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ू
दे वों ने था िजसे बनाया,
दे वों ने था िजसे बजाया,
मानव के हाथों में कैसे इसको आज समिपर्त कर दँ ?ू
िकस कर में यह वीणा धर दँ ?ू
किव की वासना
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
1
सृिष्ट के ूारम्भ में
मैने उषा के गाल चूमे,
बाल रिव के भाग्य वाले
दीप्त भाल िवशाल चूमे,
तािरका-किल से सुसिज्जत
नव िनशा के बाल चूमे,
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
िवगत-बाल्य वसुन्धरा के
उच्च तुग
ं -उरोज उभरे ,
तरु उगे हिरताभ पट धर
काम के ध्वज मत्त फहरे ,
ृ
चपल उच्छखल करों ने
जो िकया उत्पात उस िदन,
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
दीप रिव-शिश-तारकों ने
बाहरी कुछ केिल दे खी,
जो पलक पर कर िनछावर
थी गई मधु यािमनी वह;
यह समािध बनी हई
ु है
यह न शयनागार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
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आज िमट्टी से िघरा हँू
पर उमंगें हैं पुरानी,
सोमरस जो पी चुका है
आज उसके हाथ पानी,
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
भंग कर दे ता तपःया
िसद्ध, ऋिष, मुिन सत्तमों की
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
वेद-लोकाचार ूहरी
ताकते हर चाल मेरी,
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
7
थी तृषा जब शीत जल की
खा िलए अंगार मैंने,
चीथड़ों से उस िदवस था
कर िलया ौृग
ं ार मैंने
राजसी पट पहनने को
जब हई
ु इच्छा ूबल थी,
वासना जब तीोतम थी
बन गया था संयमी मैं,
है रही मेरी क्षुधा ही
सवर्दा आहार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
–
Other Information
Collection: Madhukalash (Published: 1937)
This poem was originally inspired by a comment by Pt. Banarsi Das
Chaturvedi in the publication “Vishaal Bharat”, of which he was the
editor. In response to that comment Bachchan wrote this poem and sent it
to another well-known publication “Saraswati” with a note that it is in
response to somebody’s comment (without naming him). When Pt.
Banarsi Das Chaturvedi noticed this poem, he got it publihed in
“Viashaal Bharat” itself, while openly accepting that he was the one who
had written a comment like that. (Source: Preface by Bachchan in the 7th
edition of Madhukalash)
इस पार, उस पार
1
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प्याला है पर पी पाएँगे,
है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार िनयित ने भेजा है ,
असमथर्बना िकतना हमको,
कहने वाले, पर कहते है ,
हम कमोर्ं में ःवाधीन सदा,
करने वालों की परवशता
है ज्ञात िकसे, िजतनी हमको?
कह तो सकते हैं , कहकर ही
कुछ िदल हलका कर लेते हैं ,
उस पार अभागे मानव का
अिधकार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
8
उतरे इन आखों के आगे
जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा, दे खो, माली,
सुकुमार लताओं के गहने,
दो िदन में खींची जाएगी
ऊषा की साड़ी िसन्दरी
ू ,
पट इन्िधनुष का सतरं गा
पाएगा िकतने िदन रहने;
जब मूितर्मती सत्ताओं की
शोभा-सुषमा लुट जाएगी,
तब किव के किल्पत ःवप्नों का
ौृग
ं ार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
–
Collection: Madhubala (Published 1936)
मधुबाला
मैं मधुबाला मधुशाला की,
मैं मधुशाला की मधुबाला!
