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- दुयत कु मार
बरस के बाद कह
हो न याद, एक बार
आया तूफान, ?वार
बंद, िमटे पृA को -
पढ़ने की ठाने ना।
- गोपालदास नीरज
द संग नह ह!
हम जीवन के महाकाS हT
के वल UGद Vसंग नह7 हT।
कं कड़-प4थर की धरती है
अपने तो पाँव के नीचे
हम कब कहते बGधु! िबछाओ
%वागत म मखमली गलीचे
रे ती पर जो िचW बनाती
ऐसी रं ग-तरं ग नह7 है।
तुमको रास नह7 आ पायी
Mय अजातशWुता हमारी
िछप-िछपकर जो करते रहते
शीतयुX की तुम तैयारी
हम भाड़े के सैिनक लेकर
लड़ते कोई जंग नह7 हT।
कहते-कहते हम मसीहा
तुम लटका देते सलीब पर
हंस तु>हारी कू टनीित पर
कु ढ़ या िक अपने नसीब पर
भीतर-भीतर से जो पोले
हम वे ढोल-मृदग
ं नह7 है।
तुम सामुिहक बिहYकार की
िमW! भले योजना बनाओ
जहाँ-जहाँ पर िलखा (आ है
नाम हमारा, उसे िमटाओ
िजसकी डोर हाथ तु>हारे
हम वह कटी पतंग नह7 है।
- च"सेन िवराट
अ*छा अनुभव
एक दृIय सुबह का
एक दृIय शाम का
दोन म िbितज पर
सूरज की लाली
दोन म धरती पर
छाया घनी और ल>बी
इमारत की वृb की
देह की काली
दोन म
एक तरह की शािGत
एक तरह का आवेग
आँख बGद Vाण खुले (ए
- भवानीसाद िम-
पाबंिदयाँ
हठ पर पाबिGदयाँ हT
गुनगुनाने की।
िनजन म जब पपीहा
पी बुलाता है।
तब तु>हारा %वर अचानक
उभर आता है।
अधर पर पाबिGदयाँ हT
गीत गाने की।
चाँदनी का पवत पर
खेलना Kकना
शीश सागर म झुका कर
=प को लखना।
दपण को मनाही
छिबयाँ सजाने की।
ओस म भीगी नहाई
दूब सी पलक ,
eृंग से Iयामल मचलती
धार सी अलक ।
िशQप पर पाबिGदयाँ
आकार पाने की।
के तकी सँग पवन के
ठहरे (ए वे bण,
देखते आकाश को
भुजपाश म, लोचन।
िबजिलय को है मनाही
मु%कु राने की।
हवन करता मंW सा
पढ़ता बदन चGदन,
यf की उठती िशखा सा
दgध पावन मन।
Vाण पर पाबिGदयाँ
सिमधा चढाने की।
- बालकृ ण िम-ा
ऊँचाई
स_ाई यह है िक
के वल ऊँचाई ही कािफ नह7 होती,
सबसे अलग-थलग,
पिरवेश से पृथक,
अपन से कटा-बंटा,
शूGय म अके ला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नह7,
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई म
आकाश-पाताल की दूरी है।
जो िजतना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को %वयं ढोता है,
चेहरे पर मु%कान िचपका,
मन ही मन रोता है।
ज=री यह है िक
ऊँचाई के साथ िव%तार भी हो,
िजससे मनुYय,
ठूं ट सा खड़ा न रहे,
और से घुल-े िमले,
िकसी को साथ ले,
िकसी के संग चले।
भीड़ म खो जाना,
याद म डू ब जाना,
%वयं को भूल जाना,
अि%त4व को अथ,
जीवन को सुगंध देता है।
धरती को बौन की नह7,
ऊँचे कद के इGसान की ज=रत है।
इतने ऊँचे िक आसमान छू ल,
नये नbW म Vितभा की बीज बो ल,
िकGतु इतने ऊँचे भी नह7,
िक पाँव तले दूब ही न जमे,
कोई कांटा न चुभे,
कोई किल न िखले।
रं ग की मृगतृYणा कह7
डरती है कै नवस की उस सादगी से
िजसे आकृ ित के माiयम की आवIयकता नह7
जो कु छ रचे जाने के िलये
नc होने को है तैयार।।
तभी तो तब से अब तक
यmिप ब(त बार .....
