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शीगणेशायनमः
शीजानकीवललभो िवजयते
शीरामचिरतमानस
िदतीय सोपान
अयोधया-काणड
शलोक
यसयाङे च िवभाित भूधरसुता देवापगा मसतके
भाले बालिवधुगरले च गरलं यसयोरिस वयालराट्।
सोऽयं भूितिवभूषणः सुरवरः सवािधपः सवरदा
शवरः सवरगतः िशवः शिशिनभः शीशङरः पातु माम्।।1।।
पसनता या न गतािभषेकतसतथा न ममले वनवासदुःखतः।
मुखामबुजशी रघुननदनसय मे सदासतु सा मञुलमंगलपदा।।2।।
नीलामबुजशयामलकोमलाङं सीतासमारोिपतवामभागम्।
पाणौ महासायकचारचापं नमािम रामं रघुवशं नाथम्।।3।।
दो0-शीगुर चरन सरोज रज िनज मनु मुकुर सुधािर।
बरनउँ रघुबर िबमल जसु जो दायकु फल चािर।।
जब ते रामु बयािह घर आए। िनत नव मंगल मोद बधाए।।
भुवन चािरदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषिह सुख बारी।।
िरिध िसिध संपित नदी सुहाई। उमिग अवध अंबुिध कहुँ आई।।
मिनगन पुर नर नािर सुजाती। सुिच अमोल सुंदर सब भाती।।
किह न जाइ कछु नगर िबभूती। जनु एतिनअ िबरंिच करतूती।।
सब िबिध सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु िनहारी।।
मुिदत मातु सब सखी सहेली। फिलत िबलोिक मनोरथ बेली।।
राम रपु गुनसीलु सुभाऊ। पमुिदत होइ देिख सुिन राऊ।।
दो0-सब के उर अिभलाषु अस कहिहं मनाइ महेसु।
आप अछत जुबराज पद रामिह देउ नरेसु।।1।।
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एक समय सब सिहत समाजा। राजसभा रघुराजु िबराजा।।
सकल सुकृत मूरित नरनाहू। राम सुजसु सुिन अितिह उछाहू।।
नृप सब रहिहं कृपा अिभलाषे। लोकप करिहं पीित रख राखे।।
ितभुवन तीिन काल जग माही। भूिर भाग दसरथ सम नाही।।
मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु किहज थोर सबु तासू।।
रायँ सुभायँ मुकुर कर लीनहा। बदनु िबलोिक मुकुट सम कीनहा।।
शवन समीप भए िसत केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा।।
नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु िकन लेहू।।
दो0-यह िबचार उर आिन नृप सुिदनु सुअवसर पाइ।
पेम पुलिक तन मुिदत मन गुरिह सुनायउ जाइ।।2।।
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कहइ भुआलु सुिनअ मुिननायक। भए राम सब िबिध सब लायक।।
सेवक सिचव सकल पुरबासी। जे हमारे अिर िमत उदासी।।
सबिह रामु िपय जेिह िबिध मोही। पभु असीस जनु तनु धिर सोही।।
िबप सिहत पिरवार गोसाई। करिहं छोहु सब रौिरिह नाई।।
जे गुर चरन रेनु िसर धरही। ते जनु सकल िबभव बस करही।।
मोिह सम यहु अनुभयउ न दूजे। सबु पायउँ रज पाविन पूजे।।
अब अिभलाषु एकु मन मोरे। पूजिह नाथ अनुगह तोरे।।
मुिन पसन लिख सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू।।
दो0-राजन राउर नामु जसु सब अिभमत दातार।
फल अनुगामी मिहप मिन मन अिभलाषु तुमहार।।3।।
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सब िबिध गुर पसन िजयँ जानी। बोलेउ राउ रहँिस मृदु बानी।।
नाथ रामु किरअिहं जुबराजू। किहअ कृपा किर किरअ समाजू।।
मोिह अछत यहु होइ उछाहू। लहिहं लोग सब लोचन लाहू।।
पभु पसाद िसव सबइ िनबाही। यह लालसा एक मन माही।।
पुिन न सोच तनु रहउ िक जाऊ। जेिहं न होइ पाछे पिछताऊ।।
सुिन मुिन दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए।।
सुनु नृप जासु िबमुख पिछताही। जासु भजन िबनु जरिन न जाही।।
भयउ तुमहार तनय सोइ सवामी। रामु पुनीत पेम अनुगामी।।
दो0-बेिग िबलंबु न किरअ नृप सािजअ सबुइ समाजु।
सुिदन सुमग ं लु तबिहं जब रामु होिहं जुबराजु।।4।।
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मुिदत मिहपित मंिदर आए। सेवक सिचव सुमंतु बोलाए।।
किह जयजीव सीस ितनह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए।।
जौ पाचिह मत लागै नीका। करहु हरिष िहयँ रामिह टीका।।
मंती मुिदत सुनत िपय बानी। अिभमत िबरवँ परेउ जनु पानी।।
िबनती सिचव करिह कर जोरी। िजअहु जगतपित बिरस करोरी।।
जग मंगल भल काजु िबचारा। बेिगअ नाथ न लाइअ बारा।।
नृपिह मोदु सुिन सिचव सुभाषा। बढ़त बौड़ जनु लही सुसाखा।।
दो0-कहेउ भूप मुिनराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।
राम राज अिभषेक िहत बेिग करहु सोइ सोइ।।5।।
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हरिष मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी।।
औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गिन मंगल नाना।।
चामर चरम बसन बहु भाती। रोम पाट पट अगिनत जाती।।
मिनगन मंगल बसतु अनेका। जो जग जोगु भूप अिभषेका।।
बेद िबिदत किह सकल िबधाना। कहेउ रचहु पुर िबिबध िबताना।।
सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीिथनह पुर चहुँ फेरा।।
रचहु मंजु मिन चौके चार। कहहु बनावन बेिग बजार।।
पूजहु गनपित गुर कुलदेवा। सब िबिध करहु भूिमसुर सेवा।।
दो0-धवज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।
िसर धिर मुिनबर बचन सबु िनज िनज काजिहं लाग।।6।।
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जो मुनीस जेिह आयसु दीनहा। सो तेिहं काजु पथम जनु कीनहा।।
िबप साधु सुर पूजत राजा। करत राम िहत मंगल काजा।।
सुनत राम अिभषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा।।
राम सीय तन सगुन जनाए। फरकिहं मंगल अंग सुहाए।।
पुलिक सपेम परसपर कहही। भरत आगमनु सूचक अहही।।
भए बहुत िदन अित अवसेरी। सगुन पतीित भेट िपय केरी।।
भरत सिरस िपय को जग माही। इहइ सगुन फलु दूसर नाही।।
रामिह बंधु सोच िदन राती। अंडिनह कमठ हदउ जेिह भाती।।
दो0-एिह अवसर मंगलु परम सुिन रहँसेउ रिनवासु।
सोभत लिख िबधु बढ़त जनु बािरिध बीिच िबलासु।।7।।
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पथम जाइ िजनह बचन सुनाए। भूषन बसन भूिर ितनह पाए।।
पेम पुलिक तन मन अनुरागी। मंगल कलस सजन सब लागी।।
चौके चार सुिमता पुरी। मिनमय िबिबध भाित अित ररी।।
आनँद मगन राम महतारी। िदए दान बहु िबप हँकारी।।
पूजी गामदेिब सुर नागा। कहेउ बहोिर देन बिलभागा।।
जेिह िबिध होइ राम कलयानू। देहु दया किर सो बरदानू।।
गाविहं मंगल कोिकलबयनी। िबधुबदनी मृगसावकनयनी।।
दो0-राम राज अिभषेकु सुिन िहयँ हरषे नर नािर।
लगे सुमंगल सजन सब िबिध अनुकूल िबचािर।।8।।
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तब नरनाहँ बिसषु बोलाए। रामधाम िसख देन पठाए।।
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। दार आइ पद नायउ माथा।।
सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाित पूिज सनमाने।।
गहे चरन िसय सिहत बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी।।
सेवक सदन सवािम आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू।।
तदिप उिचत जनु बोिल सपीती। पठइअ काज नाथ अिस नीती।।
पभुता तिज पभु कीनह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू।।
आयसु होइ सो करौ गोसाई। सेवक लहइ सवािम सेवकाई।।
दो0-सुिन सनेह साने बचन मुिन रघुबरिह पसंस।
राम कस न तुमह कहहु अस हंस बंस अवतंस।।9।।
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बरिन राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले पेम पुलिक मुिनराऊ।।
भूप सजेउ अिभषेक समाजू। चाहत देन तुमहिह जुबराजू।।
राम करहु सब संजम आजू। जौ िबिध कुसल िनबाहै काजू।।
गुर िसख देइ राय पिहं गयउ। राम हृदयँ अस िबसमउ भयऊ।।
जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केिल लिरकाई।।
करनबेध उपबीत िबआहा। संग संग सब भए उछाहा।।
िबमल बंस यहु अनुिचत एकू। बंधु िबहाइ बड़ेिह अिभषेकू।।
पभु सपेम पिछतािन सुहाई। हरउ भगत मन कै कुिटलाई।।
दो0-तेिह अवसर आए लखन मगन पेम आनंद।
सनमाने िपय बचन किह रघुकुल कैरव चंद।।10।।
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बाजिहं बाजने िबिबध िबधाना। पुर पमोदु निहं जाइ बखाना।।
भरत आगमनु सकल मनाविहं। आवहुँ बेिग नयन फलु पाविहं।।
हाट बाट घर गली अथाई। कहिहं परसपर लोग लोगाई।।
कािल लगन भिल केितक बारा। पूिजिह िबिध अिभलाषु हमारा।।
कनक िसंघासन सीय समेता। बैठिहं रामु होइ िचत चेता।।
सकल कहिहं कब होइिह काली। िबघन मनाविहं देव कुचाली।।
ितनहिह सोहाइ न अवध बधावा। चोरिह चंिदिन राित न भावा।।
सारद बोिल िबनय सुर करही। बारिहं बार पाय लै परही।।
दो0-िबपित हमािर िबलोिक बिड़ मातु किरअ सोइ आजु।
रामु जािहं बन राजु तिज होइ सकल सुरकाजु।।11।।
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सुिन सुर िबनय ठािढ़ पिछताती। भइउँ सरोज िबिपन िहमराती।।
देिख देव पुिन कहिहं िनहोरी। मातु तोिह निहं थोिरउ खोरी।।
िबसमय हरष रिहत रघुराऊ। तुमह जानहु सब राम पभाऊ।।
जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव िहत लागी।।
बार बार गिह चरन सँकोचौ। चली िबचािर िबबुध मित पोची।।
ऊँच िनवासु नीिच करतूती। देिख न सकिहं पराइ िबभूती।।
आिगल काजु िबचािर बहोरी। करहिहं चाह कुसल किब मोरी।।
हरिष हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु गह दसा दुसह दुखदाई।।
दो0-नामु मंथरा मंदमित चेरी कैकेइ केिर।
अजस पेटारी तािह किर गई िगरा मित फेिर।।12।।
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दीख मंथरा नगर बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा।।
पूछेिस लोगनह काह उछाहू। राम ितलकु सुिन भा उर दाहू।।
करइ िबचार कुबुिद कुजाती। होइ अकाजु कविन िबिध राती।।
देिख लािग मधु कुिटल िकराती। िजिम गवँ तकइ लेउँ केिह भाती।।
भरत मातु पिहं गइ िबलखानी। का अनमिन हिस कह हँिस रानी।।
ऊतर देइ न लेइ उसासू। नािर चिरत किर ढारइ आँसू।।
हँिस कह रािन गालु बड़ तोरे। दीनह लखन िसख अस मन मोरे।।
तबहुँ न बोल चेिर बिड़ पािपिन। छाड़इ सवास कािर जनु सािपिन।।
