंडकर चोरी।।
भरत हृदयँ िसय राम िनवासू। तहँ िक ितिमर जहँ तरिन पकासू।।
अस किह सारद गइ िबिध लोका। िबबुध िबकल िनिस मानहुँ कोका।।
दो0-सुर सवारथी मलीन मन कीनह कुमंत कुठाटु।।
रिच पपंच माया पबल भय भम अरित उचाटु।।295।।
–*–*–
किर कुचािल सोचत सुरराजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू।।
गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रिबकुल दीपा।।
समय समाज धरम अिबरोधा। बोले तब रघुबस ं पुरोधा।।
जनक भरत संबादु सुनाई। भरत कहाउित कही सुहाई।।
तात राम जस आयसु देहू। सो सबु करै मोर मत एहू।।
सुिन रघुनाथ जोिर जुग पानी। बोले सतय सरल मृदु बानी।।
िबदमान आपुिन िमिथलेसू। मोर कहब सब भाित भदेसू।।
राउर राय रजायसु होई। राउिर सपथ सही िसर सोई।।
दो0-राम सपथ सुिन मुिन जनकु सकुचे सभा समेत।
सकल िबलोकत भरत मुखु बनइ न उतर देत।।296।।
–*–*–
सभा सकुच बस भरत िनहारी। रामबंधु धिर धीरजु भारी।।
कुसमउ देिख सनेहु सँभारा। बढ़त िबंिध िजिम घटज िनवारा।।
सोक कनकलोचन मित छोनी। हरी िबमल गुन गन जगजोनी।।
भरत िबबेक बराहँ िबसाला। अनायास उधरी तेिह काला।।
किर पनामु सब कहँ कर जोरे। रामु राउ गुर साधु िनहोरे।।
छमब आजु अित अनुिचत मोरा। कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा।।
िहयँ सुिमरी सारदा सुहाई। मानस ते मुख पंकज आई।।
िबमल िबबेक धरम नय साली। भरत भारती मंजु मराली।।
दो0-िनरिख िबबेक िबलोचनिनह िसिथल सनेहँ समाजु।
किर पनामु बोले भरतु सुिमिर सीय रघुराजु।।297।।
–*–*–
पभु िपतु मातु सुहद गुर सवामी। पूजय परम िहत अतंरजामी।।
सरल सुसािहबु सील िनधानू। पनतपाल सबरगय सुजानू।।
समरथ सरनागत िहतकारी। गुनगाहकु अवगुन अघ हारी।।
सवािम गोसाइिह सिरस गोसाई। मोिह समान मै साइँ दोहाई।।
पभु िपतु बचन मोह बस पेली। आयउँ इहा समाजु सकेली।।
जग भल पोच ऊँच अर नीचू। अिमअ अमरपद माहुर मीचू।।
राम रजाइ मेट मन माही। देखा सुना कतहुँ कोउ नाही।।
सो मै सब िबिध कीिनह िढठाई। पभु मानी सनेह सेवकाई।।
दो0-कृपा भलाई आपनी नाथ कीनह भल मोर।
दूषन भे भूषन सिरस सुजसु चार चहु ओर।।298।।
–*–*–
राउिर रीित सुबािन बड़ाई। जगत िबिदत िनगमागम गाई।।
कूर कुिटल खल कुमित कलंकी। नीच िनसील िनरीस िनसंकी।।
तेउ सुिन सरन सामुहे आए। सकृत पनामु िकहे अपनाए।।
देिख दोष कबहुँ न उर आने। सुिन गुन साधु समाज बखाने।।
को सािहब सेवकिह नेवाजी। आपु समाज साज सब साजी।।
िनज करतूित न समुिझअ सपने। सेवक सकुच सोचु उर अपने।।
सो गोसाइँ निह दूसर कोपी। भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी।।
पसु नाचत सुक पाठ पबीना। गुन गित नट पाठक आधीना।।
दो0-यो सुधािर सनमािन जन िकए साधु िसरमोर।
को कृपाल िबनु पािलहै िबिरदाविल बरजोर।।299।।
–*–*–
सोक सनेहँ िक बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ।।
तबहुँ कृपाल हेिर िनज ओरा। सबिह भाित भल मानेउ मोरा।।
देखेउँ पाय सुमंगल मूला। जानेउँ सवािम सहज अनुकूला।।