एकिWत िकया रे खाn को,
रचने भी चाहे सीमाn से
मन के िव%तार ..... ॥
- अंशु जौहरी
5यिक
- धम$वीर भारती
शाम:
शाम: दो मनःि8थितयाँ
एक:
बात कु छ और छेिड़ए तब तक
हो दवा तािक बेकली की भी,
sार कु छ बGद, कु छ खुला रिखए
तािक आहट िमले गली की भी -
कू ल पर कु छ Vवाल छू ट जाय
या लहर िसफ़ फे नावली हो
अधिखले फू ल-सी िवनत अंजुली
कौन जाने िक िसफ़ खाली हो?
दो:
- धम$वीर भारती
कौन रं ग फागुन रं गे
- िदनेश शु5ल
लो वही :आ
तुम सृजन हो
च|ानी देह का।
Nयास तो तु>ही बुझाओगी नदी।
मT तो सागर [ँ
Nयासा
अथाह
- िदिवक रमेश
एक आशीवा$द
- दुयत कु मार
गजल
- दुयत कु मार
इतने ऊँचे उठो
- गोपालसाद Eास
8वतं?ता का दीपक
- गोपालिसह नेपाली
Fधन
- गुलज़ार
बीती िवभावरी जाग री!
री!
- जयशंकर साद
कामायनी
('लGा'
लGा' पिर*छेद)
- जयशंकर साद
कामायनी
('िनवHद' पिर*छेद के कु छ छंद)
िचर-िवषाद-िवलीन मन की,
इस Sथा के ितिमर-वन की;
मT उषा-सी ?योित-रे खा,
कु सुम-िवकिसत Vात रे मन!
पवन की Vाचीर म Kक
जला जीवन जी रहा झुक,
इस झुलसते िवo-िदन की
मT कु सुम-ऋतु-रात रे मन!
- जयशंकर साद
याणगीत
- जयशंकर साद
आज नदी िबलकु ल उदास थी
- के दारनाथ अIवाल
अIवाल
बसंती हवा
न घर-बार मेरा,
न उaेIय मेरा,
न इdछा िकसी की,
न आशा िकसी की,
न Vेमी न दुIमन,
िजधर चाहती [ँ
उधर घूमती [ँ।
हवा [ँ, हवा मT
बसंती हवा [ँ!
जहाँ से चली मT
जहाँ को गई मT -
शहर, गाँव, ब%ती,
नदी, रे त, िनजन,
हरे खेत, पोखर,
झुलाती चली मT।
झुमाती चली मT!
हवा [ँ, हवा मै
बसंती हवा [ँ।
मुझे देखते ही
अरहरी लजाई,
मनाया-बनाया,
न मानी, न मानी;
उसे भी न छोड़ा -
पिथक आ रहा था,
उसी पर ढके ला;
हँसी ज़ोर से मT,
हँसी सब िदशाएँ,
हँसे लहलहाते
हरे खेत सारे ,
हँसी चमचमाती
भरी धूप Nयारी;
बसंती हवा म
हँसी सृिc सारी!
हवा [ँ, हवा मT
बसंती हवा [ँ!
- के दारनाथ अIवाल
कम$
- िकरीटच" जोशी
आगत का 8वागत
- कीित चौधरी
गीत-
गीत-किव की Eथा - एक
ओ लेखनी! िवeाम कर
अब और याWाय नह7।
मंगल कलश पर
काS के अब श8द
के %वि%तक न रच।
अbम समीbाय
परख सकत7 न
किव का झूठ-सच।
बGदी अंधेरे
कb म अनुभूित की
िशQपा छु अन।
वाद-िववाद म
िघरा सािह4य का
िशbा सदन।
- िकशन सरोज
गीत-
गीत-किव की Eथा - दो
अनुराग, राग
िवराग पर सौ
Sंग-शर इसने सहे।
जब-जब (ए
गीले नयन तब-तब
लगाये कहकहे।
वह अ|हास का धनी
अब मु%कु राता तक नह7।
मेल तमाश म
िलए इसको िफरी
आवारगी।
कु छ ढू ंढती-सी
दृिc म हर शाम
मधुशाला जगी।
- िकशन सरोज
मेरी िज़द
तट की घेराबंदी करके
बैठे हT सारे के सारे ,
कोई मछली छू ट न जाये
इसी दाँव म हT मछु आरे .....
मT उनको ललकार रहा [ँ,
तुम जQदी से जाल हटाना.....
- कृ ण वLी
िवदा के Lण
मT अपने
इस तुdछ एकाकीपन से ही
इतना िवचिलत हो जाता [ँ
तो सागर!
तुम अपना यह िवराट अके लापन
कै से झेलते हो?
वह कौन है
जो अनािद से अनGत तक
तु>हारा हाथ थामे चल सके ,
गहरे िनःoास के साथ
उठते-िगरते तु>हारे वb को सहलाये?