दो0-सभय रािन कह कहिस िकन कुसल रामु मिहपालु।
लखनु भरतु िरपुदमनु सुिन भा कुबरी उर सालु।।13।।
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कत िसख देइ हमिह कोउ माई। गालु करब केिह कर बलु पाई।।
रामिह छािड़ कुसल केिह आजू। जेिह जनेसु देइ जुबराजू।।
भयउ कौिसलिह िबिध अित दािहन। देखत गरब रहत उर नािहन।।
देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोिक मोर मनु छोभा।।
पूतु िबदेस न सोचु तुमहारे। जानित हहु बस नाहु हमारे।।
नीद बहुत िपय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई।।
सुिन िपय बचन मिलन मनु जानी। झुकी रािन अब रहु अरगानी।।
पुिन अस कबहुँ कहिस घरफोरी। तब धिर जीभ कढ़ावउँ तोरी।।
दो0-काने खोरे कूबरे कुिटल कुचाली जािन।
ितय िबसेिष पुिन चेिर किह भरतमातु मुसुकािन।।14।।
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िपयबािदिन िसख दीिनहउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही।।
सुिदनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेिह िदन होई।।
जेठ सवािम सेवक लघु भाई। यह िदनकर कुल रीित सुहाई।।
राम ितलकु जौ साचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली।।
कौसलया सम सब महतारी। रामिह सहज सुभायँ िपआरी।।
मो पर करिहं सनेहु िबसेषी। मै किर पीित परीछा देखी।।
जौ िबिध जनमु देइ किर छोहू। होहुँ राम िसय पूत पुतोहू।।
पान ते अिधक रामु िपय मोरे। ितनह के ितलक छोभु कस तोरे।।
दो0-भरत सपथ तोिह सतय कहु पिरहिर कपट दुराउ।
हरष समय िबसमउ करिस कारन मोिह सुनाउ।।15।।
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एकिहं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ किर दूजी।।
फोरै जोगु कपार अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेिह लागा।।
कहिहं झूिठ फुिर बात बनाई। ते िपय तुमहिह करइ मै माई।।
हमहुँ कहिब अब ठकुरसोहाती। नािहं त मौन रहब िदनु राती।।
किर कुरप िबिध परबस कीनहा। बवा सो लुिनअ लिहअ जो दीनहा।।
कोउ नृप होउ हमिह का हानी। चेिर छािड़ अब होब िक रानी।।
जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देिख न जाइ तुमहारा।।
ताते कछुक बात अनुसारी। छिमअ देिब बिड़ चूक हमारी।।
दो0-गूढ़ कपट िपय बचन सुिन तीय अधरबुिध रािन।
सुरमाया बस बैिरिनिह सुहद जािन पितआिन।।16।।
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सादर पुिन पुिन पूँछित ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही।।
तिस मित िफरी अहइ जिस भाबी। रहसी चेिर घात जनु फाबी।।
तुमह पूँछहु मै कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ।।
सिज पतीित बहुिबिध गिढ़ छोली। अवध साढ़साती तब बोली।।
िपय िसय रामु कहा तुमह रानी। रामिह तुमह िपय सो फुिर बानी।।
रहा पथम अब ते िदन बीते। समउ िफरे िरपु होिहं िपंरीते।।
भानु कमल कुल पोषिनहारा। िबनु जल जािर करइ सोइ छारा।।
जिर तुमहािर चह सवित उखारी। रँधहु किर उपाउ बर बारी।।
दो0-तुमहिह न सोचु सोहाग बल िनज बस जानहु राउ।
मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ।।17।।
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चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ िनज बात सँवारी।।
पठए भरतु भूप निनअउरे। राम मातु मत जानव रउरे।।
सेविहं सकल सवित मोिह नीके। गरिबत भरत मातु बल पी के।।
सालु तुमहार कौिसलिह माई। कपट चतुर निहं होइ जनाई।।
राजिह तुमह पर पेमु िबसेषी। सवित सुभाउ सकइ निहं देखी।।
रची पंपचु भूपिह अपनाई। राम ितलक िहत लगन धराई।।
यह कुल उिचत राम कहुँ टीका। सबिह सोहाइ मोिह सुिठ नीका।।
आिगिल बात समुिझ डर मोही। देउ दैउ िफिर सो फलु ओही।।
दो0-रिच पिच कोिटक कुिटलपन कीनहेिस कपट पबोधु।।
किहिस कथा सत सवित कै जेिह िबिध बाढ़ िबरोधु।।18।।
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भावी बस पतीित उर आई। पूँछ रािन पुिन सपथ देवाई।।
का पूछहुँ तुमह अबहुँ न जाना। िनज िहत अनिहत पसु पिहचाना।।
भयउ पाखु िदन सजत समाजू। तुमह पाई सुिध मोिह सन आजू।।
खाइअ पिहिरअ राज तुमहारे। सतय कहे निहं दोषु हमारे।।
जौ असतय कछु कहब बनाई। तौ िबिध देइिह हमिह सजाई।।
रामिह ितलक कािल जौ भयऊ।þ तुमह कहुँ िबपित बीजु िबिध बयऊ।।
रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भािमिन भइहु दूध कइ माखी।।
जौ सुत सिहत करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई।।
दो0-कदूँ िबनतिह दीनह दुखु तुमहिह कौिसला देब।
भरतु बंिदगृह सेइहिहं लखनु राम के नेब।।19।।
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कैकयसुता सुनत कटु बानी। किह न सकइ कछु सहिम सुखानी।।
तन पसेउ कदली िजिम कापी। कुबरी दसन जीभ तब चापी।।
किह किह कोिटक कपट कहानी। धीरजु धरहु पबोिधिस रानी।।
िफरा करमु िपय लािग कुचाली। बिकिह सराहइ मािन मराली।।
सुनु मंथरा बात फुिर तोरी। दिहिन आँिख िनत फरकइ मोरी।।
िदन पित देखउँ राित कुसपने। कहउँ न तोिह मोह बस अपने।।
काह करौ सिख सूध सुभाऊ। दािहन बाम न जानउँ काऊ।।
दो0-अपने चलत न आजु लिग अनभल काहुक कीनह।
केिहं अघ एकिह बार मोिह दैअँ दुसह दुखु दीनह।।20।।
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नैहर जनमु भरब बर जाइ। िजअत न करिब सवित सेवकाई।।
अिर बस दैउ िजआवत जाही। मरनु नीक तेिह जीवन चाही।।
दीन बचन कह बहुिबिध रानी। सुिन कुबरी ितयमाया ठानी।।
अस कस कहहु मािन मन ऊना। सुखु सोहागु तुमह कहुँ िदन दूना।।
जेिहं राउर अित अनभल ताका। सोइ पाइिह यहु फलु पिरपाका।।
जब ते कुमत सुना मै सवािमिन। भूख न बासर नीद न जािमिन।।
पूँछेउ गुिननह रेख ितनह खाची। भरत भुआल होिहं यह साची।।
भािमिन करहु त कहौ उपाऊ। है तुमहरी सेवा बस राऊ।।
दो0-परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पित तयािग।
कहिस मोर दुखु देिख बड़ कस न करब िहत लािग।।21।।
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कुबरी किर कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई।।
लखइ न रािन िनकट दुखु कैसे। चरइ हिरत ितन बिलपसु जैसे।।
सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देित मनहुँ मधु माहुर घोरी।।
कहइ चेिर सुिध अहइ िक नाही। सवािमिन किहहु कथा मोिह पाही।।
दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती।।
सुतिह राजु रामिह बनवासू। देहु लेहु सब सवित हुलासु।।
भूपित राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेिहं बचनु न टरई।।
होइ अकाजु आजु िनिस बीते। बचनु मोर िपय मानेहु जी ते।।
दो0-बड़ कुघातु किर पातिकिन कहेिस कोपगृहँ जाहु।
काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जिन पितआहु।।22।।
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कुबिरिह रािन पानिपय जानी। बार बार बिड़ बुिद बखानी।।
तोिह सम िहत न मोर संसारा। बहे जात कइ भइिस अधारा।।
जौ िबिध पुरब मनोरथु काली। करौ तोिह चख पूतिर आली।।
बहुिबिध चेिरिह आदर देई। कोपभवन गविन कैकेई।।
िबपित बीजु बरषा िरतु चेरी। भुइँ भइ कुमित कैकेई केरी।।
पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल पिरनामा।।
कोप समाजु सािज सबु सोई। राजु करत िनज कुमित िबगोई।।
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचािल कछु जान न कोई।।
दो0-पमुिदत पुर नर नािर। सब सजिहं सुमंगलचार।
एक पिबसिहं एक िनगरमिहं भीर भूप दरबार।।23।।
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बाल सखा सुन िहयँ हरषाही। िमिल दस पाच राम पिहं जाही।।
पभु आदरिहं पेमु पिहचानी। पूँछिहं कुसल खेम मृदु बानी।।
िफरिहं भवन िपय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई।।
को रघुबीर सिरस संसारा। सीलु सनेह िनबाहिनहारा।
जेिह जेिह जोिन करम बस भमही। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमही।।
सेवक हम सवामी िसयनाहू। होउ नात यह ओर िनबाहू।।
अस अिभलाषु नगर सब काह। ू कैकयसुता हदयँ अित दाह। ू ।
को न कुसंगित पाइ नसाई। रहइ न नीच मते चतुराई।।
दो0-सास समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ।
गवनु िनठुरता िनकट िकय जनु धिर देह सनेहँ।।24।।
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कोपभवन सुिन सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ।।
सुरपित बसइ बाहँबल जाके। नरपित सकल रहिहं रख ताके।।
सो सुिन ितय िरस गयउ सुखाई। देखहु काम पताप बड़ाई।।
सूल कुिलस अिस अँगविनहारे। ते रितनाथ सुमन सर मारे।।
सभय नरेसु िपया पिहं गयऊ। देिख दसा दुखु दारन भयऊ।।
भूिम सयन पटु मोट पुराना। िदए डािर तन भूषण नाना।।
कुमितिह किस कुबेषता फाबी। अन अिहवातु सूच जनु भाबी।।
जाइ िनकट नृपु कह मृदु बानी। पानिपया केिह हेतु िरसानी।।
छं0-केिह हेतु रािन िरसािन परसत पािन पितिह नेवारई।
मानहुँ सरोष भुअग ं भािमिन िबषम भाित िनहारई।।
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहर देखई।
तुलसी नृपित भवतबयता बस काम कौतुक लेखई।।
सो0-बार बार कह राउ सुमुिख सुलोिचिन िपकबचिन।
कारन मोिह सुनाउ गजगािमिन िनज कोप कर।।25।।
अनिहत तोर िपया केइँ कीनहा। केिह दुइ िसर केिह जमु चह लीनहा।।
कहु केिह रंकिह करौ नरेसू। कहु केिह नृपिह िनकासौ देसू।।
सकउँ तोर अिर अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी।।
जानिस मोर सुभाउ बरोर। मनु तव आनन चंद चकोर।।
िपया पान सुत सरबसु मोरे। पिरजन पजा सकल बस तोरे।।
जौ कछु कहौ कपटु किर तोही। भािमिन राम सपथ सत मोही।।
िबहिस मागु मनभावित बाता। भूषन सजिह मनोहर गाता।।
घरी कुघरी समुिझ िजयँ देखू। बेिग िपया पिरहरिह कुबेषू।।
दो0-यह सुिन मन गुिन सपथ बिड़ िबहिस उठी मितमंद।
भूषन सजित िबलोिक मृगु मनहँु िकराितिन फंद।।26।।