बड़े समाज िबलोकेउँ भागू। बड़ी चूक सािहब अनुरागू।।
कृपा अनुगह अंगु अघाई। कीिनह कृपािनिध सब अिधकाई।।
राखा मोर दुलार गोसाई। अपने सील सुभायँ भलाई।।
नाथ िनपट मै कीिनह िढठाई। सवािम समाज सकोच िबहाई।।
अिबनय िबनय जथारिच बानी। छिमिह देउ अित आरित जानी।।
दो0-सुहद सुजान सुसािहबिह बहत ु कहब बिड़ खोिर।
आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोिर।।300।।
–*–*–
पभु पद पदुम पराग दोहाई। सतय सुकृत सुख सीवँ सुहाई।।
सो किर कहउँ िहए अपने की। रिच जागत सोवत सपने की।।
सहज सनेहँ सवािम सेवकाई। सवारथ छल फल चािर िबहाई।।
अगया सम न सुसािहब सेवा। सो पसादु जन पावै देवा।।
अस किह पेम िबबस भए भारी। पुलक सरीर िबलोचन बारी।।
पभु पद कमल गहे अकुलाई। समउ सनेहु न सो किह जाई।।
कृपािसंधु सनमािन सुबानी। बैठाए समीप गिह पानी।।
भरत िबनय सुिन देिख सुभाऊ। िसिथल सनेहँ सभा रघुराऊ।।
छं0-रघुराउ िसिथल सनेहँ साधु समाज मुिन िमिथला धनी।
मन महुँ सराहत भरत भायप भगित की मिहमा घनी।।
भरतिह पसंसत िबबुध बरषत सुमन मानस मिलन से।
तुलसी िबकल सब लोग सुिन सकुचे िनसागम निलन से।।
सो0-देिख दुखारी दीन दुहु समाज नर नािर सब।
मघवा महा मलीन मुए मािर मंगल चहत।।301।।
कपट कुचािल सीवँ सुरराजू। पर अकाज िपय आपन काजू।।
काक समान पाकिरपु रीती। छली मलीन कतहुँ न पतीती।।
पथम कुमत किर कपटु सँकेला। सो उचाटु सब के िसर मेला।।
सुरमाया सब लोग िबमोहे। राम पेम अितसय न िबछोहे।।
भय उचाट बस मन िथर नाही। छन बन रिच छन सदन सोहाही।।
दुिबध मनोगित पजा दुखारी। सिरत िसंधु संगम जनु बारी।।
दुिचत कतहुँ पिरतोषु न लहही। एक एक सन मरमु न कहही।।
लिख िहयँ हँिस कह कृपािनधानू। सिरस सवान मघवान जुबानू।।
दो0-भरतु जनकु मुिनजन सिचव साधु सचेत िबहाइ।
लािग देवमाया सबिह जथाजोगु जनु पाइ।।302।।
–*–*–
कृपािसंधु लिख लोग दुखारे। िनज सनेहँ सुरपित छल भारे।।
सभा राउ गुर मिहसुर मंती। भरत भगित सब कै मित जंती।।
रामिह िचतवत िचत िलखे से। सकुचत बोलत बचन िसखे से।।
भरत पीित नित िबनय बड़ाई। सुनत सुखद बरनत किठनाई।।
जासु िबलोिक भगित लवलेसू। पेम मगन मुिनगन िमिथलेसू।।
मिहमा तासु कहै िकिम तुलसी। भगित सुभायँ सुमित िहयँ हुलसी।।
आपु छोिट मिहमा बिड़ जानी। किबकुल कािन मािन सकुचानी।।
किह न सकित गुन रिच अिधकाई। मित गित बाल बचन की नाई।।
दो0-भरत िबमल जसु िबमल िबधु सुमित चकोरकुमािर।
उिदत िबमल जन हृदय नभ एकटक रही िनहािर।।303।।
–*–*–
भरत सुभाउ न सुगम िनगमहूँ। लघु मित चापलता किब छमहूँ।।
कहत सुनत सित भाउ भरत को। सीय राम पद होइ न रत को।।
सुिमरत भरतिह पेमु राम को। जेिह न सुलभ तेिह सिरस बाम को।।
देिख दयाल दसा सबही की। राम सुजान जािन जन जी की।।
धरम धुरीन धीर नय नागर। सतय सनेह सील सुख सागर।।
देसु काल लिख समउ समाजू। नीित पीित पालक रघुराजू।।
बोले बचन बािन सरबसु से। िहत पिरनाम सुनत सिस रसु से।।
तात भरत तुमह धरम धुरीना। लोक बेद िबद पेम पबीना।।