मैं मधु-िवबेता को प्यारी,
मधु के धट मुझपर बिलहारी,
प्यालों की मैं सुषमा सारी,
मेरा रुख दे खा करती है
मधु-प्यासे नयनों की माला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
था एक समय, थी मधुशाला,
था िमट्टी का घट, था प्याला,
थी, िकन्तु, नहीं साकीबाला,
था बैठा ठाला िवबेता
दे बंद कपाटों पर ताला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
तब इस घर में था तम छाया,
था भय छाया, था ॅम छाया,
था मातम छाया, गम छाया,
ऊषा का दीप िलए सर पर,
मैं आई करती उिजयाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
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ू
मुझको छकर मधुघट छलके,
प्याले मधु पीने को ललके ,
मािलक जागा मलकर पलकें,
अँगड़ाई लेकर उठ बैठी
िचर सुप्त िवमूिच्छर् त मधुशाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
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मधु कौन यहाँ पीने आता,
है िकसका प्यालों से नाता,
जग दे ख मुझे है मदमाता,
िजसके िचर तंििल नयनों पर
तनती मैं ःवप्नों का जाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
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यह ःवप्न-िविनिमर्त मधुशाला,
यह ःवप्न रिचत मधु का प्याला,
ःविप्नल तृंणा, ःविप्नल हाला,
ःवप्नों की दिनया
ु में भूला
िफरता मानव भोलाभाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
–
Other Information
Collection: Madhubala (Published: 1936)
‘मेघदत
ू ’ के ूित
‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता
मैं ःवयं बन मेघ जाता!
दगर्
ु दे वल, पथ सुिवःतृत
और बीड़ोद्यान-सारे
मिन्ऽता किव-लेखनी के
ःपशर् से होते अगोचर
दे खता इस शैल के ही
अंक में बहु-पूज्य पुंकर,
पुण्य-जल िजनको िकया था
जनक-तनया ने नहाकर
संग जब ौी राम के वे
थीं यहाँ जब वास करतीं,
ूेयसी को एक क्षण उर से
लगा सब कष्ट भूला,
दे ख मुझको ूाण-प्यारी
दािमनी को अंक में भर
घूमते उन्मुक्त नभ में
वायु के मृद-ु मन्द रथ पर,
अट्टहास-िवहास से मुख-
िरत बनाते शून्य को भी
ूयिणनी भुज-पाश से जो
है रहा िचरकाल वंिचत,
यक्ष मुझको दे ख कैसे
िफर न दख
ु में डब
ू जाता।
कामना से वह मुझे उठ
बार-बार ूणाम करता;
कनक िवलय-िवहीन कर से
िफर कुटज के फूल चुनकर
ूीित से ःवागत-वचन कह
भेंट मेरे ूित चढ़ाता।
पुंकरावतर्क घनों के
वंश का मुझको बताकर,
कामरूप सुनाम दे , कह
मेघपित का मान्य अनुचर
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हे जलद, ौीवृिद्ध कर तू
संग वषार्-दािमनी के,
हो न तुझको िवरह दख
ु जो
आज मैं िविधवश उठाता!’
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Other Information
Collection: Madhukalash (Published: 1937)
ूतीक्षा
अँधेरे का दीपक
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?
जुगनू
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है ?
दतकारा
ु मिःजद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,
ठु कराया ठाकुरद्वारे ने दे ख हथेली पर प्याला,
कहाँ िठकाना िमलता जग में भला अभागे कािफर को?