–*–*–
पुिन कह राउ सुहद िजयँ जानी। पेम पुलिक मृदु मंजुल बानी।।
भािमिन भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा।।
रामिह देउँ कािल जुबराजू। सजिह सुलोचिन मंगल साजू।।
दलिक उठेउ सुिन हदउ कठोर। जनु छुइ गयउ पाक बरतोर।।
ऐिसउ पीर िबहिस तेिह गोई। चोर नािर िजिम पगिट न रोई।।
लखिहं न भूप कपट चतुराई। कोिट कुिटल मिन गुर पढ़ाई।।
जदिप नीित िनपुन नरनाह। ू नािरचिरत जलिनिध अवगाह। ू ।
कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली िबहिस नयन मुहु मोरी।।
दो0-मागु मागु पै कहहु िपय कबहँु न देहु न लेहु।
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु।।27।।
–*–*–
जानेउँ मरमु राउ हँिस कहई। तुमहिह कोहाब परम िपय अहई।।
थाित रािख न मािगहु काऊ। िबसिर गयउ मोिह भोर सुभाऊ।।
झूठेहुँ हमिह दोषु जिन देहू। दुइ कै चािर मािग मकु लेहू।।
रघुकुल रीित सदा चिल आई। पान जाहुँ बर बचनु न जाई।।
निहं असतय सम पातक पुंजा। िगिर सम होिहं िक कोिटक गुज ं ा।।
सतयमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान िबिदत मनु गाए।।
तेिह पर राम सपथ किर आई। सुकृत सनेह अविध रघुराई।।
बात दृढ़ाइ कुमित हँिस बोली। कुमत कुिबहग कुलह जनु खोली।।
दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुिबहंग समाजु।
िभललिन िजिम छाड़न चहित बचनु भयंकर बाजु।।28।।
मासपारायण, तेरहवा िवशाम
–*–*–
सुनहु पानिपय भावत जी का। देहु एक बर भरतिह टीका।।
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।।
तापस बेष िबसेिष उदासी। चौदह बिरस रामु बनबासी।।
सुिन मृदु बचन भूप िहयँ सोकू। सिस कर छुअत िबकल िजिम कोकू।।
गयउ सहिम निहं कछु किह आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा।।
िबबरन भयउ िनपट नरपालू। दािमिन हनेउ मनहँु तर तालू।।
माथे हाथ मूिद दोउ लोचन। तनु धिर सोचु लाग जनु सोचन।।
मोर मनोरथु सुरतर फूला। फरत किरिन िजिम हतेउ समूला।।
अवध उजािर कीिनह कैकेई। दीनहिस अचल िबपित कै नेई।।
दो0-कवने अवसर का भयउ गयउँ नािर िबसवास।
जोग िसिद फल समय िजिम जितिह अिबदा नास।।29।।
–*–*–
एिह िबिध राउ मनिहं मन झाखा। देिख कुभाित कुमित मन माखा।।
भरतु िक राउर पूत न होही। आनेहु मोल बेसािह िक मोही।।
जो सुिन सर अस लाग तुमहारे। काहे न बोलहु बचनु सँभारे।।
देहु उतर अनु करहु िक नाही। सतयसंध तुमह रघुकुल माही।।
देन कहेहु अब जिन बर देहू। तजहुँ सतय जग अपजसु लेहू।।
सतय सरािह कहेहु बर देना। जानेहु लेइिह मािग चबेना।।
िसिब दधीिच बिल जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा।।
अित कटु बचन कहित कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई।।
दो0-धरम धुरध ं र धीर धिर नयन उघारे रायँ।
िसर धुिन लीिनह उसास अिस मारेिस मोिह कुठायँ।।30।।
–*–*–
आगे दीिख जरत िरस भारी। मनहुँ रोष तरवािर उघारी।।
मूिठ कुबुिद धार िनठुराई। धरी कूबरी सान बनाई।।
लखी महीप कराल कठोरा। सतय िक जीवनु लेइिह मोरा।।
बोले राउ किठन किर छाती। बानी सिबनय तासु सोहाती।।
िपया बचन कस कहिस कुभाती। भीर पतीित पीित किर हाती।।
मोरे भरतु रामु दुइ आँखी। सतय कहउँ किर संकर साखी।।
अविस दूतु मै पठइब पाता। ऐहिहं बेिग सुनत दोउ भाता।।
सुिदन सोिध सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई।।
दो0- लोभु न रामिह राजु कर बहुत भरत पर पीित।
मै बड़ छोट िबचािर िजयँ करत रहेउँ नृपनीित।।31।।
–*–*–
राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ।।
मै सबु कीनह तोिह िबनु पूँछे। तेिह ते परेउ मनोरथु छू छे।।
िरस पिरहर अब मंगल साजू। कछु िदन गएँ भरत जुबराजू।।
एकिह बात मोिह दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा।।
अजहुँ हृदय जरत तेिह आँचा। िरस पिरहास िक साचेहुँ साचा।।
कहु तिज रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुिठ साधू।।
तुहूँ सराहिस करिस सनेहू। अब सुिन मोिह भयउ संदेहू।।
जासु सुभाउ अिरिह अनुकूला। सो िकिम किरिह मातु पितकूला।।
दो0- िपया हास िरस पिरहरिह मागु िबचािर िबबेकु।
जेिहं देखा अब नयन भिर भरत राज अिभषेकु।।32।।
–*–*–
िजऐ मीन बर बािर िबहीना। मिन िबनु फिनकु िजऐ दुख दीना।।
कहउँ सुभाउ न छलु मन माही। जीवनु मोर राम िबनु नाही।।
समुिझ देखु िजयँ िपया पबीना। जीवनु राम दरस आधीना।।
सुिन मदु बचन कुमित अित जरई। मनहुँ अनल आहुित घृत परई।।
कहइ करहु िकन कोिट उपाया। इहा न लािगिह राउिर माया।।
देहु िक लेहु अजसु किर नाही। मोिह न बहुत पपंच सोहाही।
रामु साधु तुमह साधु सयाने। राममातु भिल सब पिहचाने।।
जस कौिसला मोर भल ताका। तस फलु उनहिह देउँ किर साका।।
दो0-होत पात मुिनबेष धिर जौ न रामु बन जािहं।
मोर मरनु राउर अजस नृप समुिझअ मन मािहं।।33।।
–*–*–
अस किह कुिटल भई उिठ ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंिगिन बाढ़ी।।
पाप पहार पगट भइ सोई। भरी कोध जल जाइ न जोई।।
दोउ बर कूल किठन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन पचारा।।
ढाहत भूपरप तर मूला। चली िबपित बािरिध अनुकूला।।
लखी नरेस बात फुिर साची। ितय िमस मीचु सीस पर नाची।।
गिह पद िबनय कीनह बैठारी। जिन िदनकर कुल होिस कुठारी।।
मागु माथ अबही देउँ तोही। राम िबरहँ जिन मारिस मोही।।
राखु राम कहुँ जेिह तेिह भाती। नािहं त जिरिह जनम भिर छाती।।
दो0-देखी बयािध असाध नृपु परेउ धरिन धुिन माथ।
कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ।।34।।
–*–*–
बयाकुल राउ िसिथल सब गाता। किरिन कलपतर मनहुँ िनपाता।।
कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन िबनु पानी।।
पुिन कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई।।
जौ अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुमह केिहं बल कहेऊ।।
दुइ िक होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला।।
दािन कहाउब अर कृपनाई। होइ िक खेम कुसल रौताई।।
छाड़हु बचनु िक धीरजु धरहू। जिन अबला िजिम करना करहू।।
तनु ितय तनय धामु धनु धरनी। सतयसंध कहुँ तृन सम बरनी।।
दो0-मरम बचन सुिन राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।
लागेउ तोिह िपसाच िजिम कालु कहावत मोर।।35।।û
–*–*–
चहत न भरत भूपतिह भोरे। िबिध बस कुमित बसी िजय तोरे।।
सो सबु मोर पाप पिरनामू। भयउ कुठाहर जेिहं िबिध बामू।।
सुबस बिसिह िफिर अवध सुहाई। सब गुन धाम राम पभुताई।।
किरहिहं भाइ सकल सेवकाई। होइिह ितहुँ पुर राम बड़ाई।।
तोर कलंकु मोर पिछताऊ। मुएहुँ न िमटिह न जाइिह काऊ।।
अब तोिह नीक लाग कर सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई।।
जब लिग िजऔं कहउँ कर जोरी। तब लिग जिन कछु कहिस बहोरी।।
िफिर पिछतैहिस अंत अभागी। मारिस गाइ नहार लागी।।
दो0-परेउ राउ किह कोिट िबिध काहे करिस िनदानु।
कपट सयािन न कहित कछु जागित मनहुँ मसानु।।36।।
–*–*–
राम राम रट िबकल भुआलू। जनु िबनु पंख िबहंग बेहालू।।
हृदयँ मनाव भोर जिन होई। रामिह जाइ कहै जिन कोई।।
उदउ करहु जिन रिब रघुकुल गुर। अवध िबलोिक सूल होइिह उर।।
भूप पीित कैकइ किठनाई। उभय अविध िबिध रची बनाई।।
िबलपत नृपिह भयउ िभनुसारा। बीना बेनु संख धुिन दारा।।
पढ़िहं भाट गुन गाविहं गायक। सुनत नृपिह जनु लागिहं सायक।।
मंगल सकल सोहािहं न कैसे। सहगािमिनिह िबभूषन जैसे।।
तेिहं िनिस नीद परी निह काहू। राम दरस लालसा उछाहू।।
दो0-दार भीर सेवक सिचव कहिहं उिदत रिब देिख।
जागेउ अजहुँ न अवधपित कारनु कवनु िबसेिष।।37।।
–*–*–
पिछले पहर भूपु िनत जागा। आजु हमिह बड़ अचरजु लागा।।
जाहु सुमंत जगावहु जाई। कीिजअ काजु रजायसु पाई।।
गए सुमंतु तब राउर माही। देिख भयावन जात डेराही।।
धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ िबपित िबषाद बसेरा।।
पूछे कोउ न ऊतर देई। गए जेिहं भवन भूप कैकैई।।
किह जयजीव बैठ िसर नाई। दैिख भूप गित गयउ सुखाई।।
सोच िबकल िबबरन मिह परेऊ। मानहुँ कमल मूलु पिरहरेऊ।।
सिचउ सभीत सकइ निहं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छू छी।।
दो0-परी न राजिह नीद िनिस हेतु जान जगदीसु।
रामु रामु रिट भोर िकय कहइ न मरमु महीसु।।38।।
–*–*–
आनहु रामिह बेिग बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई।।
चलेउ सुमंत राय रख जानी। लखी कुचािल कीिनह कछु रानी।।
सोच िबकल मग परइ न पाऊ। रामिह बोिल किहिह का राऊ।।
उर धिर धीरजु गयउ दुआरे। पूछँिहं सकल देिख मनु मारे।।
समाधानु किर सो सबही का। गयउ जहा िदनकर कुल टीका।।
रामु सुमंतिह आवत देखा। आदर कीनह िपता सम लेखा।।
िनरिख बदनु किह भूप रजाई। रघुकुलदीपिह चलेउ लेवाई।।
रामु कुभाित सिचव सँग जाही। देिख लोग जहँ तहँ िबलखाही।।
दो0-जाइ दीख रघुबस ं मिन नरपित िनपट कुसाजु।।
सहिम परेउ लिख िसंिघिनिह मनहुँ बृद गजराजु।।39।।
–*–*–
सूखिहं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मिनहीन भुअग ं ू।।
सरष समीप दीिख कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गिन लेई।।
करनामय मृदु राम सुभाऊ। पथम दीख दुखु सुना न काऊ।।
तदिप धीर धिर समउ िबचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी।।
मोिह कहु मातु तात दुख कारन। किरअ जतन जेिहं होइ िनवारन।।
सुनहु राम सबु कारन एहू। राजिह तुम पर बहुत सनेहू।।
देन कहेिनह मोिह दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोिह सोहाना।
सो सुिन भयउ भूप उर सोचू। छािड़ न सकिहं तुमहार सँकोचू।।
दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।
सकहु न आयसु धरहु िसर मेटहु किठन कलेसु।।40।।
–*–*–
िनधरक बैिठ कहइ कटु बानी। सुनत किठनता अित अकुलानी।।
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ मिहप मृदु लचछ समाना।।