दो0-करम बचन मानस िबमल तुमह समान तुमह तात।
गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ िकिम किह जात।।304।।
–*–*–
जानहु तात तरिन कुल रीती। सतयसंध िपतु कीरित पीती।।
समउ समाजु लाज गुरजन की। उदासीन िहत अनिहत मन की।।
तुमहिह िबिदत सबही कर करमू। आपन मोर परम िहत धरमू।।
मोिह सब भाित भरोस तुमहारा। तदिप कहउँ अवसर अनुसारा।।
तात तात िबनु बात हमारी। केवल गुरकुल कृपा सँभारी।।
नतर पजा पिरजन पिरवार। हमिह सिहत सबु होत खुआर।।
जौ िबनु अवसर अथवँ िदनेसू। जग केिह कहहु न होइ कलेसू।।
तस उतपातु तात िबिध कीनहा। मुिन िमिथलेस रािख सबु लीनहा।।
दो0-राज काज सब लाज पित धरम धरिन धन धाम।
गुर पभाउ पािलिह सबिह भल होइिह पिरनाम।।305।।
–*–*–
सिहत समाज तुमहार हमारा। घर बन गुर पसाद रखवारा।।
मातु िपता गुर सवािम िनदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू।।
सो तुमह करहु करावहु मोहू। तात तरिनकुल पालक होहू।।
साधक एक सकल िसिध देनी। कीरित सुगित भूितमय बेनी।।
सो िबचािर सिह संकटु भारी। करहु पजा पिरवार सुखारी।।
बाटी िबपित सबिहं मोिह भाई। तुमहिह अविध भिर बिड़ किठनाई।।
जािन तुमहिह मृदु कहउँ कठोरा। कुसमयँ तात न अनुिचत मोरा।।
होिहं कुठायँ सुबध
ं ु सुहाए। ओिड़अिहं हाथ असिनहु के घाए।।
दो0-सेवक कर पद नयन से मुख सो सािहबु होइ।
तुलसी पीित िक रीित सुिन सुकिब सराहिहं सोइ।।306।।
–*–*–
सभा सकल सुिन रघुबर बानी। पेम पयोिध अिमअ जनु सानी।।
िसिथल समाज सनेह समाधी। देिख दसा चुप सारद साधी।।
भरतिह भयउ परम संतोषू। सनमुख सवािम िबमुख दुख दोषू।।
मुख पसन मन िमटा िबषादू। भा जनु गूँगेिह िगरा पसादू।।
कीनह सपेम पनामु बहोरी। बोले पािन पंकरह जोरी।।
नाथ भयउ सुखु साथ गए को। लहेउँ लाहु जग जनमु भए को।।
अब कृपाल जस आयसु होई। करौ सीस धिर सादर सोई।।
सो अवलंब देव मोिह देई। अविध पार पावौ जेिह सेई।।
दो0-देव देव अिभषेक िहत गुर अनुसासनु पाइ।
आनेउँ सब तीरथ सिललु तेिह कहँ काह रजाइ।।307।।
–*–*–
एकु मनोरथु बड़ मन माही। सभयँ सकोच जात किह नाही।।
कहहु तात पभु आयसु पाई। बोले बािन सनेह सुहाई।।
िचतकूट सुिच थल तीरथ बन। खग मृग सर सिर िनझरर िगिरगन।।
पभु पद अंिकत अविन िबसेषी। आयसु होइ त आवौ देखी।।
अविस अित आयसु िसर धरहू। तात िबगतभय कानन चरहू।।
मुिन पसाद बनु मंगल दाता। पावन परम सुहावन भाता।।
िरिषनायकु जहँ आयसु देही। राखेहु तीरथ जलु थल तेही।।
सुिन पभु बचन भरत सुख पावा। मुिन पद कमल मुिदत िसर नावा।।
दो0-भरत राम संबादु सुिन सकल सुमंगल मूल।
सुर सवारथी सरािह कुल बरषत सुरतर फूल।।308।।
–*–*–
धनय भरत जय राम गोसाई। कहत देव हरषत बिरआई।
मुिन िमिथलेस सभा सब काहू। भरत बचन सुिन भयउ उछाहू।।
भरत राम गुन गाम सनेहू। पुलिक पसंसत राउ िबदेहू।।
सेवक सवािम सुभाउ सुहावन। नेमु पेमु अित पावन पावन।।
मित अनुसार सराहन लागे। सिचव सभासद सब अनुरागे।।
सुिन सुिन राम भरत संबादू। दुहु समाज िहयँ हरषु िबषादू।।
