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सससससस ससससस

शीजानकीवललभो िवजयते
शीरामचिरतमानस
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पञचम सोपान
सुनदरकाणड
शलोक
शानतं शाशतमपमेयमनघं िनवाणशािनतपदं
बहाशमभुफणीनदसेवयमिनशं वेदानतवेद ं िवभुम् ।
रामाखयं जगदीशरं सुरगुरं मायामनुषयं हिरं
वनदेऽहं करणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामिणम्।।1।।
नानया सपृहा रघुपते हृदयेऽसमदीये
सतयं वदािम च भवानिखलानतरातमा।
भिकतं पयचछ रघुपुङव िनभररा मे
कामािददोषरिहतं कुर मानसं च।।2।।
अतुिलतबलधामं हेमशैलाभदेह ं
दनुजवनकृशानुं जािननामगगणयम्।
सकलगुणिनधानं वानराणामधीशं
रघुपितिपयभकतं वातजातं नमािम।।3।।
जामवंत के बचन सुहाए। सुिन हनुमंत हृदय अित भाए।।
तब लिग मोिह पिरखेहु तुमह भाई। सिह दुख कंद मूल फल खाई।।
जब लिग आवौ सीतिह देखी। होइिह काजु मोिह हरष िबसेषी।।
यह किह नाइ सबिनह कहुँ माथा। चलेउ हरिष िहयँ धिर रघुनाथा।।
िसंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूिद चढ़ेउ ता ऊपर।।
बार बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी।।
ं ा।।
जेिहं िगिर चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरत
िजिम अमोघ रघुपित कर बाना। एही भाित चलेउ हनुमाना।।
जलिनिध रघुपित दूत िबचारी। तै मैनाक होिह शमहारी।।
दो0- हनूमान तेिह परसा कर पुिन कीनह पनाम।
राम काजु कीनहे िबनु मोिह कहा िबशाम।।1।।
–*–*–
जात पवनसुत देवनह देखा। जानै कहुँ बल बुिद िबसेषा।।
सुरसा नाम अिहनह कै माता। पठइिनह आइ कही तेिहं बाता।।
आजु सुरनह मोिह दीनह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा।।
राम काजु किर िफिर मै आवौ। सीता कइ सुिध पभुिह सुनावौ।।
तब तव बदन पैिठहउँ आई। सतय कहउँ मोिह जान दे माई।।
कबनेहुँ जतन देइ निहं जाना। गसिस न मोिह कहेउ हनुमाना।।
जोजन भिर तेिहं बदनु पसारा। किप तनु कीनह दुगुन िबसतारा।।
सोरह जोजन मुख तेिहं ठयऊ। तुरत पवनसुत बितस भयऊ।।
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून किप रप देखावा।।
सत जोजन तेिहं आनन कीनहा। अित लघु रप पवनसुत लीनहा।।
बदन पइिठ पुिन बाहेर आवा। मागा िबदा तािह िसर नावा।।
मोिह सुरनह जेिह लािग पठावा। बुिध बल मरमु तोर मै पावा।।
दो0-राम काजु सबु किरहहु तुमह बल बुिद िनधान।
आिसष देह गई सो हरिष चलेउ हनुमान।।2।।
–*–*–
िनिसचिर एक िसंधु महुँ रहई। किर माया नभु के खग गहई।।
जीव जंतु जे गगन उड़ाही। जल िबलोिक ितनह कै पिरछाही।।
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एिह िबिध सदा गगनचर खाई।।
सोइ छल हनूमान कहँ कीनहा। तासु कपटु किप तुरतिहं चीनहा।।
तािह मािर मारतसुत बीरा। बािरिध पार गयउ मितधीरा।।
तहा जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।
नाना तर फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देिख मन भाए।।
सैल िबसाल देिख एक आगे। ता पर धाइ चढेउ भय तयागे।।
उमा न कछु किप कै अिधकाई। पभु पताप जो कालिह खाई।।
िगिर पर चिढ लंका तेिहं देखी। किह न जाइ अित दुगर िबसेषी।।
अित उतंग जलिनिध चहु पासा। कनक कोट कर परम पकासा।।
छं=कनक कोट िबिचत मिन कृत सुंदरायतना घना।
चउहट हट सुबट बीथी चार पुर बहु िबिध बना।।
गज बािज खचचर िनकर पदचर रथ बरिथनह को गनै।।
बहुरप िनिसचर जूथ अितबल सेन बरनत निहं बनै।।1।।
बन बाग उपबन बािटका सर कूप बापी सोहही।
नर नाग सुर गंधबर कनया रप मुिन मन मोहही।।
कहुँ माल देह िबसाल सैल समान अितबल गजरही।
नाना अखारेनह िभरिहं बहु िबिध एक एकनह तजरही।।2।।
किर जतन भट कोिटनह िबकट तन नगर चहुँ िदिस रचछही।
कहुँ मिहष मानषु धेनु खर अज खल िनसाचर भचछही।।
एिह लािग तुलसीदास इनह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरिनह तयािग गित पैहिहं सही।।3।।
दो0-पुर रखवारे देिख बहु किप मन कीनह िबचार।
अित लघु रप धरौ िनिस नगर करौ पइसार।।3।।
–*–*–
मसक समान रप किप धरी। लंकिह चलेउ सुिमिर नरहरी।।
नाम लंिकनी एक िनिसचरी। सो कह चलेिस मोिह िनंदरी।।
जानेिह नही मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहा लिग चोरा।।
मुिठका एक महा किप हनी। रिधर बमत धरनी ढनमनी।।
पुिन संभािर उिठ सो लंका। जोिर पािन कर िबनय संसका।।
जब रावनिह बह बर दीनहा। चलत िबरंिच कहा मोिह चीनहा।।
िबकल होिस तै किप के मारे। तब जानेसु िनिसचर संघारे।।
तात मोर अित पुनय बहत ू ा। देखेउँ नयन राम कर दूता।।
दो0-तात सवगर अपबगर सुख धिरअ तुला एक अंग।
तूल न तािह सकल िमिल जो सुख लव सतसंग।।4।।
–*–*–
पिबिस नगर कीजे सब काजा। हृदयँ रािख कौसलपुर राजा।।
गरल सुधा िरपु करिहं िमताई। गोपद िसंधु अनल िसतलाई।।
गरड़ सुमेर रेनू सम ताही। राम कृपा किर िचतवा जाही।।
अित लघु रप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुिमिर भगवाना।।
मंिदर मंिदर पित किर सोधा। देखे जहँ तहँ अगिनत जोधा।।
गयउ दसानन मंिदर माही। अित िबिचत किह जात सो नाही।।
सयन िकए देखा किप तेही। मंिदर महुँ न दीिख बैदेही।।
भवन एक पुिन दीख सुहावा। हिर मंिदर तहँ िभन बनावा।।
दो0-रामायुध अंिकत गृह सोभा बरिन न जाइ।
नव तुलिसका बृंद तहँ देिख हरिष किपराइ।।5।।
–*–*–
लंका िनिसचर िनकर िनवासा। इहा कहा सजजन कर बासा।।
मन महुँ तरक करै किप लागा। तेही समय िबभीषनु जागा।।
राम राम तेिहं सुिमरन कीनहा। हृदयँ हरष किप सजजन चीनहा।।
एिह सन हिठ किरहउँ पिहचानी। साधु ते होइ न कारज हानी।।
िबप रप धिर बचन सुनाए। सुनत िबभीषण उिठ तहँ आए।।
किर पनाम पूँछी कुसलाई। िबप कहहु िनज कथा बुझाई।।
की तुमह हिर दासनह महँ कोई। मोरे हृदय पीित अित होई।।