जनु कठोरपनु धरे सरीर। िसखइ धनुषिबदा बर बीर।।
सब पसंगु रघुपितिह सुनाई। बैिठ मनहुँ तनु धिर िनठुराई।।
मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद िनधानू।।
बोले बचन िबगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग िबभूषन।।
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो िपतु मातु बचन अनुरागी।।
तनय मातु िपतु तोषिनहारा। दुलरभ जनिन सकल संसारा।।
दो0-मुिनगन िमलनु िबसेिष बन सबिह भाित िहत मोर।
तेिह महँ िपतु आयसु बहुिर संमत जननी तोर।।41।।
–*–*–
भरत पानिपय पाविहं राजू। िबिध सब िबिध मोिह सनमुख आजु।
जो न जाउँ बन ऐसेहु काजा। पथम गिनअ मोिह मूढ़ समाजा।।
सेविहं अरँडु कलपतर तयागी। पिरहिर अमृत लेिहं िबषु मागी।।
तेउ न पाइ अस समउ चुकाही। देखु िबचािर मातु मन माही।।
अंब एक दुखु मोिह िबसेषी। िनपट िबकल नरनायकु देखी।।
थोिरिहं बात िपतिह दुख भारी। होित पतीित न मोिह महतारी।।
राउ धीर गुन उदिध अगाधू। भा मोिह ते कछु बड़ अपराधू।।
जाते मोिह न कहत कछु राऊ। मोिर सपथ तोिह कहु सितभाऊ।।
दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमित कुिटल किर जान।
चलइ जोक जल बकगित जदिप सिललु समान।।42।।
–*–*–
रहसी रािन राम रख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई।।
सपथ तुमहार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना।।
तुमह अपराध जोगु निहं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता।।
राम सतय सबु जो कछु कहहू। तुमह िपतु मातु बचन रत अहहू।।
िपतिह बुझाइ कहहु बिल सोई। चौथेपन जेिहं अजसु न होई।।
तुमह सम सुअन सुकृत जेिहं दीनहे। उिचत न तासु िनरादर कीनहे।।
लागिहं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयािदक तीरथ जैसे।।
रामिह मातु बचन सब भाए। िजिम सुरसिर गत सिलल सुहाए।।
दो0-गइ मुरछा रामिह सुिमिर नृप िफिर करवट लीनह।
सिचव राम आगमन किह िबनय समय सम कीनह।।43।।
–*–*–
अविनप अकिन रामु पगु धारे। धिर धीरजु तब नयन उघारे।।
सिचवँ सँभािर राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु िनहारे।।
िलए सनेह िबकल उर लाई। गै मिन मनहुँ फिनक िफिर पाई।।
रामिह िचतइ रहेउ नरनाहू। चला िबलोचन बािर पबाहू।।
सोक िबबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारिहं बारा।।
िबिधिह मनाव राउ मन माही। जेिहं रघुनाथ न कानन जाही।।
सुिमिर महेसिह कहइ िनहोरी। िबनती सुनहु सदािसव मोरी।।
आसुतोष तुमह अवढर दानी। आरित हरहु दीन जनु जानी।।
दो0-तुमह पेरक सब के हृदयँ सो मित रामिह देहु।
बचनु मोर तिज रहिह घर पिरहिर सीलु सनेहु।।44।।
–*–*–
अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बर सुरपुर जाऊ।।
सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जिन होही।।
अस मन गुनइ राउ निहं बोला। पीपर पात सिरस मनु डोला।।
रघुपित िपतिह पेमबस जानी। पुिन कछु किहिह मातु अनुमानी।।
देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन िबनीत िबचारी।।
तात कहउँ कछु करउँ िढठाई। अनुिचतु छमब जािन लिरकाई।।
अित लघु बात लािग दुखु पावा। काहुँ न मोिह किह पथम जनावा।।
देिख गोसाइँिह पूँिछउँ माता। सुिन पसंगु भए सीतल गाता।।
दो0-मंगल समय सनेह बस सोच पिरहिरअ तात।
आयसु देइअ हरिष िहयँ किह पुलके पभु गात।।45।।
–*–*–
धनय जनमु जगतीतल तासू। िपतिह पमोदु चिरत सुिन जासू।।
चािर पदारथ करतल ताके। िपय िपतु मातु पान सम जाके।।
आयसु पािल जनम फलु पाई। ऐहउँ बेिगिहं होउ रजाई।।
िबदा मातु सन आवउँ मागी। चिलहउँ बनिह बहुिर पग लागी।।
अस किह राम गवनु तब कीनहा। भूप सोक बसु उतर न दीनहा।।
नगर बयािप गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी।।
सुिन भए िबकल सकल नर नारी। बेिल िबटप िजिम देिख दवारी।।
जो जहँ सुनइ धुनइ िसर सोई। बड़ िबषादु निहं धीरजु होई।।
दो0-मुख सुखािहं लोचन सतविह सोकु न हृदयँ समाइ।
मनहँु ०करन रस कटकई उतरी अवध बजाइ।।46।।
–*–*–
िमलेिह माझ िबिध बात बेगारी। जहँ तहँ देिहं कैकेइिह गारी।।
एिह पािपिनिह बूिझ का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ।।
िनज कर नयन कािढ़ चह दीखा। डािर सुधा िबषु चाहत चीखा।।
कुिटल कठोर कुबुिद अभागी। भइ रघुबस ं बेनु बन आगी।।
पालव बैिठ पेड़ु एिहं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धिर ठाटा।।
सदा रामु एिह पान समाना। कारन कवन कुिटलपनु ठाना।।
सतय कहिहं किब नािर सुभाऊ। सब िबिध अगहु अगाध दुराऊ।।
िनज पितिबंबु बरकु गिह जाई। जािन न जाइ नािर गित भाई।।
दो0-काह न पावकु जािर सक का न समुद समाइ।
का न करै अबला पबल केिह जग कालु न खाइ।।47।।
–*–*–
का सुनाइ िबिध काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा।।
एक कहिहं भल भूप न कीनहा। बर िबचािर निहं कुमितिह दीनहा।।
जो हिठ भयउ सकल दुख भाजनु। अबला िबबस गयानु गुनु गा जनु।।
एक धरम परिमित पिहचाने। नृपिह दोसु निहं देिहं सयाने।।
िसिब दधीिच हिरचंद कहानी। एक एक सन कहिहं बखानी।।
एक भरत कर संमत कहही। एक उदास भायँ सुिन रहही।।
कान मूिद कर रद गिह जीहा। एक कहिहं यह बात अलीहा।।
सुकृत जािहं अस कहत तुमहारे। रामु भरत कहुँ पानिपआरे।।
दो0-चंदु चवै बर अनल कन सुधा होइ िबषतूल।
सपनेहुँ कबहुँ न करिहं िकछु भरतु राम पितकूल।।48।।
–*–*–
एक िबधातिहं दूषनु देही। सुधा देखाइ दीनह िबषु जेही।।
खरभर नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर िमटा उछाहू।।
िबपबधू कुलमानय जठेरी। जे िपय परम कैकेई केरी।।
लगी देन िसख सीलु सराही। बचन बानसम लागिहं ताही।।
भरतु न मोिह िपय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना।।
करहु राम पर सहज सनेहू। केिहं अपराध आजु बनु देहू।।
कबहुँ न िकयहु सवित आरेसू। पीित पतीित जान सबु देसू।।
कौसलया अब काह िबगारा। तुमह जेिह लािग बज पुर पारा।।
दो0-सीय िक िपय सँगु पिरहिरिह लखनु िक रिहहिहं धाम।
राजु िक भूँजब भरत पुर नृपु िक िजइिह िबनु राम।।49।।
–*–*–
अस िबचािर उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोिठ जिन होहू।।
भरतिह अविस देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू।।
नािहन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन िबषय रस रखे।।
गुर गृह बसहुँ रामु तिज गेह।
ू नृप सन अस बर दूसर लेह। ू ।
जौ निहं लिगहहु कहे हमारे। निहं लािगिह कछु हाथ तुमहारे।।
जौ पिरहास कीिनह कछु होई। तौ किह पगट जनावहु सोई।।
राम सिरस सुत कानन जोगू। काह किहिह सुिन तुमह कहुँ लोगू।।
उठहु बेिग सोइ करहु उपाई। जेिह िबिध सोकु कलंकु नसाई।।
छं0-जेिह भाित सोकु कलंकु जाइ उपाय किर कुल पालही।
हिठ फेर रामिह जात बन जिन बात दूसिर चालही।।
िजिम भानु िबनु िदनु पान िबनु तनु चंद िबनु िजिम जािमनी।
ितिम अवध तुलसीदास पभु िबनु समुिझ धौ िजयँ भािमनी।।
सो0-सिखनह िसखावनु दीनह सुनत मधुर पिरनाम िहत।
तेइँ कछु कान न कीनह कुिटल पबोधी कूबरी।।50।।
उतर न देइ दुसह िरस रखी। मृिगनह िचतव जनु बािघिन भूखी।।
बयािध असािध जािन ितनह तयागी। चली कहत मितमंद अभागी।।
राजु करत यह दैअँ िबगोई। कीनहेिस अस जस करइ न कोई।।
एिह िबिध िबलपिहं पुर नर नारी। देिहं कुचािलिह कोिटक गारी।।
जरिहं िबषम जर लेिहं उसासा। कविन राम िबनु जीवन आसा।।
िबपुल िबयोग पजा अकुलानी। जनु जलचर गन सूखत पानी।।
अित िबषाद बस लोग लोगाई। गए मातु पिहं रामु गोसाई।।
मुख पसन िचत चौगुन चाऊ। िमटा सोचु जिन राखै राऊ।।
दो-नव गयंदु रघुबीर मनु राजु अलान समान।
छू ट जािन बन गवनु सुिन उर अनंदु अिधकान।।51।।
रघुकुलितलक जोिर दोउ हाथा। मुिदत मातु पद नायउ माथा।।
दीिनह असीस लाइ उर लीनहे। भूषन बसन िनछाविर कीनहे।।
बार बार मुख चुंबित माता। नयन नेह जलु पुलिकत गाता।।
गोद रािख पुिन हृदयँ लगाए। सतवत पेनरस पयद सुहाए।।
पेमु पमोदु न कछु किह जाई। रंक धनद पदबी जनु पाई।।
सादर सुंदर बदनु िनहारी। बोली मधुर बचन महतारी।।
कहहु तात जननी बिलहारी। कबिहं लगन मुद मंगलकारी।।
सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई। जनम लाभ कइ अविध अघाई।।
दो0- जेिह चाहत नर नािर सब अित आरत एिह भाित।
िजिम चातक चातिक तृिषत बृिष सरद िरतु सवाित।।52।।
–*–*–
तात जाउँ बिल बेिग नहाह। ू जो मन भाव मधुर कछु खाह। ू ।
िपतु समीप तब जाएहु भैआ। भइ बिड़ बार जाइ बिल मैआ।।
मातु बचन सुिन अित अनुकूला। जनु सनेह सुरतर के फूला।।
सुख मकरंद भरे िशयमूला। िनरिख राम मनु भवरँ न भूला।।
धरम धुरीन धरम गित जानी। कहेउ मातु सन अित मृदु बानी।।
िपता दीनह मोिह कानन राजू। जहँ सब भाित मोर बड़ काजू।।
आयसु देिह मुिदत मन माता। जेिहं मुद मंगल कानन जाता।।
जिन सनेह बस डरपिस भोरे। आनँदु अंब अनुगह तोरे।।
दो0-बरष चािरदस िबिपन बिस किर िपतु बचन पमान।
आइ पाय पुिन देिखहउँ मनु जिन करिस मलान।।53।।
–*–*–
बचन िबनीत मधुर रघुबर के। सर सम लगे मातु उर करके।।
सहिम सूिख सुिन सीतिल बानी। िजिम जवास परे पावस पानी।।
किह न जाइ कछु हृदय िबषादू। मनहुँ मृगी सुिन केहिर नादू।।
नयन सजल तन थर थर कापी। माजिह खाइ मीन जनु मापी।।
धिर धीरजु सुत बदनु िनहारी। गदगद बचन कहित महतारी।।
तात िपतिह तुमह पानिपआरे। देिख मुिदत िनत चिरत तुमहारे।।
राजु देन कहुँ सुभ िदन साधा। कहेउ जान बन केिहं अपराधा।।
तात सुनावहु मोिह िनदानू। को िदनकर कुल भयउ कृसानू।।
दो0-िनरिख राम रख सिचवसुत कारनु कहेउ बुझाइ।
सुिन पसंगु रिह मूक िजिम दसा बरिन निहं जाइ।।54।।
–*–*–
रािख न सकइ न किह सक जाहू। दुहूँ भाित उर दारन दाहू।।
िलखत सुधाकर गा िलिख राहू। िबिध गित बाम सदा सब काहू।।
धरम सनेह उभयँ मित घेरी। भइ गित साप छुछुदं िर केरी।।
राखउँ सुतिह करउँ अनुरोधू। धरमु जाइ अर बंधु िबरोधू।।
कहउँ जान बन तौ बिड़ हानी। संकट सोच िबबस भइ रानी।।