राम मातु दुखु सुखु सम जानी। किह गुन राम पबोधी रानी।।
एक कहिहं रघुबीर बड़ाई। एक सराहत भरत भलाई।।
दो0-अित कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप।
रािखअ तीरथ तोय तहँ पावन अिमअ अनूप।।309।।
–*–*–
भरत अित अनुसासन पाई। जल भाजन सब िदए चलाई।।
सानुज आपु अित मुिन साधू। सिहत गए जहँ कूप अगाधू।।
पावन पाथ पुनयथल राखा। पमुिदत पेम अित अस भाषा।।
तात अनािद िसद थल एहू। लोपेउ काल िबिदत निहं केहू।।
तब सेवकनह सरस थलु देखा। िकनह सुजल िहत कूप िबसेषा।।
िबिध बस भयउ िबसव उपकार। सुगम अगम अित धरम िबचार।।
भरतकूप अब किहहिहं लोगा। अित पावन तीरथ जल जोगा।।
पेम सनेम िनमजजत पानी। होइहिहं िबमल करम मन बानी।।
दो0-कहत कूप मिहमा सकल गए जहा रघुराउ।
अित सुनायउ रघुबरिह तीरथ पुनय पभाउ।।310।।
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कहत धरम इितहास सपीती। भयउ भोर िनिस सो सुख बीती।।
िनतय िनबािह भरत दोउ भाई। राम अित गुर आयसु पाई।।
सिहत समाज साज सब सादे। चले राम बन अटन पयादे।।
कोमल चरन चलत िबनु पनही। भइ मृदु भूिम सकुिच मन मनही।।
कुस कंटक काकरी कुराई। कटुक कठोर कुबसतु दुराई।।
मिह मंजुल मृदु मारग कीनहे। बहत समीर ितिबध सुख लीनहे।।
सुमन बरिष सुर घन किर छाही। िबटप फूिल फिल तृन मृदुताही।।
मृग िबलोिक खग बोिल सुबानी। सेविहं सकल राम िपय जानी।।
दो0-सुलभ िसिद सब पाकृतहु राम कहत जमुहात।
राम पान िपय भरत कहुँ यह न होइ बिड़ बात।।311।।
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एिह िबिध भरतु िफरत बन माही। नेमु पेमु लिख मुिन सकुचाही।।
पुनय जलाशय भूिम िबभागा। खग मृग तर तृन िगिर बन बागा।।
चार िबिचत पिबत िबसेषी। बूझत भरतु िदबय सब देखी।।
सुिन मन मुिदत कहत िरिषराऊ। हेतु नाम गुन पुनय पभाऊ।।
कतहुँ िनमजजन कतहुँ पनामा। कतहुँ िबलोकत मन अिभरामा।।
कतहुँ बैिठ मुिन आयसु पाई। सुिमरत सीय सिहत दोउ भाई।।
देिख सुभाउ सनेहु सुसेवा। देिहं असीस मुिदत बनदेवा।।
िफरिहं गएँ िदनु पहर अढ़ाई। पभु पद कमल िबलोकिहं आई।।
दो0-देखे थल तीरथ सकल भरत पाच िदन माझ।
कहत सुनत हिर हर सुजसु गयउ िदवसु भइ साझ।।312।।
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भोर नहाइ सबु जुरा समाजू। भरत भूिमसुर तेरहुित राजू।।
भल िदन आजु जािन मन माही। रामु कृपाल कहत सकुचाही।।
गुर नृप भरत सभा अवलोकी। सकुिच राम िफिर अविन िबलोकी।।
सील सरािह सभा सब सोची। कहुँ न राम सम सवािम सँकोची।।
भरत सुजान राम रख देखी। उिठ सपेम धिर धीर िबसेषी।।
किर दंडवत कहत कर जोरी। राखी नाथ सकल रिच मोरी।।
मोिह लिग सहेउ सबिहं संतापू। बहुत भाित दुखु पावा आपू।।
अब गोसाइँ मोिह देउ रजाई। सेवौ अवध अविध भिर जाई।।
दो0-जेिहं उपाय पुिन पाय जनु देखै दीनदयाल।
सो िसख देइअ अविध लिग कोसलपाल कृपाल।।313।।
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पुरजन पिरजन पजा गोसाई। सब सुिच सरस सनेहँ सगाई।।
राउर बिद भल भव दुख दाह। ू पभु िबनु बािद परम पद लाह। ू ।