की तुमह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोिह करन बड़भागी।।
दो0-तब हनुमत ं कही सब राम कथा िनज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुिमिर गुन गाम।।6।।
–*–*–
सुनहु पवनसुत रहिन हमारी। िजिम दसनिनह महुँ जीभ िबचारी।।
तात कबहुँ मोिह जािन अनाथा। किरहिहं कृपा भानुकुल नाथा।।
तामस तनु कछु साधन नाही। पीित न पद सरोज मन माही।।
अब मोिह भा भरोस हनुमंता। िबनु हिरकृपा िमलिहं निहं संता।।
जौ रघुबीर अनुगह कीनहा। तौ तुमह मोिह दरसु हिठ दीनहा।।
सुनहु िबभीषन पभु कै रीती। करिहं सदा सेवक पर पीती।।
कहहु कवन मै परम कुलीना। किप चंचल सबही िबिध हीना।।
पात लेइ जो नाम हमारा। तेिह िदन तािह न िमलै अहारा।।
दो0-अस मै अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीनही कृपा सुिमिर गुन भरे िबलोचन नीर।।7।।
–*–*–
जानतहूँ अस सवािम िबसारी। िफरिहं ते काहे न होिहं दुखारी।।
एिह िबिध कहत राम गुन गामा। पावा अिनबाचय िबशामा।।
पुिन सब कथा िबभीषन कही। जेिह िबिध जनकसुता तहँ रही।।
तब हनुमंत कहा सुनु भाता। देखी चहउँ जानकी माता।।
जुगुित िबभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत िबदा कराई।।
किर सोइ रप गयउ पुिन तहवा। बन असोक सीता रह जहवा।।
देिख मनिह महुँ कीनह पनामा। बैठेिहं बीित जात िनिस जामा।।
कृस तन सीस जटा एक बेनी। जपित हृदयँ रघुपित गुन शेनी।।
दो0-िनज पद नयन िदएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देिख जानकी दीन।।8।।
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तर पललव महुँ रहा लुकाई। करइ िबचार करौ का भाई।।
तेिह अवसर रावनु तहँ आवा। संग नािर बहु िकएँ बनावा।।
बहु िबिध खल सीतिह समुझावा। साम दान भय भेद देखावा।।
कह रावनु सुनु सुमुिख सयानी। मंदोदरी आिद सब रानी।।
तव अनुचरी करउँ पन मोरा। एक बार िबलोकु मम ओरा।।
तृन धिर ओट कहित बैदेही। सुिमिर अवधपित परम सनेही।।
सुनु दसमुख खदोत पकासा। कबहँु िक निलनी करइ िबकासा।।
अस मन समुझु कहित जानकी। खल सुिध निहं रघुबीर बान की।।
सठ सूने हिर आनेिह मोिह। अधम िनलजज लाज निहं तोही।।
दो0- आपुिह सुिन खदोत सम रामिह भानु समान।
परष बचन सुिन कािढ़ अिस बोला अित िखिसआन।।9।।
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सीता तै मम कृत अपमाना। किटहउँ तव िसर किठन कृपाना।।
नािहं त सपिद मानु मम बानी। सुमुिख होित न त जीवन हानी।।
सयाम सरोज दाम सम सुंदर। पभु भुज किर कर सम दसकंधर।।
सो भुज कंठ िक तव अिस घोरा। सुनु सठ अस पवान पन मोरा।।
चंदहास हर मम पिरतापं। रघुपित िबरह अनल संजातं।।
सीतल िनिसत बहिस बर धारा। कह सीता हर मम दुख भारा।।
सुनत बचन पुिन मारन धावा। मयतनया किह नीित बुझावा।।
कहेिस सकल िनिसचिरनह बोलाई। सीतिह बहु िबिध तासहु जाई।।
मास िदवस महुँ कहा न माना। तौ मै मारिब कािढ़ कृपाना।।
दो0-भवन गयउ दसकंधर इहा िपसािचिन बृंद।
सीतिह तास देखाविह धरिहं रप बहु मंद।।10।।
–*–*–
ितजटा नाम राचछसी एका। राम चरन रित िनपुन िबबेका।।
सबनहौ बोिल सुनाएिस सपना। सीतिह सेइ करहु िहत अपना।।
सपने बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी।।
खर आरढ़ नगन दससीसा। मुंिडत िसर खंिडत भुज बीसा।।
एिह िबिध सो दिचछन िदिस जाई। लंका मनहुँ िबभीषन पाई।।
नगर िफरी रघुबीर दोहाई। तब पभु सीता बोिल पठाई।।
यह सपना मे कहउँ पुकारी। होइिह सतय गएँ िदन चारी।।
तासु बचन सुिन ते सब डरी। जनकसुता के चरनिनह परी।।
दो0-जहँ तहँ गई सकल तब सीता कर मन सोच।
मास िदवस बीते मोिह मािरिह िनिसचर पोच।।11।।
–*–*–
ितजटा सन बोली कर जोरी। मातु िबपित संिगिन तै मोरी।।
तजौ देह कर बेिग उपाई। दुसहु िबरहु अब निहं सिह जाई।।
आिन काठ रचु िचता बनाई। मातु अनल पुिन देिह लगाई।।
सतय करिह मम पीित सयानी। सुनै को शवन सूल सम बानी।।
सुनत बचन पद गिह समुझाएिस। पभु पताप बल सुजसु सुनाएिस।।
िनिस न अनल िमल सुनु सुकुमारी। अस किह सो िनज भवन िसधारी।।
कह सीता िबिध भा पितकूला। िमलिह न पावक िमिटिह न सूला।।
देिखअत पगट गगन अंगारा। अविन न आवत एकउ तारा।।
पावकमय सिस सतवत न आगी। मानहुँ मोिह जािन हतभागी।।
सुनिह िबनय मम िबटप असोका। सतय नाम कर हर मम सोका।।
नूतन िकसलय अनल समाना। देिह अिगिन जिन करिह िनदाना।।
देिख परम िबरहाकुल सीता। सो छन किपिह कलप सम बीता।।
सो0-किप किर हृदयँ िबचार दीिनह मुिदका डारी तब।
जनु असोक अंगार दीिनह हरिष उिठ कर गहेउ।।12।।
तब देखी मुिदका मनोहर। राम नाम अंिकत अित सुंदर।।
चिकत िचतव मुदरी पिहचानी। हरष िबषाद हृदयँ अकुलानी।।
जीित को सकइ अजय रघुराई। माया ते अिस रिच निहं जाई।।
सीता मन िबचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना।।
रामचंद गुन बरनै लागा। सुनतिहं सीता कर दुख भागा।।
लागी सुनै शवन मन लाई। आिदहु ते सब कथा सुनाई।।
शवनामृत जेिहं कथा सुहाई। किह सो पगट होित िकन भाई।।
तब हनुमंत िनकट चिल गयऊ। िफिर बैठी मन िबसमय भयऊ।।
राम दूत मै मातु जानकी। सतय सपथ करनािनधान की।।
यह मुिदका मातु मै आनी। दीिनह राम तुमह कहँ सिहदानी।।
नर बानरिह संग कहु कैसे। किह कथा भइ संगित जैसे।।
दो0-किप के बचन सपेम सुिन उपजा मन िबसवास।।
जाना मन कम बचन यह कृपािसंधु कर दास।।13।।
–*–*–
हिरजन जािन पीित अित गाढ़ी। सजल नयन पुलकाविल बाढ़ी।।
बूड़त िबरह जलिध हनुमाना। भयउ तात मो कहुँ जलजाना।।
अब कहु कुसल जाउँ बिलहारी। अनुज सिहत सुख भवन खरारी।।
कोमलिचत कृपाल रघुराई। किप केिह हेतु धरी िनठुराई।।
सहज बािन सेवक सुख दायक। कबहुँक सुरित करत रघुनायक।।
कबहुँ नयन मम सीतल ताता। होइहिह िनरिख सयाम मृदु गाता।।
बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ हौ िनपट िबसारी।।
देिख परम िबरहाकुल सीता। बोला किप मृदु बचन िबनीता।।
मातु कुसल पभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा िनकेता।।
जिन जननी मानहु िजयँ ऊना। तुमह ते पेमु राम के दूना।।
दो0-रघुपित कर संदेसु अब सुनु जननी धिर धीर।
अस किह किप गद गद भयउ भरे िबलोचन नीर।।14।।
–*–*–
कहेउ राम िबयोग तव सीता। मो कहँु सकल भए िबपरीता।।
नव तर िकसलय मनहुँ कृसानू। कालिनसा सम िनिस सिस भानू।।
कुबलय िबिपन कु ंत बन सिरसा। बािरद तपत तेल जनु बिरसा।।
जे िहत रहे करत तेइ पीरा। उरग सवास सम ितिबध समीरा।।
कहेहू ते कछु दुख घिट होई। कािह कहौ यह जान न कोई।।
ततव पेम कर मम अर तोरा। जानत िपया एकु मनु मोरा।।
सो मनु सदा रहत तोिह पाही। जानु पीित रसु एतेनिह माही।।
पभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन पेम तन सुिध निहं तेही।।
कह किप हृदयँ धीर धर माता। सुिमर राम सेवक सुखदाता।।
उर आनहु रघुपित पभुताई। सुिन मम बचन तजहु कदराई।।
दो0-िनिसचर िनकर पतंग सम रघुपित बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धर जरे िनसाचर जानु।।15।।
–*–*–
जौ रघुबीर होित सुिध पाई। करते निहं िबलंबु रघुराई।।
रामबान रिब उएँ जानकी। तम बरथ कहँ जातुधान की।।
अबिहं मातु मै जाउँ लवाई। पभु आयसु निहं राम दोहाई।।
कछुक िदवस जननी धर धीरा। किपनह सिहत अइहिहं रघुबीरा।।
िनिसचर मािर तोिह लै जैहिहं। ितहुँ पुर नारदािद जसु गैहिहं।।
है सुत किप सब तुमहिह समाना। जातुधान अित भट बलवाना।।
मोरे हृदय परम संदेहा। सुिन किप पगट कीनह िनज देहा।।
कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अितबल बीरा।।
सीता मन भरोस तब भयऊ। पुिन लघु रप पवनसुत लयऊ।।
दो0-सुनु माता साखामृग निहं बल बुिद िबसाल।
पभु पताप ते गरड़िह खाइ परम लघु बयाल।।16।।
–*–*–
मन संतोष सुनत किप बानी। भगित पताप तेज बल सानी।।
आिसष दीिनह रामिपय जाना। होहु तात बल सील िनधाना।।
अजर अमर गुनिनिध सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू।।
करहुँ कृपा पभु अस सुिन काना। िनभरर पेम मगन हनुमाना।।
बार बार नाएिस पद सीसा। बोला बचन जोिर कर कीसा।।
अब कृतकृतय भयउँ मै माता। आिसष तव अमोघ िबखयाता।।
सुनहु मातु मोिह अितसय भूखा। लािग देिख सुंदर फल रखा।।
सुनु सुत करिहं िबिपन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी।।
ितनह कर भय माता मोिह नाही। जौ तुमह सुख मानहु मन माही।।
दो0-देिख बुिद बल िनपुन किप कहेउ जानकी जाहु।
रघुपित चरन हृदयँ धिर तात मधुर फल खाहु।।17।।
–*–*–
चलेउ नाइ िसर पैठेउ बागा। फल खाएिस तर तोरै लागा।।
रहे तहा बहु भट रखवारे। कछु मारेिस कछु जाइ पुकारे।।
नाथ एक आवा किप भारी। तेिहं असोक बािटका उजारी।।
खाएिस फल अर िबटप उपारे। रचछक मिदर मिदर मिह डारे।।
सुिन रावन पठए भट नाना। ितनहिह देिख गजेउ हनुमाना।।
सब रजनीचर किप संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे।।
पुिन पठयउ तेिहं अचछकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा।।
आवत देिख िबटप गिह तजा। तािह िनपाित महाधुिन गजा।।
दो0-कछु मारेिस कछु मदेिस कछु िमलएिस धिर धूिर।
कछु पुिन जाइ पुकारे पभु मकरट बल भूिर।।18।।
–*–*–
सुिन सुत बध लंकेस िरसाना। पठएिस मेघनाद बलवाना।।
मारिस जिन सुत बाधेसु ताही। देिखअ किपिह कहा कर आही।।
चला इंदिजत अतुिलत जोधा। बंधु िनधन सुिन उपजा कोधा।।
किप देखा दारन भट आवा। कटकटाइ गजा अर धावा।।
अित िबसाल तर एक उपारा। िबरथ कीनह लंकेस कुमारा।।
रहे महाभट ताके संगा। गिह गिह किप मदरइ िनज अंगा।।
ितनहिह िनपाित तािह सन बाजा। िभरे जुगल मानहुँ गजराजा।
मुिठका मािर चढ़ा तर जाई। तािह एक छन मुरछा आई।।
उिठ बहोिर कीिनहिस बहु माया। जीित न जाइ पभंजन जाया।।
दो0-बह असत तेिहं साधा किप मन कीनह िबचार।
जौ न बहसर मानउँ मिहमा िमटइ अपार।।19।।
–*–*–
बहबान किप कहुँ तेिह मारा। परितहुँ बार कटकु संघारा।।
तेिह देखा किप मुरिछत भयऊ। नागपास बाधेिस लै गयऊ।।
जासु नाम जिप सुनहु भवानी। भव बंधन काटिहं नर गयानी।।
तासु दूत िक बंध तर आवा। पभु कारज लिग किपिहं बँधावा।।
किप बंधन सुिन िनिसचर धाए। कौतुक लािग सभा सब आए।।
दसमुख सभा दीिख किप जाई। किह न जाइ कछु अित पभुताई।।
कर जोरे सुर िदिसप िबनीता। भृकुिट िबलोकत सकल सभीता।।
देिख पताप न किप मन संका। िजिम अिहगन महुँ गरड़ असंका।।
दो0-किपिह िबलोिक दसानन िबहसा किह दुबाद।
सुत बध सुरित कीिनह पुिन उपजा हृदयँ िबषाद।।20।।
–*–*–
कह लंकेस कवन तै कीसा। केिहं के बल घालेिह बन खीसा।।
की धौ शवन सुनेिह निहं मोही। देखउँ अित असंक सठ तोही।।
मारे िनिसचर केिहं अपराधा। कहु सठ तोिह न पान कइ बाधा।।
सुन रावन बहाड िनकाया। पाइ जासु बल िबरिचत माया।।
जाके बल िबरंिच हिर ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा।
जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत िगिर कानन।।
धरइ जो िबिबध देह सुरताता। तुमह ते सठनह िसखावनु दाता।
हर कोदंड किठन जेिह भंजा। तेिह समेत नृप दल मद गंजा।।
खर दूषन ितिसरा अर बाली। बधे सकल अतुिलत बलसाली।।
दो0-जाके बल लवलेस ते िजतेहु चराचर झािर।
तासु दूत मै जा किर हिर आनेहु िपय नािर।।21।।
–*–*–
जानउँ मै तुमहािर पभुताई। सहसबाहु सन परी लराई।।
समर बािल सन किर जसु पावा। सुिन किप बचन िबहिस िबहरावा।।
खायउँ फल पभु लागी भूँखा। किप सुभाव ते तोरेउँ रखा।।
सब के देह परम िपय सवामी। मारिहं मोिह कुमारग गामी।।
िजनह मोिह मारा ते मै मारे। तेिह पर बाधेउ तनयँ तुमहारे।।