बहुिर समुिझ ितय धरमु सयानी। रामु भरतु दोउ सुत सम जानी।।
सरल सुभाउ राम महतारी। बोली बचन धीर धिर भारी।।
तात जाउँ बिल कीनहेहु नीका। िपतु आयसु सब धरमक टीका।।
दो0-राजु देन किह दीनह बनु मोिह न सो दुख लेसु।
तुमह िबनु भरतिह भूपितिह पजिह पचंड कलेसु।।55।।
–*–*–
जौ केवल िपतु आयसु ताता। तौ जिन जाहु जािन बिड़ माता।।
जौ िपतु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना।।
िपतु बनदेव मातु बनदेवी। खग मृग चरन सरोरह सेवी।।
अंतहुँ उिचत नृपिह बनबासू। बय िबलोिक िहयँ होइ हरासू।।
बड़भागी बनु अवध अभागी। जो रघुबस ं ितलक तुमह तयागी।।
जौ सुत कहौ संग मोिह लेहू। तुमहरे हृदयँ होइ संदेहू।।
पूत परम िपय तुमह सबही के। पान पान के जीवन जी के।।
ते तुमह कहहु मातु बन जाऊँ। मै सुिन बचन बैिठ पिछताऊँ।।
दो0-यह िबचािर निहं करउँ हठ झूठ सनेहु बढ़ाइ।
मािन मातु कर नात बिल सुरित िबसिर जिन जाइ।।56।।
–*–*–
देव िपतर सब तुनहिह गोसाई। राखहुँ पलक नयन की नाई।।
अविध अंबु िपय पिरजन मीना। तुमह करनाकर धरम धुरीना।।
अस िबचािर सोइ करहु उपाई। सबिह िजअत जेिहं भेटेहु आई।।
जाहु सुखेन बनिह बिल जाऊँ। किर अनाथ जन पिरजन गाऊँ।।
सब कर आजु सुकृत फल बीता। भयउ कराल कालु िबपरीता।।
बहुिबिध िबलिप चरन लपटानी। परम अभािगिन आपुिह जानी।।
दारन दुसह दाहु उर बयापा। बरिन न जािहं िबलाप कलापा।।
राम उठाइ मातु उर लाई। किह मृदु बचन बहुिर समुझाई।।
दो0-समाचार तेिह समय सुिन सीय उठी अकुलाइ।
जाइ सासु पद कमल जुग बंिद बैिठ िसर नाइ।।57।।
–*–*–
दीिनह असीस सासु मृदु बानी। अित सुकुमािर देिख अकुलानी।।
बैिठ निमतमुख सोचित सीता। रप रािस पित पेम पुनीता।।
चलन चहत बन जीवननाथू। केिह सुकृती सन होइिह साथू।।
की तनु पान िक केवल पाना। िबिध करतबु कछु जाइ न जाना।।
चार चरन नख लेखित धरनी। नूपुर मुखर मधुर किब बरनी।।
मनहँु पेम बस िबनती करही। हमिह सीय पद जिन पिरहरही।।
मंजु िबलोचन मोचित बारी। बोली देिख राम महतारी।।
तात सुनहु िसय अित सुकुमारी। सासु ससुर पिरजनिह िपआरी।।
दो0-िपता जनक भूपाल मिन ससुर भानुकुल भानु।
पित रिबकुल कैरव िबिपन िबधु गुन रप िनधानु।।58।।
–*–*–
मै पुिन पुतबधू िपय पाई। रप रािस गुन सील सुहाई।।
नयन पुतिर किर पीित बढ़ाई। राखेउँ पान जािनिकिहं लाई।।
कलपबेिल िजिम बहुिबिध लाली। सीिच सनेह सिलल पितपाली।।
फूलत फलत भयउ िबिध बामा। जािन न जाइ काह पिरनामा।।
पलँग पीठ तिज गोद िहंड़ोरा। िसयँ न दीनह पगु अविन कठोरा।।
िजअनमूिर िजिम जोगवत रहऊँ। दीप बाित निहं टारन कहऊँ।।
सोइ िसय चलन चहित बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा।
चंद िकरन रस रिसक चकोरी। रिब रख नयन सकइ िकिम जोरी।।
दो0-किर केहिर िनिसचर चरिहं दुष जंतु बन भूिर।
िबष बािटका िक सोह सुत सुभग सजीविन मूिर।।59।।
–*–*–
बन िहत कोल िकरात िकसोरी। रची िबरंिच िबषय सुख भोरी।।
पाइन कृिम िजिम किठन सुभाऊ। ितनहिह कलेसु न कानन काऊ।।
कै तापस ितय कानन जोगू। िजनह तप हेतु तजा सब भोगू।।
िसय बन बिसिह तात केिह भाती। िचतिलिखत किप देिख डेराती।।
सुरसर सुभग बनज बन चारी। डाबर जोगु िक हंसकुमारी।।
अस िबचािर जस आयसु होई। मै िसख देउँ जानिकिह सोई।।
जौ िसय भवन रहै कह अंबा। मोिह कहँ होइ बहुत अवलंबा।।
सुिन रघुबीर मातु िपय बानी। सील सनेह सुधा जनु सानी।।
दो0-किह िपय बचन िबबेकमय कीिनह मातु पिरतोष।
लगे पबोधन जानिकिह पगिट िबिपन गुन दोष।।60।।
मासपारायण, चौदहवा िवशाम
–*–*–
मातु समीप कहत सकुचाही। बोले समउ समुिझ मन माही।।
राजकुमािर िसखावन सुनहू। आन भाित िजयँ जिन कछु गुनहू।।
आपन मोर नीक जौ चहहू। बचनु हमार मािन गृह रहहू।।
आयसु मोर सासु सेवकाई। सब िबिध भािमिन भवन भलाई।।
एिह ते अिधक धरमु निहं दूजा। सादर सासु ससुर पद पूजा।।
जब जब मातु किरिह सुिध मोरी। होइिह पेम िबकल मित भोरी।।
तब तब तुमह किह कथा पुरानी। सुंदिर समुझाएहु मृदु बानी।।
कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही। सुमुिख मातु िहत राखउँ तोही।।
दो0-गुर शुित संमत धरम फलु पाइअ िबनिहं कलेस।
हठ बस सब संकट सहे गालव नहुष नरेस।।61।।
–*–*–
मै पुिन किर पवान िपतु बानी। बेिग िफरब सुनु सुमुिख सयानी।।
िदवस जात निहं लािगिह बारा। सुंदिर िसखवनु सुनहु हमारा।।
जौ हठ करहु पेम बस बामा। तौ तुमह दुखु पाउब पिरनामा।।
काननु किठन भयंकर भारी। घोर घामु िहम बािर बयारी।।
कुस कंटक मग काकर नाना। चलब पयादेिहं िबनु पदताना।।
चरन कमल मुदु मंजु तुमहारे। मारग अगम भूिमधर भारे।।
कंदर खोह नदी नद नारे। अगम अगाध न जािहं िनहारे।।
भालु बाघ बृक केहिर नागा। करिहं नाद सुिन धीरजु भागा।।
दो0-भूिम सयन बलकल बसन असनु कंद फल मूल।
ते िक सदा सब िदन िमिलिहं सबुइ समय अनुकूल।।62।।
–*–*–
नर अहार रजनीचर चरही। कपट बेष िबिध कोिटक करही।।
लागइ अित पहार कर पानी। िबिपन िबपित निहं जाइ बखानी।।
बयाल कराल िबहग बन घोरा। िनिसचर िनकर नािर नर चोरा।।
डरपिहं धीर गहन सुिध आएँ। मृगलोचिन तुमह भीर सुभाएँ।।
हंसगविन तुमह निहं बन जोगू। सुिन अपजसु मोिह देइिह लोगू।।
मानस सिलल सुधा पितपाली। िजअइ िक लवन पयोिध मराली।।
नव रसाल बन िबहरनसीला। सोह िक कोिकल िबिपन करीला।।
रहहु भवन अस हृदयँ िबचारी। चंदबदिन दुखु कानन भारी।।
दो0-सहज सुहद गुर सवािम िसख जो न करइ िसर मािन।।
सो पिछताइ अघाइ उर अविस होइ िहत हािन।।63।।
–*–*–
सुिन मृदु बचन मनोहर िपय के। लोचन लिलत भरे जल िसय के।।
सीतल िसख दाहक भइ कैसे। चकइिह सरद चंद िनिस जैसे।।
उतर न आव िबकल बैदेही। तजन चहत सुिच सवािम सनेही।।
बरबस रोिक िबलोचन बारी। धिर धीरजु उर अविनकुमारी।।
लािग सासु पग कह कर जोरी। छमिब देिब बिड़ अिबनय मोरी।।
दीिनह पानपित मोिह िसख सोई। जेिह िबिध मोर परम िहत होई।।
मै पुिन समुिझ दीिख मन माही। िपय िबयोग सम दुखु जग नाही।।
दो0- पाननाथ करनायतन सुंदर सुखद सुजान।
तुमह िबनु रघुकुल कुमुद िबधु सुरपुर नरक समान।।64।।
–*–*–
मातु िपता भिगनी िपय भाई। िपय पिरवार सुहद समुदाई।।
सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुंदर सुसील सुखदाई।।
जहँ लिग नाथ नेह अर नाते। िपय िबनु ितयिह तरिनहु ते ताते।।
तनु धनु धामु धरिन पुर राजू। पित िबहीन सबु सोक समाजू।।
भोग रोगसम भूषन भार। जम जातना सिरस संसार।।
पाननाथ तुमह िबनु जग माही। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाही।।
िजय िबनु देह नदी िबनु बारी। तैिसअ नाथ पुरष िबनु नारी।।
नाथ सकल सुख साथ तुमहारे। सरद िबमल िबधु बदनु िनहारे।।
दो0-खग मृग पिरजन नगर बनु बलकल िबमल दुकूल।
नाथ साथ सुरसदन सम परनसाल सुख मूल।।65।।
–*–*–
बनदेवी बनदेव उदारा। किरहिहं सासु ससुर सम सारा।।
कुस िकसलय साथरी सुहाई। पभु सँग मंजु मनोज तुराई।।
कंद मूल फल अिमअ अहार। अवध सौध सत सिरस पहार।।
िछनु िछनु पभु पद कमल िबलोिक। रिहहउँ मुिदत िदवस िजिम कोकी।।
बन दुख नाथ कहे बहुतेरे। भय िबषाद पिरताप घनेरे।।
पभु िबयोग लवलेस समाना। सब िमिल होिहं न कृपािनधाना।।
अस िजयँ जािन सुजान िसरोमिन। लेइअ संग मोिह छािड़अ जिन।।
िबनती बहत ु करौ का सवामी। करनामय उर अंतरजामी।।
दो0-रािखअ अवध जो अविध लिग रहत न जिनअिहं पान।
दीनबंधु संदर सुखद सील सनेह िनधान।।66।।
–*–*–
मोिह मग चलत न होइिह हारी। िछनु िछनु चरन सरोज िनहारी।।
सबिह भाित िपय सेवा किरहौ। मारग जिनत सकल शम हिरहौ।।
पाय पखारी बैिठ तर छाही। किरहउँ बाउ मुिदत मन माही।।
शम कन सिहत सयाम तनु देखे। कहँ दुख समउ पानपित पेखे।।
सम मिह तृन तरपललव डासी। पाग पलोिटिह सब िनिस दासी।।
बारबार मृदु मूरित जोही। लागिह तात बयािर न मोही।
को पभु सँग मोिह िचतविनहारा। िसंघबधुिह िजिम ससक िसआरा।।
मै सुकुमािर नाथ बन जोगू। तुमहिह उिचत तप मो कहुँ भोगू।।
दो0-ऐसेउ बचन कठोर सुिन जौ न हदउ िबलगान।
तौ पभु िबषम िबयोग दुख सिहहिहं पावँर पान।।67।।
–*–*–
मागे।।
मीन पीन पाठीन पुराने। भिर भिर भार कहारनह आने।।
िमलन साजु सिज िमलन िसधाए। मंगल मूल सगुन सुभ पाए।।
देिख दूिर ते किह िनज नामू। कीनह मुनीसिह दंड पनामू।।
जािन रामिपय दीिनह असीसा। भरतिह कहेउ बुझाइ मुनीसा।।
राम सखा सुिन संदनु तयागा। चले उतिर उमगत अनुरागा।।
गाउँ जाित गुहँ नाउँ सुनाई। कीनह जोहार माथ मिह लाई।।
दो0-करत दंडवत देिख तेिह भरत लीनह उर लाइ।
मनहँु लखन सन भेट भइ पेम न हृदयँ समाइ।।193।।
–*–*–
भेटत भरतु तािह अित पीती। लोग िसहािहं पेम कै रीती।।
धनय धनय धुिन मंगल मूला। सुर सरािह तेिह बिरसिहं फूला।।
लोक बेद सब भाितिहं नीचा। जासु छाह छुइ लेइअ सीचा।।
तेिह भिर अंक राम लघु भाता। िमलत पुलक पिरपूिरत गाता।।
राम राम किह जे जमुहाही। ितनहिह न पाप पुंज समुहाही।।
यह तौ राम लाइ उर लीनहा। कुल समेत जगु पावन कीनहा।।
करमनास जलु सुरसिर परई। तेिह को कहहु सीस निहं धरई।।
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीिक भए बह समाना।।
दो0-सवपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल िकरात।
रामु कहत पावन परम होत भुवन िबखयात।।194।।
–*–*–
निहं अिचरजु जुग जुग चिल आई। केिह न दीिनह रघुबीर बड़ाई।।
राम नाम मिहमा सुर कहही। सुिन सुिन अवधलोग सुखु लहही।।
रामसखिह िमिल भरत सपेमा। पूँछी कुसल सुमंगल खेमा।।
देिख भरत कर सील सनेहू। भा िनषाद तेिह समय िबदेहू।।
सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतिह िचतवत एकटक ठाढ़ा।।
धिर धीरजु पद बंिद बहोरी। िबनय सपेम करत कर जोरी।।
कुसल मूल पद पंकज पेखी। मै ितहुँ काल कुसल िनज लेखी।।
अब पभु परम अनुगह तोरे। सिहत कोिट कुल मंगल मोरे।।
दो0-समुिझ मोिर करतूित कुलु पभु मिहमा िजयँ जोइ।
जो न भजइ रघुबीर पद जग िबिध बंिचत सोइ।।195।।
–*–*–
कपटी कायर कुमित कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाती।।