सवािम सुजानु जािन सब ही की। रिच लालसा रहिन जन जी की।।
पनतपालु पािलिह सब काह। ू देउ दुहू िदिस ओर िनबाह। ू ।
अस मोिह सब िबिध भूिर भरोसो। िकएँ िबचार न सोचु खरो सो।।
आरित मोर नाथ कर छोह। ू दुहुँ िमिल कीनह ढीठु हिठ मोह।
ू ।
यह बड़ दोषु दूिर किर सवामी। तिज सकोच िसखइअ अनुगामी।।
भरत िबनय सुिन सबिहं पसंसी। खीर नीर िबबरन गित हंसी।।
दो0-दीनबंधु सुिन बंधु के बचन दीन छलहीन।
देस काल अवसर सिरस बोले रामु पबीन।।314।।
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तात तुमहािर मोिर पिरजन की। िचंता गुरिह नृपिह घर बन की।।
माथे पर गुर मुिन िमिथलेसू। हमिह तुमहिह सपनेहुँ न कलेसू।।
मोर तुमहार परम पुरषारथु। सवारथु सुजसु धरमु परमारथु।।
िपतु आयसु पािलिहं दुहु भाई। लोक बेद भल भूप भलाई।।
गुर िपतु मातु सवािम िसख पाले। चलेहुँ कुमग पग परिहं न खाले।।
अस िबचािर सब सोच िबहाई। पालहु अवध अविध भिर जाई।।
देसु कोसु पिरजन पिरवार। गुर पद रजिहं लाग छरभार।।
तुमह मुिन मातु सिचव िसख मानी। पालेहु पुहुिम पजा रजधानी।।
दो0-मुिखआ मुखु सो चािहऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सिहत िबबेक।।315।।
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राजधरम सरबसु एतनोई। िजिम मन माहँ मनोरथ गोई।।
बंधु पबोधु कीनह बहु भाती। िबनु अधार मन तोषु न साती।।
भरत सील गुर सिचव समाजू। सकुच सनेह िबबस रघुराजू।।
पभु किर कृपा पावरी दीनही। सादर भरत सीस धिर लीनही।।
चरनपीठ करनािनधान के। जनु जुग जािमक पजा पान के।।
संपुट भरत सनेह रतन के। आखर जुग जुन जीव जतन के।।
कुल कपाट कर कुसल करम के। िबमल नयन सेवा सुधरम के।।
भरत मुिदत अवलंब लहे ते। अस सुख जस िसय रामु रहे ते।।
दो0-मागेउ िबदा पनामु किर राम िलए उर लाइ।
लोग उचाटे अमरपित कुिटल कुअवसर पाइ।।316।।
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सो कुचािल सब कहँ भइ नीकी। अविध आस सम जीविन जी की।।
नतर लखन िसय सम िबयोगा। हहिर मरत सब लोग कुरोगा।।
रामकृपा अवरेब सुधारी। िबबुध धािर भइ गुनद गोहारी।।
भेटत भुज भिर भाइ भरत सो। राम पेम रसु किह न परत सो।।
तन मन बचन उमग अनुरागा। धीर धुरध ं र धीरजु तयागा।।
बािरज लोचन मोचत बारी। देिख दसा सुर सभा दुखारी।।
मुिनगन गुर धुर धीर जनक से। गयान अनल मन कसे कनक से।।
जे िबरंिच िनरलेप उपाए। पदुम पत िजिम जग जल जाए।।
दो0-तेउ िबलोिक रघुबर भरत पीित अनूप अपार।
भए मगन मन तन बचन सिहत िबराग िबचार।।317।।
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जहा जनक गुर मित भोरी। पाकृत पीित कहत बिड़ खोरी।।
बरनत रघुबर भरत िबयोगू। सुिन कठोर किब जािनिह लोगू।।
सो सकोच रसु अकथ सुबानी। समउ सनेहु सुिमिर सकुचानी।।
भेिट भरत रघुबर समुझाए। पुिन िरपुदवनु हरिष िहयँ लाए।।
सेवक सिचव भरत रख पाई। िनज िनज काज लगे सब जाई।।
सुिन दारन दुखु दुहँू समाजा। लगे चलन के साजन साजा।।