मोिह न कछु बाधे कइ लाजा। कीनह चहउँ िनज पभु कर काजा।।
िबनती करउँ जोिर कर रावन। सुनहु मान तिज मोर िसखावन।।
देखहु तुमह िनज कुलिह िबचारी। भम तिज भजहु भगत भय हारी।।
जाके डर अित काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई।।
तासो बयर कबहुँ निहं कीजै। मोरे कहे जानकी दीजै।।
दो0-पनतपाल रघुनायक करना िसंधु खरािर।
गएँ सरन पभु रािखहै तव अपराध िबसािर।।22।।
–*–*–
राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राज तुमह करहू।।
िरिष पुिलसत जसु िबमल मंयका। तेिह सिस महुँ जिन होहु कलंका।।
राम नाम िबनु िगरा न सोहा। देखु िबचािर तयािग मद मोहा।।
बसन हीन निहं सोह सुरारी। सब भूषण भूिषत बर नारी।।
राम िबमुख संपित पभुताई। जाइ रही पाई िबनु पाई।।
सजल मूल िजनह सिरतनह नाही। बरिष गए पुिन तबिहं सुखाही।।
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। िबमुख राम ताता निहं कोपी।।
संकर सहस िबषनु अज तोही। सकिहं न रािख राम कर दोही।।
दो0-मोहमूल बहु सूल पद तयागहु तम अिभमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा िसंधु भगवान।।23।।
–*–*–
जदिप किह किप अित िहत बानी। भगित िबबेक िबरित नय सानी।।
बोला िबहिस महा अिभमानी। िमला हमिह किप गुर बड़ गयानी।।
मृतयु िनकट आई खल तोही। लागेिस अधम िसखावन मोही।।
उलटा होइिह कह हनुमाना। मितभम तोर पगट मै जाना।।
सुिन किप बचन बहुत िखिसआना। बेिग न हरहुँ मूढ़ कर पाना।।
सुनत िनसाचर मारन धाए। सिचवनह सिहत िबभीषनु आए।
नाइ सीस किर िबनय बहूता। नीित िबरोध न मािरअ दूता।।
आन दंड कछु किरअ गोसाई। सबही कहा मंत भल भाई।।
सुनत िबहिस बोला दसकंधर। अंग भंग किर पठइअ बंदर।।
दो-किप के ममता पूँछ पर सबिह कहउँ समुझाइ।
तेल बोिर पट बािध पुिन पावक देहु लगाइ।।24।।
पूँछहीन बानर तहँ जाइिह। तब सठ िनज नाथिह लइ आइिह।।
िजनह कै कीनहिस बहुत बड़ाई। देखेउँû मै ितनह कै पभुताई।।
बचन सुनत किप मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मै जाना।।
जातुधान सुिन रावन बचना। लागे रचै मूढ़ सोइ रचना।।
रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीनह किप खेला।।
कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारिहं चरन करिहं बहु हासी।।
बाजिहं ढोल देिहं सब तारी। नगर फेिर पुिन पूँछ पजारी।।
पावक जरत देिख हनुमंता। भयउ परम लघु रप तुरत ं ा।।
िनबुिक चढ़ेउ किप कनक अटारी। भई सभीत िनसाचर नारी।।
दो0-हिर पेिरत तेिह अवसर चले मरत उनचास।
अटहास किर गजर éाा ा ााा क िपबिढ़लागअकास।।25।।
–*–*–
देह िबसाल परम हरआई। मंिदर ते मंिदर चढ़ धाई।।
जरइ नगर भा लोग िबहाला। झपट लपट बहु कोिट कराला।।
तात मातु हा सुिनअ पुकारा। एिह अवसर को हमिह उबारा।।
हम जो कहा यह किप निहं होई। बानर रप धरे सुर कोई।।
साधु अवगया कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा।।
जारा नगर िनिमष एक माही। एक िबभीषन कर गृह नाही।।
ता कर दूत अनल जेिहं िसिरजा। जरा न सो तेिह कारन िगिरजा।।
उलिट पलिट लंका सब जारी। कूिद परा पुिन िसंधु मझारी।।
दो0-पूँछ बुझाइ खोइ शम धिर लघु रप बहोिर।
जनकसुता के आगे ठाढ़ भयउ कर जोिर।।26।।
–*–*–
मातु मोिह दीजे कछु चीनहा। जैसे रघुनायक मोिह दीनहा।।
चूड़ामिन उतािर तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ।।
कहेहु तात अस मोर पनामा। सब पकार पभु पूरनकामा।।
दीन दयाल िबिरदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।
तात सकसुत कथा सुनाएहु। बान पताप पभुिह समुझाएहु।।
मास िदवस महुँ नाथु न आवा। तौ पुिन मोिह िजअत निहं पावा।।
कहु किप केिह िबिध राखौ पाना। तुमहहू तात कहत अब जाना।।
तोिह देिख सीतिल भइ छाती। पुिन मो कहुँ सोइ िदनु सो राती।।
दो0-जनकसुतिह समुझाइ किर बहु िबिध धीरजु दीनह।
चरन कमल िसर नाइ किप गवनु राम पिहं कीनह।।27।।
–*–*–
चलत महाधुिन गजेिस भारी। गभर सतविहं सुिन िनिसचर नारी।।
नािघ िसंधु एिह पारिह आवा। सबद िकलिकला किपनह सुनावा।।
हरषे सब िबलोिक हनुमाना। नूतन जनम किपनह तब जाना।।
मुख पसन तन तेज िबराजा। कीनहेिस रामचनद कर काजा।।
िमले सकल अित भए सुखारी। तलफत मीन पाव िजिम बारी।।
चले हरिष रघुनायक पासा। पूँछत कहत नवल इितहासा।।
तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए।।
रखवारे जब बरजन लागे। मुिष पहार हनत सब भागे।।
दो0-जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुिन सुगीव हरष किप किर आए पभु काज।।28।।
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जौ न होित सीता सुिध पाई। मधुबन के फल सकिहं िक खाई।।
एिह िबिध मन िबचार कर राजा। आइ गए किप सिहत समाजा।।
आइ सबिनह नावा पद सीसा। िमलेउ सबिनह अित पेम कपीसा।।
पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपा भा काजु िबसेषी।।
नाथ काजु कीनहेउ हनुमाना। राखे सकल किपनह के पाना।।
सुिन सुगीव बहुिर तेिह िमलेऊ। किपनह सिहत रघुपित पिहं चलेऊ।
राम किपनह जब आवत देखा। िकएँ काजु मन हरष िबसेषा।।
फिटक िसला बैठे दौ भाई। परे सकल किप चरनिनह जाई।।
दो0-पीित सिहत सब भेटे रघुपित करना पुंज।
पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देिख पद कंज।।29।।
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जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुमह दाया।।
तािह सदा सुभ कुसल िनरंतर। सुर नर मुिन पसन ता ऊपर।।
सोइ िबजई िबनई गुन सागर। तासु सुजसु तेलोक उजागर।।
पभु की कृपा भयउ सबु काजू। जनम हमार सुफल भा आजू।।
नाथ पवनसुत कीिनह जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी।।