शरणःथल बनकर न मुझे यिद अपना लेती मधुशाला।।४६।
पिथक बना मैं घूम रहा हँू , सभी जगह िमलती हाला,
सभी जगह िमल जाता साकी, सभी जगह िमलता प्याला,
मुझे ठहरने का, हे िमऽों, कष्ट नहीं कुछ भी होता,
िमले न मंिदर, िमले न मिःजद, िमल जाती है मधुशाला।।४७।
याद न आए दखमय
ू जीवन इससे पी लेता हाला,
जग िचंताओं से रहने को मुक्त, उठा लेता प्याला,
शौक, साध के और ःवाद के हे तु िपया जग करता है ,
पर मै वह रोगी हँू िजसकी एक दवा है मधुशाला।।७८।
ज्ञात हआ
ु यम आने को है ले अपनी काली हाला,
पंि◌डत अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला,
और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला,
िकन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।।८६।
बहते
ु रे मिदरालय दे खे, बहते
ु री दे खी हाला,
भाँित भाँित का आया मेरे हाथों में मधु का प्याला,
एक एक से बढ़कर, सुन्दर साकी ने सत्कार िकया,
जँची न आँखों में, पर, कोई पहली जैसी मधुशाला।।१०९।
एक समय छलका करती थी मेरे अधरों पर हाला,
एक समय झूमा करता था मेरे हाथों पर प्याला,
एक समय पीनेवाले, साकी आिलंगन करते थे,
आज बनी हँू िनजर्न मरघट, एक समय थी मधुशाला।।११०।
बहतों
ु के िसर चार िदनों तक चढ़कर उतर गई हाला,
बहतों
ु के हाथों में दो िदन छलक झलक रीता प्याला,
पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही
और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।
ूतीक्षा
मधुर ूतीक्षा ही जब इतनी, िूय तुम आते तब क्या होता?
और उतने फ़ासले पर आज तक
सौ यत्न करके भी न आये िफर कभी हम।
िफर न आया वक्त वैसा
िफर न मौका उस तरह का
िफर न लौटा चाँद िनमर्म।
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ।
क्या नहीं ये पंिक्तयाँ खुद बोलती हैं ?
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रख िदया था हाथ पर अंगार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
याऽा और याऽी
साँस चलती है तुझे
चलना पड़े गा ही मुसािफर!
चल रहा है तारकों का
दल गगन में गीत गाता,
चल रहा आकाश भी है
शून्य में ॅमता-ॅमाता,
पाँव के नीचे पड़ी
अचला नहीं, यह चंचला है ,
एक कण भी, एक क्षण भी
एक थल पर िटक न पाता,
शिक्तयाँ गित की तुझे
सब ओर से घेरे हए
ु है ;
ःथान से अपने तुझे
टलना पड़े गा ही, मुसािफर!
साँस चलती है तुझे
चलना पड़े गा ही मुसािफर!
वह किठन पथ और कब
उसकी मुसीबत भूलती है ,
साँस उसकी याद करके
भी अभी तक फूलती है ;
यह मनुज की वीरता है
या िक उसकी बेहयाई,
साथ ही आशा सुखों का
ःवप्न लेकर झूलती है
सत्य सुिधयाँ, झूठ शायद
ःवप्न, पर चलना अगर है ,
झूठ से सच को तुझे
छलना पड़े गा ही, मुसािफर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़े गा ही मुसािफर!
जो बीत गई सो बात गई !
जीवन में एक िसतारा था,
माना, वह बेहद प्यारा था,
वह डब
ू गया तो डब
ू गया;
अंबर के आनन को दे खो,
ू ,
िकतने इसके तारे टटे
ू ,
िकतने इसके प्यारे छटे
ू गए िफर कहाँ िमले;
जो छट
ू तारों पर
पर बोलो टटे
कब अंबर शोक मनाता है !
जो बीत गई सो बात गई !
- हिरवंशराय बच्चन
आदशर् ूेम
प्यार िकसी को करना लेिकन
कहकर उसे बताना कया |
अपने को अपणर् करना पर
और को अपनाना क्या |
तू न थकेगा कभी!
तू न थमेगा कभी!
तू न मुड़ेगा कभी- कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ!
अिग्न पथ, अिग्न पथ, अिग्न पथ !
यह महान िँय है -
चल रहा मनुंय है
अौु-ःवेद-रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ!
अिग्न पथ, अिग्न पथ, अिग्न पथ !
नव उमंग,
नव तरं ग,
जीवन का नव ूसंग
नवल चाह,
नवल राह,
जीवन का नव ूवाह
गीत नवल,
ूीित नवल,
जीवन की रीित नवल,
जीवन की नीित नवल,
जीवन की जीत नवल