पभु पद पदुम बंिद दोउ भाई। चले सीस धिर राम रजाई।।
मुिन तापस बनदेव िनहोरी। सब सनमािन बहोिर बहोरी।।
दो0-लखनिह भेिट पनामु किर िसर धिर िसय पद धूिर।
चले सपेम असीस सुिन सकल सुमंगल मूिर।।318।।
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सानुज राम नृपिह िसर नाई। कीिनह बहुत िबिध िबनय बड़ाई।।
देव दया बस बड़ दुखु पायउ। सिहत समाज काननिहं आयउ।।
पुर पगु धािरअ देइ असीसा। कीनह धीर धिर गवनु महीसा।।
मुिन मिहदेव साधु सनमाने। िबदा िकए हिर हर सम जाने।।
सासु समीप गए दोउ भाई। िफरे बंिद पग आिसष पाई।।
कौिसक बामदेव जाबाली। पुरजन पिरजन सिचव सुचाली।।
जथा जोगु किर िबनय पनामा। िबदा िकए सब सानुज रामा।।
नािर पुरष लघु मधय बड़ेरे। सब सनमािन कृपािनिध फेरे।।
दो0-भरत मातु पद बंिद पभु सुिच सनेहँ िमिल भेिट।
िबदा कीनह सिज पालकी सकुच सोच सब मेिट।।319।।
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पिरजन मातु िपतिह िमिल सीता। िफरी पानिपय पेम पुनीता।।
किर पनामु भेटी सब सासू। पीित कहत किब िहयँ न हुलासू।।
सुिन िसख अिभमत आिसष पाई। रही सीय दुहु पीित समाई।।
रघुपित पटु पालकी मगाई। किर पबोधु सब मातु चढ़ाई।।
बार बार िहिल िमिल दुहु भाई। सम सनेहँ जननी पहुँचाई।।
सािज बािज गज बाहन नाना। भरत भूप दल कीनह पयाना।।
हृदयँ रामु िसय लखन समेता। चले जािहं सब लोग अचेता।।
बसह बािज गज पसु िहयँ हारे। चले जािहं परबस मन मारे।।
दो0-गुर गुरितय पद बंिद पभु सीता लखन समेत।
िफरे हरष िबसमय सिहत आए परन िनकेत।।320।।
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िबदा कीनह सनमािन िनषादू। चलेउ हृदयँ बड़ िबरह िबषादू।।
कोल िकरात िभलल बनचारी। फेरे िफरे जोहािर जोहारी।।
पभु िसय लखन बैिठ बट छाही। िपय पिरजन िबयोग िबलखाही।।
भरत सनेह सुभाउ सुबानी। िपया अनुज सन कहत बखानी।।
पीित पतीित बचन मन करनी। शीमुख राम पेम बस बरनी।।
तेिह अवसर खग मृग जल मीना। िचतकूट चर अचर मलीना।।
िबबुध िबलोिक दसा रघुबर की। बरिष सुमन किह गित घर घर की।।
पभु पनामु किर दीनह भरोसो। चले मुिदत मन डर न खरो सो।।
दो0-सानुज सीय समेत पभु राजत परन कुटीर।
भगित गयानु बैरागय जनु सोहत धरे सरीर।।321।।
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मुिन मिहसुर गुर भरत भुआलू। राम िबरहँ सबु साजु िबहालू।।
पभु गुन गाम गनत मन माही। सब चुपचाप चले मग जाही।।
जमुना उतिर पार सबु भयऊ। सो बासर िबनु भोजन गयऊ।।
उतिर देवसिर दूसर बासू। रामसखा सब कीनह सुपासू।।
सई उतिर गोमती नहाए। चौथे िदवस अवधपुर आए।
जनकु रहे पुर बासर चारी। राज काज सब साज सँभारी।।
सौिप सिचव गुर भरतिह राजू। तेरहुित चले सािज सबु साजू।।
नगर नािर नर गुर िसख मानी। बसे सुखेन राम रजधानी।।
दो0-राम दरस लिग लोग सब करत नेम उपबास।
तिज तिज भूषन भोग सुख िजअत अविध की आस।।322।।
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सिचव सुसेवक भरत पबोधे। िनज िनज काज पाइ पाइ िसख ओधे।।