पवनतनय के चिरत सुहाए। जामवंत रघुपितिह सुनाए।।
सुनत कृपािनिध मन अित भाए। पुिन हनुमान हरिष िहयँ लाए।।
कहहु तात केिह भाित जानकी। रहित करित रचछा सवपान की।।
दो0-नाम पाहर िदवस िनिस धयान तुमहार कपाट।
लोचन िनज पद जंितत जािहं पान केिहं बाट।।30।।
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चलत मोिह चूड़ामिन दीनही। रघुपित हृदयँ लाइ सोइ लीनही।।
नाथ जुगल लोचन भिर बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी।।
अनुज समेत गहेहु पभु चरना। दीन बंधु पनतारित हरना।।
मन कम बचन चरन अनुरागी। केिह अपराध नाथ हौ तयागी।।
अवगुन एक मोर मै माना। िबछुरत पान न कीनह पयाना।।
नाथ सो नयनिनह को अपराधा। िनसरत पान किरिहं हिठ बाधा।।
िबरह अिगिन तनु तूल समीरा। सवास जरइ छन मािहं सरीरा।।
नयन सतविह जलु िनज िहत लागी। जरै न पाव देह िबरहागी।
सीता के अित िबपित िबसाला। िबनिहं कहे भिल दीनदयाला।।
दो0-िनिमष िनिमष करनािनिध जािहं कलप सम बीित।
बेिग चिलय पभु आिनअ भुज बल खल दल जीित।।31।।
–*–*–
सुिन सीता दुख पभु सुख अयना। भिर आए जल रािजव नयना।।
बचन काय मन मम गित जाही। सपनेहँु बूिझअ िबपित िक ताही।।
कह हनुमत ं िबपित पभु सोई। जब तव सुिमरन भजन न होई।।
केितक बात पभु जातुधान की। िरपुिह जीित आिनबी जानकी।।
सुनु किप तोिह समान उपकारी। निहं कोउ सुर नर मुिन तनुधारी।।
पित उपकार करौ का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा।।
सुनु सुत उिरन मै नाही। देखेउँ किर िबचार मन माही।।
पुिन पुिन किपिह िचतव सुरताता। लोचन नीर पुलक अित गाता।।
दो0-सुिन पभु बचन िबलोिक मुख गात हरिष हनुमंत।
चरन परेउ पेमाकुल तािह तािह भगवंत।।32।।
–*–*–
बार बार पभु चहइ उठावा। पेम मगन तेिह उठब न भावा।।
पभु कर पंकज किप के सीसा। सुिमिर सो दसा मगन गौरीसा।।
सावधान मन किर पुिन संकर। लागे कहन कथा अित सुंदर।।
किप उठाइ पभु हृदयँ लगावा। कर गिह परम िनकट बैठावा।।
कहु किप रावन पािलत लंका। केिह िबिध दहेउ दुगर अित बंका।।
पभु पसन जाना हनुमाना। बोला बचन िबगत अिभमाना।।
साखामृग के बिड़ मनुसाई। साखा ते साखा पर जाई।।
नािघ िसंधु हाटकपुर जारा। िनिसचर गन िबिध िबिपन उजारा।
सो सब तव पताप रघुराई। नाथ न कछू मोिर पभुताई।।
दो0- ता कहुँ पभु कछु अगम निहं जा पर तुमह अनुकुल।
तब पभावँ बड़वानलिहं जािर सकइ खलु तूल।।33।।
–*–*–
नाथ भगित अित सुखदायनी। देहु कृपा किर अनपायनी।।
सुिन पभु परम सरल किप बानी। एवमसतु तब कहेउ भवानी।।
उमा राम सुभाउ जेिहं जाना। तािह भजनु तिज भाव न आना।।
यह संवाद जासु उर आवा। रघुपित चरन भगित सोइ पावा।।
सुिन पभु बचन कहिहं किपबृंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा।।
तब रघुपित किपपितिह बोलावा। कहा चलै कर करहु बनावा।।
अब िबलंबु केिह कारन कीजे। तुरत किपनह कहुँ आयसु दीजे।।
कौतुक देिख सुमन बहु बरषी। नभ ते भवन चले सुर हरषी।।
दो0-किपपित बेिग बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरथ।।34।।
–*–*–
पभु पद पंकज नाविहं सीसा। गरजिहं भालु महाबल कीसा।।
देखी राम सकल किप सेना। िचतइ कृपा किर रािजव नैना।।
राम कृपा बल पाइ किपंदा। भए पचछजुत मनहुँ िगिरंदा।।
हरिष राम तब कीनह पयाना। सगुन भए सुंदर सुभ नाना।।
जासु सकल मंगलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती।।
पभु पयान जाना बैदेही। फरिक बाम अँग जनु किह देही।।
जोइ जोइ सगुन जानिकिह होई। असगुन भयउ रावनिह सोई।।
चला कटकु को बरनै पारा। गजरिह बानर भालु अपारा।।
नख आयुध िगिर पादपधारी। चले गगन मिह इचछाचारी।।
केहिरनाद भालु किप करही। डगमगािहं िदगगज िचकरही।।
छं0-िचकरिहं िदगगज डोल मिह िगिर लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधबर सुर मुिन नाग िकनर दुख टरे।।
कटकटिहं मकरट िबकट भट बहु कोिट कोिटनह धावही।
जय राम पबल पताप कोसलनाथ गुन गन गावही।।1।।
सिह सक न भार उदार अिहपित बार बारिहं मोहई।
गह दसन पुिन पुिन कमठ पृष कठोर सो िकिम सोहई।।
रघुबीर रिचर पयान पिसथित जािन परम सुहावनी।
जनु कमठ खपरर सपरराज सो िलखत अिबचल पावनी।।2।।
दो0-एिह िबिध जाइ कृपािनिध उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु िबपुल किप बीर।।35।।
–*–*–
उहा िनसाचर रहिहं ससंका। जब ते जािर गयउ किप लंका।।
िनज िनज गृहँ सब करिहं िबचारा। निहं िनिसचर कुल केर उबारा।।
जासु दूत बल बरिन न जाई। तेिह आएँ पुर कवन भलाई।।
दूतिनह सन सुिन पुरजन बानी। मंदोदरी अिधक अकुलानी।।
रहिस जोिर कर पित पग लागी। बोली बचन नीित रस पागी।।
कंत करष हिर सन पिरहरहू। मोर कहा अित िहत िहयँ धरहु।।
समुझत जासु दूत कइ करनी। सतवही गभर रजनीचर धरनी।।
तासु नािर िनज सिचव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई।।
तब कुल कमल िबिपन दुखदाई। सीता सीत िनसा सम आई।।
सुनहु नाथ सीता िबनु दीनहे। िहत न तुमहार संभु अज कीनहे।।
दो0–राम बान अिह गन सिरस िनकर िनसाचर भेक।
जब लिग गसत न तब लिग जतनु करहु तिज टेक।।36।।
–*–*–
शवन सुनी सठ ता किर बानी। िबहसा जगत िबिदत अिभमानी।।
सभय सुभाउ नािर कर साचा। मंगल महुँ भय मन अित काचा।।
जौ आवइ मकरट कटकाई। िजअिहं िबचारे िनिसचर खाई।।
कंपिहं लोकप जाकी तासा। तासु नािर सभीत बिड़ हासा।।
अस किह िबहिस तािह उर लाई। चलेउ सभा ममता अिधकाई।।
मंदोदरी हृदयँ कर िचंता। भयउ कंत पर िबिध िबपरीता।।
बैठेउ सभा खबिर अिस पाई। िसंधु पार सेना सब आई।।
बूझेिस सिचव उिचत मत कहह। ू ते सब हँसे मष किर रहह। ू ।
िजतेहु सुरासुर तब शम नाही। नर बानर केिह लेखे माही।।
दो0-सिचव बैद गुर तीिन जौ िपय बोलिहं भय आस।