राम कीनह आपन जबही ते। भयउँ भुवन भूषन तबही ते।।
देिख पीित सुिन िबनय सुहाई। िमलेउ बहोिर भरत लघु भाई।।
किह िनषाद िनज नाम सुबानी। सादर सकल जोहारी रानी।।
जािन लखन सम देिहं असीसा। िजअहु सुखी सय लाख बरीसा।।
िनरिख िनषादु नगर नर नारी। भए सुखी जनु लखनु िनहारी।।
कहिहं लहेउ एिहं जीवन लाहू। भेटेउ रामभद भिर बाहू।।
सुिन िनषादु िनज भाग बड़ाई। पमुिदत मन लइ चलेउ लेवाई।।
दो0-सनकारे सेवक सकल चले सवािम रख पाइ।
घर तर तर सर बाग बन बास बनाएिनह जाइ।।196।।
–*–*–
सृंगबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अंग िसिथल तब।।
सोहत िदएँ िनषादिह लागू। जनु तनु धरे िबनय अनुरागू।।
एिह िबिध भरत सेनु सबु संगा। दीिख जाइ जग पाविन गंगा।।
रामघाट कहँ कीनह पनामू। भा मनु मगनु िमले जनु रामू।।
करिहं पनाम नगर नर नारी। मुिदत बहमय बािर िनहारी।।
किर मजजनु मागिहं कर जोरी। रामचंद पद पीित न थोरी।।
भरत कहेउ सुरसिर तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू।।
जोिर पािन बर मागउँ एह। ू सीय राम पद सहज सनेह। ू ।
दो0-एिह िबिध मजजनु भरतु किर गुर अनुसासन पाइ।
मातु नहानी जािन सब डेरा चले लवाइ।।197।।
–*–*–
जहँ तहँ लोगनह डेरा कीनहा। भरत सोधु सबही कर लीनहा।।
सुर सेवा किर आयसु पाई। राम मातु पिहं गे दोउ भाई।।
चरन चािप किह किह मृदु बानी। जननी सकल भरत सनमानी।।
भाइिह सौिप मातु सेवकाई। आपु िनषादिह लीनह बोलाई।।
चले सखा कर सो कर जोरे। िसिथल सरीर सनेह न थोरे।।
पूँछत सखिह सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरिन जुड़ाऊ।।
जहँ िसय रामु लखनु िनिस सोए। कहत भरे जल लोचन कोए।।
भरत बचन सुिन भयउ िबषादू। तुरत तहा लइ गयउ िनषादू।।
दो0-जहँ िसंसुपा पुनीत तर रघुबर िकय िबशामु।
अित सनेहँ सादर भरत कीनहेउ दंड पनामु।।198।।
–*–*–
कुस साथरीí िनहािर सुहाई। कीनह पनामु पदिचछन जाई।।
चरन रेख रज आँिखनह लाई। बनइ न कहत पीित अिधकाई।।
कनक िबंदु दुइ चािरक देखे। राखे सीस सीय सम लेखे।।
सजल िबलोचन हृदयँ गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानी।।
शीहत सीय िबरहँ दुितहीना। जथा अवध नर नािर िबलीना।।
िपता जनक देउँ पटतर केही। करतल भोगु जोगु जग जेही।।
ससुर भानुकुल भानु भुआलू। जेिह िसहात अमरावितपालू।।
पाननाथु रघुनाथ गोसाई। जो बड़ होत सो राम बड़ाई।।
दो0-पित देवता सुतीय मिन सीय साथरी देिख।
िबहरत हदउ न हहिर हर पिब ते किठन िबसेिष।।199।।
–*–*–
लालन जोगु लखन लघु लोने। भे न भाइ अस अहिहं न होने।।
पुरजन िपय िपतु मातु दुलारे। िसय रघुबरिह पानिपआरे।।
मृदु मूरित सुकुमार सुभाऊ। तात बाउ तन लाग न काऊ।।
ते बन सहिहं िबपित सब भाती। िनदरे कोिट कुिलस एिहं छाती।।
राम जनिम जगु कीनह उजागर। रप सील सुख सब गुन सागर।।
पुरजन पिरजन गुर िपतु माता। राम सुभाउ सबिह सुखदाता।।
बैिरउ राम बड़ाई करही। बोलिन िमलिन िबनय मन हरही।।
सारद कोिट कोिट सत सेषा। किर न सकिहं पभु गुन गन लेखा।।
दो0-सुखसवरप रघुबस ं मिन मंगल मोद िनधान।
ते सोवत कुस डािस मिह िबिध गित अित बलवान।।200।।
–*–*–
राम सुना दुखु कान न काऊ। जीवनतर िजिम जोगवइ राऊ।।
पलक नयन फिन मिन जेिह भाती। जोगविहं जनिन सकल िदन राती।।
ते अब िफरत िबिपन पदचारी। कंद मूल फल फूल अहारी।।
िधग कैकेई अमंगल मूला। भइिस पान िपयतम पितकूला।।
मै िधग िधग अघ उदिध अभागी। सबु उतपातु भयउ जेिह लागी।।
कुल कलंकु किर सृजेउ िबधाता। साइँदोह मोिह कीनह कुमाता।।
सुिन सपेम समुझाव िनषादू। नाथ किरअ कत बािद िबषादू।।
राम तुमहिह िपय तुमह िपय रामिह। यह िनरजोसु दोसु िबिध बामिह।।
छं0-िबिध बाम की करनी किठन जेिहं मातु कीनही बावरी।
तेिह राित पुिन पुिन करिहं पभु सादर सरहना रावरी।।
तुलसी न तुमह सो राम पीतमु कहतु हौ सौहे िकएँ।
पिरनाम मंगल जािन अपने आिनए धीरजु िहएँ।।
सो0-अंतरजामी रामु सकुच सपेम कृपायतन।
चिलअ किरअ िबशामु यह िबचािर दृढ़ आिन मन।।201।।
सखा बचन सुिन उर धिर धीरा। बास चले सुिमरत रघुबीरा।।
यह सुिध पाइ नगर नर नारी। चले िबलोकन आरत भारी।।
परदिखना किर करिहं पनामा। देिहं कैकइिह खोिर िनकामा।।
भरी भिर बािर िबलोचन लेही। बाम िबधातािह दूषन देही।।
एक सराहिहं भरत सनेहू। कोउ कह नृपित िनबाहेउ नेहू।।
िनंदिहं आपु सरािह िनषादिह। को किह सकइ िबमोह िबषादिह।।
एिह िबिध राित लोगु सबु जागा। भा िभनुसार गुदारा लागा।।
गुरिह सुनावँ चढ़ाइ सुहाई। नई नाव सब मातु चढ़ाई।।
दंड चािर महँ भा सबु पारा। उतिर भरत तब सबिह सँभारा।।
दो0-पातिकया किर मातु पद बंिद गुरिह िसर नाइ।
आगे िकए िनषाद गन दीनहेउ कटकु चलाइ।।202।।
–*–*–
िकयउ िनषादनाथु अगुआई। मातु पालकी सकल चलाई।।
साथ बोलाइ भाइ लघु दीनहा। िबपनह सिहत गवनु गुर कीनहा।।
आपु सुरसिरिह कीनह पनामू। सुिमरे लखन सिहत िसय रामू।।
गवने भरत पयोदेिहं पाए। कोतल संग जािहं डोिरआए।।
कहिहं सुसेवक बारिहं बारा। होइअ नाथ असव असवारा।।
रामु पयोदेिह पायँ िसधाए। हम कहँ रथ गज बािज बनाए।।
िसर भर जाउँ उिचत अस मोरा। सब ते सेवक धरमु कठोरा।।
देिख भरत गित सुिन मृदु बानी। सब सेवक गन गरिहं गलानी।।
दो0-भरत तीसरे पहर कहँ कीनह पबेसु पयाग।
कहत राम िसय राम िसय उमिग उमिग अनुराग।।203।।
–*–*–
झलका झलकत पायनह कैसे। पंकज कोस ओस कन जैसे।।
भरत पयादेिहं आए आजू। भयउ दुिखत सुिन सकल समाजू।।
खबिर लीनह सब लोग नहाए। कीनह पनामु ितबेिनिहं आए।।
सिबिध िसतािसत नीर नहाने। िदए दान मिहसुर सनमाने।।
देखत सयामल धवल हलोरे। पुलिक सरीर भरत कर जोरे।।
सकल काम पद तीरथराऊ। बेद िबिदत जग पगट पभाऊ।।
मागउँ भीख तयािग िनज धरमू। आरत काह न करइ कुकरमू।।
अस िजयँ जािन सुजान सुदानी। सफल करिहं जग जाचक बानी।।
दो0-अरथ न धरम न काम रिच गित न चहउँ िनरबान।
जनम जनम रित राम पद यह बरदानु न आन।।204।।
–*–*–
जानहुँ रामु कुिटल किर मोही। लोग कहउ गुर सािहब दोही।।
सीता राम चरन रित मोरे। अनुिदन बढ़उ अनुगह तोरे।।
जलदु जनम भिर सुरित िबसारउ। जाचत जलु पिब पाहन डारउ।।
चातकु रटिन घटे घिट जाई। बढ़े पेमु सब भाित भलाई।।
कनकिहं बान चढ़इ िजिम दाहे। ितिम िपयतम पद नेम िनबाहे।।
भरत बचन सुिन माझ ितबेनी। भइ मृदु बािन सुमंगल देनी।।
तात भरत तुमह सब िबिध साधू। राम चरन अनुराग अगाधू।।
बाद गलािन करहु मन माही। तुमह सम रामिह कोउ िपय नाही।।
दो0-तनु पुलकेउ िहयँ हरषु सुिन बेिन बचन अनुकूल।
भरत धनय किह धनय सुर हरिषत बरषिहं फूल।।205।।
–*–*–
पमुिदत तीरथराज िनवासी। बैखानस बटु गृही उदासी।।
कहिहं परसपर िमिल दस पाचा। भरत सनेह सीलु सुिच साचा।।
सुनत राम गुन गाम सुहाए। भरदाज मुिनबर पिहं आए।।
दंड पनामु करत मुिन देखे। मूरितमंत भागय िनज लेखे।।
धाइ उठाइ लाइ उर लीनहे। दीिनह असीस कृतारथ कीनहे।।
आसनु दीनह नाइ िसर बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भिज पैठे।।
मुिन पूँछब कछु यह बड़ सोचू। बोले िरिष लिख सीलु सँकोचू।।
सुनहु भरत हम सब सुिध पाई। िबिध करतब पर िकछु न बसाई।।
दो0-तुमह गलािन िजयँ जिन करहु समुझी मातु करतूित।
तात कैकइिह दोसु निहं गई िगरा मित धूित।।206।।
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यहउ कहत भल किहिह न कोऊ। लोकु बेद बुध संमत दोऊ।।
तात तुमहार िबमल जसु गाई। पाइिह लोकउ बेदु बड़ाई।।
लोक बेद संमत सबु कहई। जेिह िपतु देइ राजु सो लहई।।
राउ सतयबत तुमहिह बोलाई। देत राजु सुखु धरमु बड़ाई।।
राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुिन सकल िबसव भइ सूला।।
सो भावी बस रािन अयानी। किर कुचािल अंतहुँ पिछतानी।।
तहँउँ तुमहार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू।।
करतेहु राजु त तुमहिह न दोषू। रामिह होत सुनत संतोषू।।
दो0-अब अित कीनहेहु भरत भल तुमहिह उिचत मत एहु।
सकल सुमग ं ल मूल जग रघुबर चरन सनेहु।।207।।
–*–*–
सो तुमहार धनु जीवनु पाना। भूिरभाग को तुमहिह समाना।।
यह तमहार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम िपय भाता।।
सुनहु भरत रघुबर मन माही। पेम पातु तुमह सम कोउ नाही।।
लखन राम सीतिह अित पीती। िनिस सब तुमहिह सराहत बीती।।
जाना मरमु नहात पयागा। मगन होिहं तुमहरे अनुरागा।।
तुमह पर अस सनेहु रघुबर के। सुख जीवन जग जस जड़ नर के।।
यह न अिधक रघुबीर बड़ाई। पनत कुटुंब पाल रघुराई।।
तुमह तौ भरत मोर मत एहू। धरे देह जनु राम सनेहू।।
दो0-तुमह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेसु।
राम भगित रस िसिद िहत भा यह समउ गनेसु।।208।।
–*–*–
नव िबधु िबमल तात जसु तोरा। रघुबर िकंकर कुमुद चकोरा।।
उिदत सदा अँथइिह कबहूँ ना। घिटिह न जग नभ िदन िदन दूना।।
कोक ितलोक पीित अित किरही। पभु पताप रिब छिबिह न हिरही।।
िनिस िदन सुखद सदा सब काहू। गिसिह न कैकइ करतबु राहू।।
पूरन राम सुपेम िपयूषा। गुर अवमान दोष निहं दूषा।।
राम भगत अब अिमअँ अघाहूँ। कीनहेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ।।
भूप भगीरथ सुरसिर आनी। सुिमरत सकल सुंमगल खानी।।
दसरथ गुन गन बरिन न जाही। अिधकु कहा जेिह सम जग नाही।।
दो0-जासु सनेह सकोच बस राम पगट भए आइ।।
जे हर िहय नयनिन कबहुँ िनरखे नही अघाइ।।209।।
–*–*–
कीरित िबधु तुमह कीनह अनूपा। जहँ बस राम पेम मृगरपा।।
तात गलािन करहु िजयँ जाएँ। डरहु दिरदिह पारसु पाएँ।।।।
सुनहु भरत हम झूठ न कहही। उदासीन तापस बन रहही।।
सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम िसय दरसनु पावा।।
तेिह फल कर फलु दरस तुमहारा। सिहत पयाग सुभाग हमारा।।
भरत धनय तुमह जसु जगु जयऊ। किह अस पेम मगन पुिन भयऊ।।
सुिन मुिन बचन सभासद हरषे। साधु सरािह सुमन सुर बरषे।।
धनय धनय धुिन गगन पयागा। सुिन सुिन भरतु मगन अनुरागा।।
दो0-पुलक गात िहयँ रामु िसय सजल सरोरह नैन।
किर पनामु मुिन मंडिलिह बोले गदगद बैन।।210।।
–*–*–