पुिन िसख दीनह बोिल लघु भाई। सौपी सकल मातु सेवकाई।।
भूसुर बोिल भरत कर जोरे। किर पनाम बय िबनय िनहोरे।।
ऊँच नीच कारजु भल पोचू। आयसु देब न करब सँकोचू।।
पिरजन पुरजन पजा बोलाए। समाधानु किर सुबस बसाए।।
सानुज गे गुर गेहँ बहोरी। किर दंडवत कहत कर जोरी।।
आयसु होइ त रहौ सनेमा। बोले मुिन तन पुलिक सपेमा।।
समुझव कहब करब तुमह जोई। धरम सार जग होइिह सोई।।
दो0-सुिन िसख पाइ असीस बिड़ गनक बोिल िदनु सािध।
िसंघासन पभु पादुका बैठारे िनरपािध।।323।।
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राम मातु गुर पद िसर नाई। पभु पद पीठ रजायसु पाई।।
नंिदगावँ किर परन कुटीरा। कीनह िनवासु धरम धुर धीरा।।
जटाजूट िसर मुिनपट धारी। मिह खिन कुस साथरी सँवारी।।
असन बसन बासन बत नेमा। करत किठन िरिषधरम सपेमा।।
भूषन बसन भोग सुख भूरी। मन तन बचन तजे ितन तूरी।।
अवध राजु सुर राजु िसहाई। दसरथ धनु सुिन धनदु लजाई।।
तेिहं पुर बसत भरत िबनु रागा। चंचरीक िजिम चंपक बागा।।
रमा िबलासु राम अनुरागी। तजत बमन िजिम जन बड़भागी।।
दो0-राम पेम भाजन भरतु बड़े न एिहं करतूित।
चातक हंस सरािहअत टेक िबबेक िबभूित।।324।।
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देह िदनहुँ िदन दूबिर होई। घटइ तेजु बलु मुखछिब सोई।।
िनत नव राम पेम पनु पीना। बढ़त धरम दलु मनु न मलीना।।
िजिम जलु िनघटत सरद पकासे। िबलसत बेतस बनज िबकासे।।
सम दम संजम िनयम उपासा। नखत भरत िहय िबमल अकासा।।
धुव िबसवास अविध राका सी। सवािम सुरित सुरबीिथ िबकासी।।
राम पेम िबधु अचल अदोषा। सिहत समाज सोह िनत चोखा।।
भरत रहिन समुझिन करतूती। भगित िबरित गुन िबमल िबभूती।।
बरनत सकल सुकिच सकुचाही। सेस गनेस िगरा गमु नाही।।
दो0-िनत पूजत पभु पावरी पीित न हृदयँ समाित।।
मािग मािग आयसु करत राज काज बहु भाित।।325।।
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पुलक गात िहयँ िसय रघुबीर। जीह नामु जप लोचन नीर।।
लखन राम िसय कानन बसही। भरतु भवन बिस तप तनु कसही।।
दोउ िदिस समुिझ कहत सबु लोगू। सब िबिध भरत सराहन जोगू।।
सुिन बत नेम साधु सकुचाही। देिख दसा मुिनराज लजाही।।
परम पुनीत भरत आचरनू। मधुर मंजु मुद मंगल करनू।।
हरन किठन किल कलुष कलेसू। महामोह िनिस दलन िदनेसू।।
पाप पुंज कु ंजर मृगराजू। समन सकल संताप समाजू।
जन रंजन भंजन भव भार। राम सनेह सुधाकर सार।।
छं0-िसय राम पेम िपयूष पूरन होत जनमु न भरत को।
मुिन मन अगम जम िनयम सम दम िबषम बत आचरत को।।
दुख दाह दािरद दंभ दूषन सुजस िमस अपहरत को।
किलकाल तुलसी से सठिनह हिठ राम सनमुख करत को।।
सो0-भरत चिरत किर नेमु तुलसी जो सादर सुनिहं।
सीय राम पद पेमु अविस होइ भव रस िबरित।।326।।
मासपारायण, इकीसवा िवशाम
इित शीमदामचिरतमानसे सकलकिलकलुषिवधवंसने
िदतीयः सोपानः समापतः।
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(अयोधयाकाणड समापत)
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