राज धमर तन तीिन कर होइ बेिगही नास।।37।।
–*–*–
सोइ रावन कहुँ बिन सहाई। असतुित करिहं सुनाइ सुनाई।।
अवसर जािन िबभीषनु आवा। भाता चरन सीसु तेिहं नावा।।
पुिन िसर नाइ बैठ िनज आसन। बोला बचन पाइ अनुसासन।।
जौ कृपाल पूँिछहु मोिह बाता। मित अनुरप कहउँ िहत ताता।।
जो आपन चाहै कलयाना। सुजसु सुमित सुभ गित सुख नाना।।
सो परनािर िललार गोसाई। तजउ चउिथ के चंद िक नाई।।
चौदह भुवन एक पित होई। भूतदोह ितषइ निहं सोई।।
गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ।।
दो0- काम कोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब पिरहिर रघुबीरिह भजहु भजिहं जेिह संत।।38।।
–*–*–
तात राम निहं नर भूपाला। भुवनेसवर कालहु कर काला।।
बह अनामय अज भगवंता। बयापक अिजत अनािद अनंता।।
गो िदज धेनु देव िहतकारी। कृपािसंधु मानुष तनुधारी।।
जन रंजन भंजन खल बाता। बेद धमर रचछक सुनु भाता।।
तािह बयर तिज नाइअ माथा। पनतारित भंजन रघुनाथा।।
देहु नाथ पभु कहुँ बैदेही। भजहु राम िबनु हेतु सनेही।।
सरन गएँ पभु ताहु न तयागा। िबसव दोह कृत अघ जेिह लागा।।
जासु नाम तय ताप नसावन। सोइ पभु पगट समुझु िजयँ रावन।।
दो0-बार बार पद लागउँ िबनय करउँ दससीस।
पिरहिर मान मोह मद भजहु कोसलाधीस।।39(क)।।
मुिन पुलिसत िनज िसषय सन किह पठई यह बात।
तुरत सो मै पभु सन कही पाइ सुअवसर तात।।39(ख)।।
–*–*–
मालयवंत अित सिचव सयाना। तासु बचन सुिन अित सुख माना।।
तात अनुज तव नीित िबभूषन। सो उर धरहु जो कहत िबभीषन।।
िरपु उतकरष कहत सठ दोऊ। दूिर न करहु इहा हइ कोऊ।।
मालयवंत गृह गयउ बहोरी। कहइ िबभीषनु पुिन कर जोरी।।
सुमित कुमित सब के उर रहही। नाथ पुरान िनगम अस कहही।।
जहा सुमित तहँ संपित नाना। जहा कुमित तहँ िबपित िनदाना।।
तव उर कुमित बसी िबपरीता। िहत अनिहत मानहु िरपु पीता।।
कालराित िनिसचर कुल केरी। तेिह सीता पर पीित घनेरी।।
दो0-तात चरन गिह मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीत देहु राम कहुँ अिहत न होइ तुमहार।।40।।
–*–*–
बुध पुरान शुित संमत बानी। कही िबभीषन नीित बखानी।।
सुनत दसानन उठा िरसाई। खल तोिह िनकट मुतयु अब आई।।
िजअिस सदा सठ मोर िजआवा। िरपु कर पचछ मूढ़ तोिह भावा।।
कहिस न खल अस को जग माही। भुज बल जािह िजता मै नाही।।
मम पुर बिस तपिसनह पर पीती। सठ िमलु जाइ ितनहिह कहु नीती।।
अस किह कीनहेिस चरन पहारा। अनुज गहे पद बारिहं बारा।।
उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई।।
तुमह िपतु सिरस भलेिहं मोिह मारा। रामु भजे िहत नाथ तुमहारा।।
सिचव संग लै नभ पथ गयऊ। सबिह सुनाइ कहत अस भयऊ।।
दो0=रामु सतयसंकलप पभु सभा कालबस तोिर।
मै रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जिन खोिर।।41।।
–*–*–
अस किह चला िबभीषनु जबही। आयूहीन भए सब तबही।।
साधु अवगया तुरत भवानी। कर कलयान अिखल कै हानी।।
रावन जबिहं िबभीषन तयागा। भयउ िबभव िबनु तबिहं अभागा।।
चलेउ हरिष रघुनायक पाही। करत मनोरथ बहु मन माही।।
देिखहउँ जाइ चरन जलजाता। अरन मृदुल सेवक सुखदाता।।
जे पद परिस तरी िरिषनारी। दंडक कानन पावनकारी।।
जे पद जनकसुता उर लाए। कपट कुरगं संग धर धाए।।
हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभागय मै देिखहउँ तेई।।
दो0= िजनह पायनह के पादुकिनह भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु िबलोिकहउँ इनह नयनिनह अब जाइ।।42।।
–*–*–
एिह िबिध करत सपेम िबचारा। आयउ सपिद िसंधु एिहं पारा।।
किपनह िबभीषनु आवत देखा। जाना कोउ िरपु दूत िबसेषा।।
तािह रािख कपीस पिहं आए। समाचार सब तािह सुनाए।।
कह सुगीव सुनहु रघुराई। आवा िमलन दसानन भाई।।
कह पभु सखा बूिझऐ काहा। कहइ कपीस सुनहु नरनाहा।।
जािन न जाइ िनसाचर माया। कामरप केिह कारन आया।।
भेद हमार लेन सठ आवा। रािखअ बािध मोिह अस भावा।।
सखा नीित तुमह नीिक िबचारी। मम पन सरनागत भयहारी।।
सुिन पभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बचछल भगवाना।।
दो0=सरनागत कहुँ जे तजिहं िनज अनिहत अनुमािन।
ते नर पावँर पापमय ितनहिह िबलोकत हािन।।43।।
–*–*–
कोिट िबप बध लागिहं जाहू। आएँ सरन तजउँ निहं ताहू।।
सनमुख होइ जीव मोिह जबही। जनम कोिट अघ नासिहं तबही।।
पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेिह भाव न काऊ।।
जौ पै दुषहदय सोइ होई। मोरे सनमुख आव िक सोई।।
िनमरल मन जन सो मोिह पावा। मोिह कपट छल िछद न भावा।।
भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हािन कपीसा।।
जग महुँ सखा िनसाचर जेते। लिछमनु हनइ िनिमष महुँ तेते।।
जौ सभीत आवा सरनाई। रिखहउँ तािह पान की नाई।।
दो0=उभय भाित तेिह आनहु हँिस कह कृपािनकेत।
जय कृपाल किह चले अंगद हनू समेत।।44।।
–*–*–
सादर तेिह आगे किर बानर। चले जहा रघुपित करनाकर।।
दूिरिह ते देखे दौ भाता। नयनानंद दान के दाता।।
बहुिर राम छिबधाम िबलोकी। रहेउ ठटुिक एकटक पल रोकी।।
भुज पलंब कंजारन लोचन। सयामल गात पनत भय मोचन।।
िसंघ कंध आयत उर सोहा। आनन अिमत मदन मन मोहा।।
नयन नीर पुलिकत अित गाता। मन धिर धीर कही मृदु बाता।।
नाथ दसानन कर मै भाता। िनिसचर बंस जनम सुरताता।।
सहज पापिपय तामस देहा। जथा उलूकिह तम पर नेहा।।
दो0-शवन सुजसु सुिन आयउँ पभु भंजन भव भीर।
तािह तािह आरित हरन सरन सुखद रघुबीर।।45।।
–*–*–
अस किह करत दंडवत देखा। तुरत उठे पभु हरष िबसेषा।।
दीन बचन सुिन पभु मन भावा। भुज िबसाल गिह हृदयँ लगावा।।
अनुज सिहत िमिल िढग बैठारी। बोले बचन भगत भयहारी।।
कहु लंकेस सिहत पिरवारा। कुसल कुठाहर बास तुमहारा।।
खल मंडली बसहु िदनु राती। सखा धरम िनबहइ केिह भाती।।