िकस के कान
तु>हारी धड़कन को सुन सक गे,
कौन से हाथ
तु>हारे माथे पर पड़ी
दद की सलवट को हटायगे
या िबखरे (ए बाल को
सँवारने का साहस जुटा पायगे?
िकस का अगाध Nयार
तु>हारे एकाकीपन को भी िभगो पायेगा?
मुझे तो लगता है
ओ सागर,
अके ला होना
हर िवराट् की िनयित है।
वह एक से अनेक होने की
िकतनी ही चेcा करे
अपनी ही माया से, लीला से,
लहराती लहर से
खुद को बहलाये
पर अनGतः रहता एकाकी है।
- िफर भी
तु>ह छोड़ कर जाते (ए
मन कु छ उदास (आ जाता है -
(शायद यही मोह है, शायद यही अहं है!)
- तु>हारे पास
एक अजनबी-सी
पहचान िलये आया था
एक िवराट् अके लेपन का
एक अिकचन-सा कण ले कर जा रहा [ँ!
- कु लजीत
ब5स मM यादM
- कु मार रवी"
वाणी वैभव
- लावOया शाह
8मृित दीप
भ उर की कामना के दीप,
तुम, कर म िलये,
मौन, िनमंण, िवषम, िकस साध म हो बाँटती?
है V?विलत दीप, उaीिपत कर पे,
नैन म असुवन झड़ी!
है मौन, होठ पर Vकि>पत,
नाचती, ?वाला खड़ी!
बहा दो अंितम िनशानी, जल के अंधेरे पाट पे,
' %मृितदीप ' बन कर बहेगी, यातना, िबछु ड़े %वजन की!
एक दीप गंगा पे बहेगा,
रोयगी, आँख तु>हारी।
धुप अँधकाररािW का तमस।
पुकारता Nयार मेरा तुझे, मरण के उस पार से!
बहा दो, बहा दो दीप को
जल रही कोमल हथेली!
हा िVया! यह रािWवेला औ
सूना नीरवसा नदी तट!
नाचती लौ म धूल िमलगी,
Vीत की बात हमारी!
- लावOया शाह
गांव
- मधुप मोहता
रोशनी
- मधुप मोहता
कौन तुम मेरे Pदय मM?
- महादेवी वमा$
-
मेरे दीपक
- महादेवी वमा$
पंथ होने दो अपिरिचत
- महादेवी वमा$
िय िचरतन है सजिन
- महादेवी वमा$
तुम मुझमM िय!
िय! िफर पिरचय 5या
- महादेवी वमा$
सोये ह! पेड़
कु हरे म
सोये हT पेड़।
पा-पा नम है
यह सबूत Mया कम है
लगता है
िलपट कर टहिनय से
ब(त-ब(त
रोये हT पेड़।
जंगल का घर छू टा,
कु छ कु छ भीतर टूटा
शहर म
बेघर होकर जीते
सपनो म खोये हT पेड़।
- माहेDर ितवारी
माँ कह एक कहानी
"माँ कह एक कहानी।"
बेटा समझ िलया Mया तूने मुझको अपनी नानी?"
"कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।"
- मैिथलीशरण गुS
सिख,
सिख, वे मुझसे कहकर जाते
(यशोधरा)
यशोधरा)
(आ न यह भी भाgय अभागा,
िकसपर िवफल गव अब जागा?
िजसने अपनाया था, 4यागा;
रहे %मरण ही आते!
सिख, वे मुझसे कहकर जाते।
- मैिथलीशरण गुS
पुप की अिभलाषा
अिभलाषा
- माखनलाल चतुवद
H ी
पेड़, म! और सब
- मWधर मृदल
ु
पानी उछाल के
आओ हम पतवार फ ककर
कु छ िदन हो ल नदी-ताल के ।
हो न सक यिद लगातार
तब जी ल सुख हम अंतराल के ।
- नईम
आज के िबछु ड़े न जाने कब िमलMग?
े
िVयतम मेरे,
सब िभh िभh बुनते हT
गुलद%त को,
भावनाn से,
िवचार से।
मT तु>हे बुनूँ
अपनी साँस से।
भावनाय ि%थर हो जाएँ,
िवचारधारा भी,
हठ भी मौन रहे -
और हर oास
िनत तु>हारा नाम कहे -
और तुम बुनते रहो।
- नीलकमल
चुप सी लगी है
खुले मन से हंसी
कब आएगी?
इस िदल म खुशी
कब िखलिखलाएगी?