मुिन समाजु अर तीरथराजू। सािचहुँ सपथ अघाइ अकाजू।।
एिहं थल जौ िकछु किहअ बनाई। एिह सम अिधक न अघ अधमाई।।
तुमह सबरगय कहउँ सितभाऊ। उर अंतरजामी रघुराऊ।।
मोिह न मातु करतब कर सोचू। निहं दुखु िजयँ जगु जािनिह पोचू।।
नािहन डर िबगिरिह परलोकू। िपतहु मरन कर मोिह न सोकू।।
सुकृत सुजस भिर भुअन सुहाए। लिछमन राम सिरस सुत पाए।।
राम िबरहँ तिज तनु छनभंगू। भूप सोच कर कवन पसंगू।।
राम लखन िसय िबनु पग पनही। किर मुिन बेष िफरिहं बन बनही।।
दो0-अिजन बसन फल असन मिह सयन डािस कुस पात।
बिस तर तर िनत सहत िहम आतप बरषा बात।।211।।
–*–*–
एिह दुख दाहँ दहइ िदन छाती। भूख न बासर नीद न राती।।
एिह कुरोग कर औषधु नाही। सोधेउँ सकल िबसव मन माही।।
मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेिहं हमार िहत कीनह बँसूला।।
किल कुकाठ कर कीनह कुजत ं ू। गािड़ अविध पिढ़ किठन कुमंतु।।
मोिह लिग यहु कुठाटु तेिहं ठाटा। घालेिस सब जगु बारहबाटा।।
िमटइ कुजोगु राम िफिर आएँ। बसइ अवध निहं आन उपाएँ।।
भरत बचन सुिन मुिन सुखु पाई। सबिहं कीनह बहु भाित बड़ाई।।
तात करहु जिन सोचु िबसेषी। सब दुखु िमटिह राम पग देखी।।
दो0-किर पबोध मुिनबर कहेउ अितिथ पेमिपय होहु।
कंद मूल फल फूल हम देिहं लेहु किर छोहु।।212।।
–*–*–
सुिन मुिन बचन भरत िहँय सोचू। भयउ कुअवसर किठन सँकोचू।।
जािन गरइ गुर िगरा बहोरी। चरन बंिद बोले कर जोरी।।
िसर धिर आयसु किरअ तुमहारा। परम धरम यहु नाथ हमारा।।
भरत बचन मुिनबर मन भाए। सुिच सेवक िसष िनकट बोलाए।।
चािहए कीनह भरत पहुनाई। कंद मूल फल आनहु जाई।।
भलेही नाथ किह ितनह िसर नाए। पमुिदत िनज िनज काज िसधाए।।
मुिनिह सोच पाहुन बड़ नेवता। तिस पूजा चािहअ जस देवता।।
सुिन िरिध िसिध अिनमािदक आई। आयसु होइ सो करिहं गोसाई।।
दो0-राम िबरह बयाकुल भरतु सानुज सिहत समाज।
पहुनाई किर हरहु शम कहा मुिदत मुिनराज।।213।।
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िरिध िसिध िसर धिर मुिनबर बानी। बड़भािगिन आपुिह अनुमानी।।
कहिहं परसपर िसिध समुदाई। अतुिलत अितिथ राम लघु भाई।।
मुिन पद बंिद किरअ सोइ आजू। होइ सुखी सब राज समाजू।।
अस किह रचेउ रिचर गृह नाना। जेिह िबलोिक िबलखािहं िबमाना।।
भोग िबभूित भूिर भिर राखे। देखत िजनहिह अमर अिभलाषे।।
दासी दास साजु सब लीनहे। जोगवत रहिहं मनिह मनु दीनहे।।
सब समाजु सिज िसिध पल माही। जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाही।।
पथमिहं बास िदए सब केही। सुंदर सुखद जथा रिच जेही।।
दो0-बहुिर सपिरजन भरत कहुँ िरिष अस आयसु दीनह।
िबिध िबसमय दायकु िबभव मुिनबर तपबल कीनह।।214।।
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मुिन पभाउ जब भरत िबलोका। सब लघु लगे लोकपित लोका।।
सुख समाजु निहं जाइ बखानी। देखत िबरित िबसारही गयानी।।
आसन सयन सुबसन िबताना। बन बािटका िबहग मृग नाना।।
सुरिभ फूल फल अिमअ समाना। िबमल जलासय िबिबध िबधाना।
असन पान सुच अिमअ अमी से। देिख लोग सकुचात जमी से।।
सुर सुरभी सुरतर सबही के। लिख अिभलाषु सुरेस सची के।।
िरतु बसंत बह ितिबध बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी।।
सतक चंदन बिनतािदक भोगा। देिख हरष िबसमय बस लोगा।।
दो0-संपत चकई भरतु चक मुिन आयस खेलवार।।
तेिह िनिस आशम िपंजरा राखे भा िभनुसार।।215।।
मासपारायण, उनीसवा िवशाम
–*–*–
कीनह िनमजजनु तीरथराजा। नाइ मुिनिह िसर सिहत समाजा।।
िरिष आयसु असीस िसर राखी। किर दंडवत िबनय बहु भाषी।।
पथ गित कुसल साथ सब लीनहे। चले िचतकूटिहं िचतु दीनहे।।
रामसखा कर दीनहे लागू। चलत देह धिर जनु अनुरागू।।
निहं पद तान सीस निहं छाया। पेमु नेमु बतु धरमु अमाया।।
लखन राम िसय पंथ कहानी। पूँछत सखिह कहत मृदु बानी।।
राम बास थल िबटप िबलोके। उर अनुराग रहत निहं रोकै।।
दैिख दसा सुर बिरसिहं फूला। भइ मृदु मिह मगु मंगल मूला।।
दो0-िकएँ जािहं छाया जलद सुखद बहइ बर बात।
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतिह जात।।216।।
–*–*–
जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे िचतए पभु िजनह पभु हेरे।।
ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू।।
यह बिड़ बात भरत कइ नाही। सुिमरत िजनिह रामु मन माही।।
बारक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ।।
भरतु राम िपय पुिन लघु भाता। कस न होइ मगु मंगलदाता।।
िसद साधु मुिनबर अस कहही। भरतिह िनरिख हरषु िहयँ लहही।।
देिख पभाउ सुरेसिह सोचू। जगु भल भलेिह पोच कहुँ पोचू।।
गुर सन कहेउ किरअ पभु सोई। रामिह भरतिह भेट न होई।।
दो0-रामु सँकोची पेम बस भरत सपेम पयोिध।
बनी बात बेगरन चहित किरअ जतनु छलु सोिध।।217।।
–*–*–
बचन सुनत सुरगुर मुसकाने। सहसनयन िबनु लोचन जाने।।
मायापित सेवक सन माया। करइ त उलिट परइ सुरराया।।
तब िकछु कीनह राम रख जानी। अब कुचािल किर होइिह हानी।।
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। िनज अपराध िरसािहं न काऊ।।
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई।।
लोकहुँ बेद िबिदत इितहासा। यह मिहमा जानिहं दुरबासा।।
भरत सिरस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही।।
दो0-मनहुँ न आिनअ अमरपित रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक परलोक दुख िदन िदन सोक समाजु।।218।।
–*–*–
सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामिह सेवकु परम िपआरा।।
मानत सुखु सेवक सेवकाई। सेवक बैर बैर अिधकाई।।
जदिप सम निहं राग न रोषू। गहिहं न पाप पूनु गुन दोषू।।
करम पधान िबसव किर राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा।।
तदिप करिहं सम िबषम िबहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा।।
अगुन अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत पेम बस।।
राम सदा सेवक रिच राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी।।
अस िजयँ जािन तजहु कुिटलाई। करहु भरत पद पीित सुहाई।।
दो0-राम भगत परिहत िनरत पर दुख दुखी दयाल।
भगत िसरोमिन भरत ते जिन डरपहु सुरपाल।।219।।
–*–*–
सतयसंध पभु सुर िहतकारी। भरत राम आयस अनुसारी।।
सवारथ िबबस िबकल तुमह होहू। भरत दोसु निहं राउर मोहू।।
सुिन सुरबर सुरगुर बर बानी। भा पमोदु मन िमटी गलानी।।
बरिष पसून हरिष सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ।।
एिह िबिध भरत चले मग जाही। दसा देिख मुिन िसद िसहाही।।
जबिहं रामु किह लेिहं उसासा। उमगत पेमु मनहँ चहु पासा।।
दविहं बचन सुिन कुिलस पषाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना।।
बीच बास किर जमुनिहं आए। िनरिख नीर लोचन जल छाए।।
दो0-रघुबर बरन िबलोिक बर बािर समेत समाज।
होत मगन बािरिध िबरह चढ़े िबबेक जहाज।।220।।
–*–*–
जमुन तीर तेिह िदन किर बासू। भयउ समय सम सबिह सुपासू।।
रातिहं घाट घाट की तरनी। आई अगिनत जािहं न बरनी।।
पात पार भए एकिह खेवा। तोषे रामसखा की सेवा।।
चले नहाइ निदिह िसर नाई। साथ िनषादनाथ दोउ भाई।।
आगे मुिनबर बाहन आछे। राजसमाज जाइ सबु पाछे।।
तेिहं पाछे दोउ बंधु पयादे। भूषन बसन बेष सुिठ सादे।।
सेवक सुहद सिचवसुत साथा। सुिमरत लखनु सीय रघुनाथा।।
जहँ जहँ राम बास िबशामा। तहँ तहँ करिहं सपेम पनामा।।
दो0-मगबासी नर नािर सुिन धाम काम तिज धाइ।
देिख सरप सनेह सब मुिदत जनम फलु पाइ।।221।।
–*–*–
कहिहं सपेम एक एक पाही। रामु लखनु सिख होिहं िक नाही।।
बय बपु बरन रप सोइ आली। सीलु सनेहु सिरस सम चाली।।
बेषु न सो सिख सीय न संगा। आगे अनी चली चतुरगं ा।।
निहं पसन मुख मानस खेदा। सिख संदेहु होइ एिहं भेदा।।
तासु तरक ितयगन मन मानी। कहिहं सकल तेिह सम न सयानी।।
तेिह सरािह बानी फुिर पूजी। बोली मधुर बचन ितय दूजी।।
किह सपेम सब कथापसंगू। जेिह िबिध राम राज रस भंगू।।
भरतिह बहुिर सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी।।
दो0-चलत पयादे खात फल िपता दीनह तिज राजु।
जात मनावन रघुबरिह भरत सिरस को आजु।।222।।
–*–*–
भायप भगित भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू।।
जो कछु कहब थोर सिख सोई। राम बंधु अस काहे न होई।।
हम सब सानुज भरतिह देखे। भइनह धनय जुबती जन लेखे।।
सुिन गुन देिख दसा पिछताही। कैकइ जनिन जोगु सुतु नाही।।
कोउ कह दूषनु रािनिह नािहन। िबिध सबु कीनह हमिह जो दािहन।।
कहँ हम लोक बेद िबिध हीनी। लघु ितय कुल करतूित मलीनी।।
बसिहं कुदेस कुगाव कुबामा। कहँ यह दरसु पुनय पिरनामा।।
अस अनंदु अिचिरजु पित गामा। जनु मरभूिम कलपतर जामा।।
दो0-भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगनह कर भागु।
जनु िसंघलबािसनह भयउ िबिध बस सुलभ पयागु।।223।।
–*–*–
िनज गुन सिहत राम गुन गाथा। सुनत जािहं सुिमरत रघुनाथा।।
तीरथ मुिन आशम सुरधामा। िनरिख िनमजजिहं करिहं पनामा।।
मनही मन मागिहं बर एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू।।
िमलिहं िकरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी।।
किर पनामु पूँछिहं जेिहं तेही। केिह बन लखनु रामु बैदेही।।
ते पभु समाचार सब कहही। भरतिह देिख जनम फलु लहही।।
जे जन कहिहं कुसल हम देखे। ते िपय राम लखन सम लेखे।।
एिह िबिध बूझत सबिह सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी।।
दो0-तेिह बासर बिस पातही चले सुिमिर रघुनाथ।
राम दरस की लालसा भरत सिरस सब साथ।।224।।
–*–*–
मंगल सगुन होिहं सब काहू। फरकिहं सुखद िबलोचन बाहू।।
भरतिह सिहत समाज उछाहू। िमिलहिहं रामु िमटिह दुख दाहू।।
करत मनोरथ जस िजयँ जाके। जािहं सनेह सुरा सब छाके।।
िसिथल अंग पग मग डिग डोलिहं। िबहबल बचन पेम बस बोलिहं।।
रामसखा तेिह समय देखावा। सैल िसरोमिन सहज सुहावा।।
जासु समीप सिरत पय तीरा। सीय समेत बसिहं दोउ बीरा।।