मै जानउँ तुमहािर सब रीती। अित नय िनपुन न भाव अनीती।।
बर भल बास नरक कर ताता। दुष संग जिन देइ िबधाता।।
अब पद देिख कुसल रघुराया। जौ तुमह कीनह जािन जन दाया।।
दो0-तब लिग कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन िबशाम।
जब लिग भजत न राम कहुँ सोक धाम तिज काम।।46।।
–*–*–
तब लिग हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मचछर मद माना।।
जब लिग उर न बसत रघुनाथा। धरे चाप सायक किट भाथा।।
ममता तरन तमी अँिधआरी। राग देष उलूक सुखकारी।।
तब लिग बसित जीव मन माही। जब लिग पभु पताप रिब नाही।।
अब मै कुसल िमटे भय भारे। देिख राम पद कमल तुमहारे।।
तुमह कृपाल जा पर अनुकूला। तािह न बयाप ितिबध भव सूला।।
मै िनिसचर अित अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीनह निहं काऊ।।
जासु रप मुिन धयान न आवा। तेिहं पभु हरिष हृदयँ मोिह लावा।।
दो0–अहोभागय मम अिमत अित राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन िबरंिच िसब सेबय जुगल पद कंज।।47।।
–*–*–
सुनहु सखा िनज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंिड संभु िगिरजाऊ।।
जौ नर होइ चराचर दोही। आवे सभय सरन तिक मोही।।
तिज मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद तेिह साधु समाना।।
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहद पिरवारा।।
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनिह बाध बिर डोरी।।
समदरसी इचछा कछु नाही। हरष सोक भय निहं मन माही।।
अस सजजन मम उर बस कैसे। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसे।।
तुमह सािरखे संत िपय मोरे। धरउँ देह निहं आन िनहोरे।।
दो0- सगुन उपासक परिहत िनरत नीित दृढ़ नेम।
ते नर पान समान मम िजनह के िदज पद पेम।।48।।
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सुनु लंकेस सकल गुन तोरे। ताते तुमह अितसय िपय मोरे।।
राम बचन सुिन बानर जूथा। सकल कहिहं जय कृपा बरथा।।
सुनत िबभीषनु पभु कै बानी। निहं अघात शवनामृत जानी।।
पद अंबुज गिह बारिहं बारा। हृदयँ समात न पेमु अपारा।।
सुनहु देव सचराचर सवामी। पनतपाल उर अंतरजामी।।
उर कछु पथम बासना रही। पभु पद पीित सिरत सो बही।।
अब कृपाल िनज भगित पावनी। देहु सदा िसव मन भावनी।।
एवमसतु किह पभु रनधीरा। मागा तुरत िसंधु कर नीरा।।
जदिप सखा तव इचछा नाही। मोर दरसु अमोघ जग माही।।
अस किह राम ितलक तेिह सारा। सुमन बृिष नभ भई अपारा।।
दो0-रावन कोध अनल िनज सवास समीर पचंड।
जरत िबभीषनु राखेउ दीनहेहु राजु अखंड।।49(क)।।
जो संपित िसव रावनिह दीिनह िदएँ दस माथ।
सोइ संपदा िबभीषनिह सकुिच दीनह रघुनाथ।।49(ख)।।
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अस पभु छािड़ भजिहं जे आना। ते नर पसु िबनु पूँछ िबषाना।।
िनज जन जािन तािह अपनावा। पभु सुभाव किप कुल मन भावा।।
पुिन सबरगय सबर उर बासी। सबररप सब रिहत उदासी।।
बोले बचन नीित पितपालक। कारन मनुज दनुज कुल घालक।।
सुनु कपीस लंकापित बीरा। केिह िबिध तिरअ जलिध गंभीरा।।
संकुल मकर उरग झष जाती। अित अगाध दुसतर सब भाती।।
कह लंकेस सुनहु रघुनायक। कोिट िसंधु सोषक तव सायक।।
जदिप तदिप नीित अिस गाई। िबनय किरअ सागर सन जाई।।
दो0-पभु तुमहार कुलगुर जलिध किहिह उपाय िबचािर।
िबनु पयास सागर तिरिह सकल भालु किप धािर।।50।।
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सखा कही तुमह नीिक उपाई। किरअ दैव जौ होइ सहाई।।
मंत न यह लिछमन मन भावा। राम बचन सुिन अित दुख पावा।।
नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोिषअ िसंधु किरअ मन रोसा।।
कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा।।
सुनत िबहिस बोले रघुबीरा। ऐसेिहं करब धरहु मन धीरा।।
अस किह पभु अनुजिह समुझाई। िसंधु समीप गए रघुराई।।
पथम पनाम कीनह िसर नाई। बैठे पुिन तट दभर डसाई।।
जबिहं िबभीषन पभु पिहं आए। पाछे रावन दूत पठाए।।
दो0-सकल चिरत ितनह देखे धरे कपट किप देह।
पभु गुन हृदयँ सराहिहं सरनागत पर नेह।।51।।
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पगट बखानिहं राम सुभाऊ। अित सपेम गा िबसिर दुराऊ।।
िरपु के दूत किपनह तब जाने। सकल बािध कपीस पिहं आने।।
कह सुगीव सुनहु सब बानर। अंग भंग किर पठवहु िनिसचर।।
सुिन सुगीव बचन किप धाए। बािध कटक चहु पास िफराए।।
बहु पकार मारन किप लागे। दीन पुकारत तदिप न तयागे।।
जो हमार हर नासा काना। तेिह कोसलाधीस कै आना।।
सुिन लिछमन सब िनकट बोलाए। दया लािग हँिस तुरत छोडाए।।
रावन कर दीजहु यह पाती। लिछमन बचन बाचु कुलघाती।।
दो0-कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ िमलेहु न त आवा काल तुमहार।।52।।
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तुरत नाइ लिछमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा।।
कहत राम जसु लंका आए। रावन चरन सीस ितनह नाए।।
िबहिस दसानन पूँछी बाता। कहिस न सुक आपिन कुसलाता।।
पुिन कहु खबिर िबभीषन केरी। जािह मृतयु आई अित नेरी।।
करत राज लंका सठ तयागी। होइिह जब कर कीट अभागी।।
पुिन कहु भालु कीस कटकाई। किठन काल पेिरत चिल आई।।
िजनह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल िचत िसंधु िबचारा।।
कहु तपिसनह कै बात बहोरी। िजनह के हृदयँ तास अित मोरी।।
दो0–की भइ भेट िक िफिर गए शवन सुजसु सुिन मोर।
कहिस न िरपु दल तेज बल बहुत चिकत िचत तोर।।53।।
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नाथ कृपा किर पूँछेहु जैसे। मानहु कहा कोध तिज तैसे।।
िमला जाइ जब अनुज तुमहारा। जातिहं राम ितलक तेिह सारा।।