बरस इस जाल म बंधी,
Nयास अभी भी है।
अपने पथ पर चल पाऊँगी,
आस अभी भी है।
पर इG4ज़ार म
िदल धीरे धीरे मरता है
धीरे धीरे िपसता है मन,
शेष Mया रहता है?
डर है, एक िदन
यह धीरज न टूट जाए
रोको न मुझे,
कह7 ?वालामुखी फू ट जाए।
वह फू टा तो
इस eी सृजन को
कै से बचाऊँगी?
िवo म माW एक
िक%सा बन रह जाऊँगी।
समय की गहराइय म
खो जाऊँगी।
- नीलकमल
वह से
हम जहाँ हT
वह7 से आगे बढ़गे।
देश के बंजर समय के
बाँझपन म
यािक अपनी लालसाn के
अंधेरे सघन वन म
या अगर हT
पिरि%थितय की तलहटी म
तो वह7 से बादल के =प म
ऊपर उठ गे।
हम जहाँ हT
वह7 से आगे बढ़गे।
यह हमारी िनयित है
चलना पड़ेगा
रात म दीपक
िदवस म सूय बन जलना पड़ेगा।
- ओम भाकर
सुभात
- भाकर शु5ला
फागुन के दोहे
- पूिणमा वम$न
हम-
हम-तुम
अब िज़Gी की धार म
कु छ मT ब[ँ, कु छ तुम बहो।
िगरते (ए इGसान को
कु छ मT ग[ँ कु छ तुम गहो।
,दय से कहता [ँ कु छ गा
Vाण की पीिड़त बीन बजा
Nयास की बात न मुँह पर ला
सुरिभ के %वामी फू ल पर
चढ़ये मTने जब कु छ %वर
लगे वे कहने मुरझाकर
िज़Gदगी एक खुमारी है
न जाने Mया लाचारी है
आज मन भारी-भारी है
- रमानाथ अव8थी
रचना और तुम
पर मT Nयासा [ँ म=%थल सा
यह बात समंदर को समझा देना
- रमानाथ अव8थी
सांझ फागुन की
- रामानुज ि?पाठी
एक भी आँसू न कर बेकार
एक भी आँसू न कर बेकार -
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!
पास Nयासे के कु आँ आता नह7 है,
यह कहावत है, अमरवाणी नह7 है,
और िजस के पास देने को न कु छ भी
एक भी ऐसा यहाँ Vाणी नह7 है,
कर %वयं हर गीत का eृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाय!
चोट खाकर टूटते हT िसफ दपण
िकGतु आकृ ितयाँ कभी टूटी नह7 हT,
आदमी से =ठ जाता है सभी कु छ -
पर सम%याय कभी =ठी नह7 हT,
हर छलकते अeु को कर Nयार -
जाने आ4मा को कौन सा नहला जाय!
Sथ है करना खुशामद रा%त की,
काम अपने पाँव ही आते सफर म,
वह न ईoर के उठाए भी उठे गा -
जो %वयं िगर जाय अपनी ही नज़र म,
हर लहर का कर Vणय %वीकार -
जाने कौन तट के पास प(ँचा जाए!
- रामावतार Yयागी
आग की भीख
- िदनकर
बािलका से वधु
पीला चीर,
चीर, कोर मM िजसकी चकमक गोटा-
गोटा-जाली,
जाली,
चली िपया के गांव उमर के सोलह फू लवाली।
पी चुपके आनंद, उदासी भरे सजल िचतवन मM,
आँसू मM भगी माया चुपचाप खड़ी आंगन मM।
तू वह,
वह, रचकर िजसे कृ ित ने अपना िकया िसगार,
िसगार,
तू वह जो धूसर मM आयी सुबज रं ग की धार।
मां की ढीठ दुलार
ार!! िपता की ओ लजवंती भोली,
भोली,
ले जायेगी िहय की मिण को अभी िपया की डोली।
कहो,
कहो, कौन होगी इस घर तब शीतल उिजयारी?
उिजयारी?
िकसे देख हँस-हँस कर फू लेगी सरस की 5यारी?
5यारी?
वृL रीझ कर िकसे करM गे पहला फल अप$ण-सा?
सा?
झुकते िकसको देख पोखरा चमके गा दप$ण-सा?
सा?
पल-
पल-पल मंगल-
ल-लb,
लb, िज़दगी के िदन-
िदन-िदन Yयौहार,
Yयौहार,
उर का ेम फू टकर हो आँचल मM उजली धार।कुं जी
- िदनकर
लेन-देन
लेन-देन का िहसाब
लंबा और पुराना है।
- िदनकर
रात य कहने लगा मुझसे गगन का चाँद
- िदनकर
- िदनकर
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