देिख करिहं सब दंड पनामा। किह जय जानिक जीवन रामा।।
पेम मगन अस राज समाजू। जनु िफिर अवध चले रघुराजू।।
दो0-भरत पेमु तेिह समय जस तस किह सकइ न सेषु।
किबिहं अगम िजिम बहसुखु अह मम मिलन जनेषु।।225।
–*–*–
सकल सनेह िसिथल रघुबर के। गए कोस दुइ िदनकर ढरके।।
जलु थलु देिख बसे िनिस बीते। कीनह गवन रघुनाथ िपरीते।।
उहा रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा।।
सिहत समाज भरत जनु आए। नाथ िबयोग ताप तन ताए।।
सकल मिलन मन दीन दुखारी। देखी सासु आन अनुहारी।।
सुिन िसय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच िबमोचन।।
लखन सपन यह नीक न होई। किठन कुचाह सुनाइिह कोई।।
अस किह बंधु समेत नहाने। पूिज पुरािर साधु सनमाने।।
छं0-सनमािन सुर मुिन बंिद बैठे उतर िदिस देखत भए।
नभ धूिर खग मृग भूिर भागे िबकल पभु आशम गए।।
तुलसी उठे अवलोिक कारनु काह िचत सचिकत रहे।
सब समाचार िकरात कोलिनह आइ तेिह अवसर कहे।।
दो0-सुनत सुमंगल बैन मन पमोद तन पुलक भर।
सरद सरोरह नैन तुलसी भरे सनेह जल।।226।।
–*–*–
बहुिर सोचबस भे िसयरवनू। कारन कवन भरत आगवनू।।
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरगं न थोरी।।
सो सुिन रामिह भा अित सोचू। इत िपतु बच इत बंधु सकोचू।।
भरत सुभाउ समुिझ मन माही। पभु िचत िहत िथित पावत नाही।।
समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने।।
लखन लखेउ पभु हृदयँ खभार। कहत समय सम नीित िबचार।।
िबनु पूँछ कछु कहउँ गोसाई। सेवकु समयँ न ढीठ िढठाई।।
तुमह सबरगय िसरोमिन सवामी। आपिन समुिझ कहउँ अनुगामी।।
दो0-नाथ सुहद सुिठ सरल िचत सील सनेह िनधान।।
सब पर पीित पतीित िजयँ जािनअ आपु समान।।227।।
–*–*–
िबषई जीव पाइ पभुताई। मूढ़ मोह बस होिहं जनाई।।
भरतु नीित रत साधु सुजाना। पभु पद पेम सकल जगु जाना।।
तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई।।
कुिटल कुबध ं कुअवसर ताकी। जािन राम बनवास एकाकी।।
किर कुमंतु मन सािज समाजू। आए करै अकंटक राजू।।
कोिट पकार कलिप कुटलाई। आए दल बटोिर दोउ भाई।।
जौ िजयँ होित न कपट कुचाली। केिह सोहाित रथ बािज गजाली।।
भरतिह दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ।।
दो0-सिस गुर ितय गामी नघुषु चढ़ेउ भूिमसुर जान।
लोक बेद ते िबमुख भा अधम न बेन समान।।228।।
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सहसबाहु सुरनाथु ितसंकू। केिह न राजमद दीनह कलंकू।।
भरत कीनह यह उिचत उपाऊ। िरपु िरन रंच न राखब काऊ।।
एक कीिनह निहं भरत भलाई। िनदरे रामु जािन असहाई।।
समुिझ पिरिह सोउ आजु िबसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी।।
एतना कहत नीित रस भूला। रन रस िबटपु पुलक िमस फूला।।
पभु पद बंिद सीस रज राखी। बोले सतय सहज बलु भाषी।।
अनुिचत नाथ न मानब मोरा। भरत हमिह उपचार न थोरा।।
कहँ लिग सिहअ रिहअ मनु मारे। नाथ साथ धनु हाथ हमारे।।
दो0-छित जाित रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान।
लातहुँ मारे चढ़ित िसर नीच को धूिर समान।।229।।
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उिठ कर जोिर रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा।।
बािध जटा िसर किस किट भाथा। सािज सरासनु सायकु हाथा।।
आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतिह समर िसखावन देऊँ।।
राम िनरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई।।
आइ बना भल सकल समाजू। पगट करउँ िरस पािछल आजू।।
िजिम किर िनकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेिट लवा िजिम बाजू।।
तैसेिहं भरतिह सेन समेता। सानुज िनदिर िनपातउँ खेता।।
जौ सहाय कर संकर आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई।।
दो0-अित सरोष माखे लखनु लिख सुिन सपथ पवान।
सभय लोक सब लोकपित चाहत भभिर भगान।।230।।
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जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु िबपुल बखानी।।
तात पताप पभाउ तुमहारा। को किह सकइ को जानिनहारा।।
अनुिचत उिचत काजु िकछु होऊ। समुिझ किरअ भल कह सबु कोऊ।।
सहसा किर पाछै पिछताही। कहिहं बेद बुध ते बुध नाही।।
सुिन सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीयँ सादर सनमाने।।
कही तात तुमह नीित सुहाई। सब ते किठन राजमदु भाई।।
जो अचवँत नृप मातिहं तेई। नािहन साधुसभा जेिहं सेई।।
सुनहु लखन भल भरत सरीसा। िबिध पपंच महँ सुना न दीसा।।
दो0-भरतिह होइ न राजमदु िबिध हिर हर पद पाइ।।
कबहुँ िक काजी सीकरिन छीरिसंधु िबनसाइ।।231।।
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ितिमर तरन तरिनिह मकु िगलई। गगनु मगन मकु मेघिहं िमलई।।
गोपद जल बूड़िहं घटजोनी। सहज छमा बर छाड़ै छोनी।।
मसक फूँक मकु मेर उड़ाई। होइ न नृपमदु भरतिह भाई।।
लखन तुमहार सपथ िपतु आना। सुिच सुबध ं ु निहं भरत समाना।।
सगुन खीर अवगुन जलु ताता। िमलइ रचइ परपंचु िबधाता।।
भरतु हंस रिबबंस तड़ागा। जनिम कीनह गुन दोष िबभागा।।
गिह गुन पय तिज अवगुन बारी। िनज जस जगत कीिनह उिजआरी।।
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। पेम पयोिध मगन रघुराऊ।।
दो0-सुिन रघुबर बानी िबबुध देिख भरत पर हेतु।
सकल सराहत राम सो पभु को कृपािनकेतु।।232।।
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जौ न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरिन धरत को।।
किब कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुमह िबनु रघुनाथा।।
लखन राम िसयँ सुिन सुर बानी। अित सुखु लहेउ न जाइ बखानी।।
इहा भरतु सब सिहत सहाए। मंदािकनी पुनीत नहाए।।
सिरत समीप रािख सब लोगा। मािग मातु गुर सिचव िनयोगा।।
चले भरतु जहँ िसय रघुराई। साथ िनषादनाथु लघु भाई।।
समुिझ मातु करतब सकुचाही। करत कुतरक कोिट मन माही।।
रामु लखनु िसय सुिन मम नाऊँ। उिठ जिन अनत जािहं तिज ठाऊँ।।
दो0-मातु मते महुँ मािन मोिह जो कछु करिहं सो थोर।
अघ अवगुन छिम आदरिहं समुिझ आपनी ओर।।233।।
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जौ पिरहरिहं मिलन मनु जानी। जौ सनमानिहं सेवकु मानी।।
मोरे सरन रामिह की पनही। राम सुसवािम दोसु सब जनही।।
जग जस भाजन चातक मीना। नेम पेम िनज िनपुन नबीना।।
अस मन गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहँ िसिथल सब गाता।।
फेरत मनहुँ मातु कृत खोरी। चलत भगित बल धीरज धोरी।।
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ।।
भरत दसा तेिह अवसर कैसी। जल पबाहँ जल अिल गित जैसी।।
देिख भरत कर सोचु सनेहू। भा िनषाद तेिह समयँ िबदेहू।।
दो0-लगे होन मंगल सगुन सुिन गुिन कहत िनषादु।
िमिटिह सोचु होइिह हरषु पुिन पिरनाम िबषादु।।234।।
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सेवक बचन सतय सब जाने। आशम िनकट जाइ िनअराने।।
भरत दीख बन सैल समाजू। मुिदत छुिधत जनु पाइ सुनाजू।।
ईित भीित जनु पजा दुखारी। ितिबध ताप पीिड़त गह मारी।।
जाइ सुराज सुदेस सुखारी। होिहं भरत गित तेिह अनुहारी।।
राम बास बन संपित भाजा। सुखी पजा जनु पाइ सुराजा।।
सिचव िबरागु िबबेकु नरेसू। िबिपन सुहावन पावन देसू।।
भट जम िनयम सैल रजधानी। साित सुमित सुिच सुंदर रानी।।
सकल अंग संपन सुराऊ। राम चरन आिशत िचत चाऊ।।
दो0-जीित मोह मिहपालु दल सिहत िबबेक भुआलु।
करत अकंटक राजु पुरँ सुख संपदा सुकालु।।235।।
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बन पदेस मुिन बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे।।
िबपुल िबिचत िबहग मृग नाना। पजा समाजु न जाइ बखाना।।
खगहा किर हिर बाघ बराहा। देिख मिहष बृष साजु सराहा।।
बयर िबहाइ चरिहं एक संगा। जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरगं ा।।
झरना झरिहं मत गज गाजिहं। मनहुँ िनसान िबिबिध िबिध बाजिहं।।
चक चकोर चातक सुक िपक गन। कूजत मंजु मराल मुिदत मन।।
अिलगन गावत नाचत मोरा। जनु सुराज मंगल चहु ओरा।।
बेिल िबटप तृन सफल सफूला। सब समाजु मुद मंगल मूला।।
दो-राम सैल सोभा िनरिख भरत हृदयँ अित पेमु।
तापस तप फलु पाइ िजिम सुखी िसराने नेमु।।236।।
मासपारायण, बीसवा िवशाम
नवाहपारायण, पाचवा िवशाम
तब केवट ऊँचे चिढ़ धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई।।
नाथ देिखअिहं िबटप िबसाला। पाकिर जंबु रसाल तमाला।।
िजनह तरबरनह मधय बटु सोहा। मंजु िबसाल देिख मनु मोहा।।
नील सघन पललव फल लाला। अिबरल छाहँ सुखद सब काला।।
मानहुँ ितिमर अरनमय रासी। िबरची िबिध सँकेिल सुषमा सी।।
ए तर सिरत समीप गोसाई। रघुबर परनकुटी जहँ छाई।।
तुलसी तरबर िबिबध सुहाए। कहुँ कहुँ िसयँ कहुँ लखन लगाए।।
बट छाया बेिदका बनाई। िसयँ िनज पािन सरोज सुहाई।।
दो0-जहा बैिठ मुिनगन सिहत िनत िसय रामु सुजान।
सुनिहं कथा इितहास सब आगम िनगम पुरान।।237।।
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सखा बचन सुिन िबटप िनहारी। उमगे भरत िबलोचन बारी।।
करत पनाम चले दोउ भाई। कहत पीित सारद सकुचाई।।
हरषिहं िनरिख राम पद अंका। मानहुँ पारसु पायउ रंका।।
रज िसर धिर िहयँ नयनिनह लाविहं। रघुबर िमलन सिरस सुख पाविहं।।
देिख भरत गित अकथ अतीवा। पेम मगन मृग खग जड़ जीवा।।
सखिह सनेह िबबस मग भूला। किह सुपथ ं सुर बरषिहं फूला।।
िनरिख िसद साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे।।
होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को।।
दो0-पेम अिमअ मंदर िबरहु भरतु पयोिध गँभीर।
मिथ पगटेउ सुर साधु िहत कृपािसंधु रघुबीर।।238।।
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सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा।।
भरत दीख पभु आशमु पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन।।