रावन दूत हमिह सुिन काना। किपनह बािध दीनहे दुख नाना।।
शवन नािसका काटै लागे। राम सपथ दीनहे हम तयागे।।
पूँिछहु नाथ राम कटकाई। बदन कोिट सत बरिन न जाई।।
नाना बरन भालु किप धारी। िबकटानन िबसाल भयकारी।।
जेिहं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा। सकल किपनह महँ तेिह बलु थोरा।।
अिमत नाम भट किठन कराला। अिमत नाग बल िबपुल िबसाला।।
दो0-िदिबद मयंद नील नल अंगद गद िबकटािस।
दिधमुख केहिर िनसठ सठ जामवंत बलरािस।।54।।
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ए किप सब सुगीव समाना। इनह सम कोिटनह गनइ को नाना।।
राम कृपा अतुिलत बल ितनहही। तृन समान तेलोकिह गनही।।
अस मै सुना शवन दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर।।
नाथ कटक महँ सो किप नाही। जो न तुमहिह जीतै रन माही।।
परम कोध मीजिहं सब हाथा। आयसु पै न देिहं रघुनाथा।।
सोषिहं िसंधु सिहत झष बयाला। पूरही न त भिर कुधर िबसाला।।
मिदर गदर िमलविहं दससीसा। ऐसेइ बचन कहिहं सब कीसा।।
गजरिहं तजरिहं सहज असंका। मानहु गसन चहत हिहं लंका।।
दो0–सहज सूर किप भालु सब पुिन िसर पर पभु राम।
रावन काल कोिट कहु जीित सकिहं संगाम।।55।।
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राम तेज बल बुिध िबपुलाई। तब भातिह पूँछेउ नय नागर।।
तासु बचन सुिन सागर पाही। मागत पंथ कृपा मन माही।।
सुनत बचन िबहसा दससीसा। जौ अिस मित सहाय कृत कीसा।।
सहज भीर कर बचन दृढ़ाई। सागर सन ठानी मचलाई।।
मूढ़ मृषा का करिस बड़ाई। िरपु बल बुिद थाह मै पाई।।
सिचव सभीत िबभीषन जाके। िबजय िबभूित कहा जग ताके।।
सुिन खल बचन दूत िरस बाढ़ी। समय िबचािर पितका काढ़ी।।
रामानुज दीनही यह पाती। नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती।।
िबहिस बाम कर लीनही रावन। सिचव बोिल सठ लाग बचावन।।
दो0–बातनह मनिह िरझाइ सठ जिन घालिस कुल खीस।
राम िबरोध न उबरिस सरन िबषनु अज ईस।।56(क)।।
की तिज मान अनुज इव पभु पद पंकज भृग ं ।
होिह िक राम सरानल खल कुल सिहत पतंग।।56(ख)।।
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सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबिह सुनाई।।
भूिम परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग िबलासा।।
कह सुक नाथ सतय सब बानी। समुझहु छािड़ पकृित अिभमानी।।
सुनहु बचन मम पिरहिर कोधा। नाथ राम सन तजहु िबरोधा।।
अित कोमल रघुबीर सुभाऊ। जदिप अिखल लोक कर राऊ।।
िमलत कृपा तुमह पर पभु किरही। उर अपराध न एकउ धिरही।।
जनकसुता रघुनाथिह दीजे। एतना कहा मोर पभु कीजे।
जब तेिहं कहा देन बैदेही। चरन पहार कीनह सठ तेही।।
नाइ चरन िसर चला सो तहा। कृपािसंधु रघुनायक जहा।।
किर पनामु िनज कथा सुनाई। राम कृपा आपिन गित पाई।।
िरिष अगिसत की साप भवानी। राछस भयउ रहा मुिन गयानी।।
बंिद राम पद बारिहं बारा। मुिन िनज आशम कहुँ पगु धारा।।
दो0-िबनय न मानत जलिध जड़ गए तीन िदन बीित।
बोले राम सकोप तब भय िबनु होइ न पीित।।57।।
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लिछमन बान सरासन आनू। सोषौ बािरिध िबिसख कृसानू।।
सठ सन िबनय कुिटल सन पीती। सहज कृपन सन सुंदर नीती।।
ममता रत सन गयान कहानी। अित लोभी सन िबरित बखानी।।
कोिधिह सम कािमिह हिर कथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा।।
अस किह रघुपित चाप चढ़ावा। यह मत लिछमन के मन भावा।।
संघानेउ पभु िबिसख कराला। उठी उदिध उर अंतर जवाला।।
मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलिनिध जब जाने।।
कनक थार भिर मिन गन नाना। िबप रप आयउ तिज माना।।
दो0-काटेिहं पइ कदरी फरइ कोिट जतन कोउ सीच।
िबनय न मान खगेस सुनु डाटेिहं पइ नव नीच।।58।।
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सभय िसंधु गिह पद पभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।।
गगन समीर अनल जल धरनी। इनह कइ नाथ सहज जड़ करनी।।
तव पेिरत माया उपजाए। सृिष हेतु सब गंथिन गाए।।
पभु आयसु जेिह कहँ जस अहई। सो तेिह भाित रहे सुख लहई।।
पभु भल कीनही मोिह िसख दीनही। मरजादा पुिन तुमहरी कीनही।।
ढोल गवार सूद पसु नारी। सकल ताड़ना के अिधकारी।।
पभु पताप मै जाब सुखाई। उतिरिह कटकु न मोिर बड़ाई।।
पभु अगया अपेल शुित गाई। करौ सो बेिग जौ तुमहिह सोहाई।।
दो0-सुनत िबनीत बचन अित कह कृपाल मुसुकाइ।
जेिह िबिध उतरै किप कटकु तात सो कहहु उपाइ।।59।।
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नाथ नील नल किप दौ भाई। लिरकाई िरिष आिसष पाई।।
ितनह के परस िकएँ िगिर भारे। तिरहिहं जलिध पताप तुमहारे।।
मै पुिन उर धिर पभुताई। किरहउँ बल अनुमान सहाई।।
एिह िबिध नाथ पयोिध बँधाइअ। जेिहं यह सुजसु लोक ितहुँ गाइअ।।
एिह सर मम उतर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी।।
सुिन कृपाल सागर मन पीरा। तुरतिहं हरी राम रनधीरा।।
देिख राम बल पौरष भारी। हरिष पयोिनिध भयउ सुखारी।।
सकल चिरत किह पभुिह सुनावा। चरन बंिद पाथोिध िसधावा।।
छं0-िनज भवन गवनेउ िसंधु शीरघुपितिह यह मत भायऊ।
यह चिरत किल मलहर जथामित दास तुलसी गायऊ।।
सुख भवन संसय समन दवन िबषाद रघुपित गुन गना।।
तिज सकल आस भरोस गाविह सुनिह संतत सठ मना।।
दो0-सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनिहं ते तरिहं भव िसंधु िबना जलजान।।60।।
मासपारायण, चौबीसवा िवशाम
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इित शीमदामचिरतमानसे सकलकिलकलुषिवधवंसने
पञचमः सोपानः समापतः ।
(सुनदरकाणड समापत)
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