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भज गोविन्दम्

श्लोके स्थित ाः केचित् व्य करणचिषय ाः


Grammatical aspects in Bhaja Govindam

The grammatical characteristics of the individual words along with the original text, meaning in Sanskrit and
English and other grammatical aspects are provided here. The intention is not to teach Sanskrit grammar. But this
information will be useful for Sanskrit students to revise the basic concepts that they would have studied.
Compiled and posted by Nivedita in nivedita2015.wordpress.com during Dec 2015.
Important Note: The content might undergo changes. This doc was last updated on 26th Oct 2016. For updates,
check https://nivedita2015.wordpress.com/ bhaja-govindam-moha-mudgara. <TODO> The taatpaaryaartham in
Sanskrit will be replaced with a new set.

Notations followed in this work...........................................................................................3


1. भज गोचिन्दम् ..............................................................................................................6
2. मूढ जहीचह धन गमतृष्ण म् .........................................................................................8
3. न रीस्तनभरन भीदे शम् ...............................................................................................10
4. नचिनीदिगतजिमचततरिम् ......................................................................................12
5. य िचित्तोप जजनसक्ताः ..................................................................................................13
6. य ित्पिनो चनिसचत दे हे ..............................................................................................15
7. ब िस्त ित्क्रीड सक्ताः .................................................................................................17
8. क ते क न्त .............................................................................................................19
“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

9. सत्सङ्गत्वे चनस्सङ्गत्वम् .................................................................................................21


10. ियचस गते काः ............................................................................................................22
11. म कुरु धनजनयौिनगिजम् ..........................................................................................24
12. चदनय चमन्यौ स यं प्र ताः ...............................................................................................26
13. क ते क न्त ..............................................................................................................28
14. जचििो मुण्डी .............................................................................................................30
15. अङ्गं गचितं पचितं मुण्डम् ...........................................................................................31
16. अग्रे िचनाः पृष्ठे भ नुाः ....................................................................................................33
17. कुरुते गङ्ग स गरगमनम् .............................................................................................35
18. सुरमंचदरतरुमूिचनि साः ..............................................................................................37
19. योगरतो ि .................................................................................................................40
20. भगिद्गीत चकचिदधीत ...............................................................................................42
21. पुनरचप जननं पुनरचप मरणम् .......................................................................................44
22. रथ्य िपजिचिरचितकन्थाः ..............................................................................................46
23. कस्त्वं कोऽहं कुत आय ताः ..........................................................................................48
24. त्वचय मचय ि न्यत्र........................................................................................................50
25. शत्रौ चमत्रे पुत्रे बन्धौ .....................................................................................................52
26. क मं क्रोधं िोभं मोहम् ................................................................................................53
27. गेयं गीत न मसहस्रम् ..................................................................................................55
28. सुखताः चक्रयते र म भोगाः .............................................................................................57
29. अिजमनिं भ िय चनत्यम्...............................................................................................58
30. प्र ण य मं प्रत्य ह रम् ...................................................................................................60
31. गुरुिरण म्बुजचनभजरभक्ताः ...........................................................................................62
Appendix 1 - Paadaakulakam Chandas (meter) ...................................................65
Appendix 2 – The 10 ganas or classes of verbs & List of Verbs .........................66
Appendix 3 – Set, Vet, Anit – Inflection Patterns ................................................69
Appendix 4 – Suffixes – Pratyayas प्रत्यय ाः ............................................................70

योगी र मसुरतकुम र योगी र मसुरतकुम र ।


योगी र मसुरतकुम र जय गुरु र य ॥
* - * - *
Salutations and thanks to my teachers and friends !

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 2


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

Notations followed in this work


सङ्केताक्षरसूची (Abbreviations)
 अ. = अक र न्ताः । आ. = आक र न्ताः । इ. = इक र न्ताः । ई. = ईक र न्ताः । उ. = उक र न्ताः । ऋ.
= ऋक र न्ताः । त. = तक र न्ताः । द. = दक रन्ताः । न. = नक र न्ताः । म. = मक र न्ताः । स. =
सक र न्ताः ।
 पुं. = पुंचिङ्गाः । स्त्री. = स्त्रीचिङ्गाः । नपुं . = नपुंसकचिङ्गाः । चत्र. = चत्रचिङ्गाः ।
 संप्र. = सम्बोधनप्रिम चिभस्क्ताः । प्र. = प्रिम चिभस्क्ताः । चि. = चितीय चिभस्क्ताः । तृ . = तृतीय चिभस्क्ताः ।
ि. = ितुिीचिभस्क्ताः । पं. = पिमीचिभस्क्ताः । ष. = षष्ठीचिभस्क्ताः । स. = सप्तमीचिभस्क्ताः ।
 एक. = एकििनम् । चि. = चिििनम् । बहु. = बहुििनम् ।
 पर. = परस्मैपचद । आत्म. = आत्मने पचद । उभ. = उभयपचद ।
 िि् . = िि् िक राः (ितजम नक िाः) । िोि् . = िोि् िक राः (आज्ञ , प्र िजन , इच्छ ) । िुङ्. = िुङ्.
िक राः (भूतक िाः) । चिि् . = चिि् . िक राः (भूतक िाः) ।
 प्रपु. = प्रिमपुरुषाः । मपु . = मध्यमपुरुषाः । उपु . = उत्तमपुरुषाः ।

लेखसंरूप (Format)
 चक्रय पदम् = < चक्रय पदम् > [ <ध तुाः> <ध तोाः औपदे चशकरूपम्> < ध तोाः पचदरूपम्> <िक राः>
<पुरुषाः> <ििनम्>
 उद हरणम् : चक्रय पदम् = रक्षचत [ रक्ष् “रक्ष प िने ” पर. िि् . प्रपु . एक. ]
 <पद चििरणम्> = <न मपदम्> [ अव्ययम् ] (अिि ) [ <अन्ताः> <चिङ्गाः> <चिभस्क्ताः> <ििनम्> ]
 सम्बोधनपदम् = मूढमते [ इ. पुं. संप्र. एक. ]
 The words included in the anvaya by the process of अध्य ह र are mentioned within brackets.
 The intendation indicates the association of the words.
 For some of the uncommon terms, the different forms in other Lakaara for verbs and other vibhaktis for nouns
are given under िक र-रूप चण and चिभस्क्त-रूप चण.

Terms used in classifying the word


Explanation of the terms used to classify the words.
# Term Usage Examples

1. चक्रय पदम् = Verb रक्षचत ।

2. चिशे षणम् = adverb including (negation) न चह रक्षचत |


चक्रय चिशे षणम् न and (emphasis) एि (त्वं ) मोह िेशं म ग ाः |
and चह भगिद्गीत चकचित् अधीत ।
चशचशरिसन्तौ पुनाः आय ताः ।

3. कमज पदम् = Object wherein the action प्र ण य मं कुरु |


चनिजत्यं कमज involves the creation of the
object उत्प द्यं कमज
4. कमज पदम् = Object wherein the action (त्वं) चितृष्ण ंं सद् बुस्िंं मनचस
चिक यं कमज involves the transformation
कुरु ।
of the object into this new
form.
5. कमज पदम् = Object wherein the action (त्वं ) गोचिन्दं भज ।
does not involve creation or

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 3


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

प्र प्यं कमज transformation of the object

6. कमज -ि क्यम् Sub-heading for the सिं चिश्वम् अस रम् इचत पररभ िय |
secondary sentence which
is the object in the main
sentence
7. कमज ि क्यद्योतकपदम् The word इचत which makes सिं चिश्वम् अस रम् इचत पररभ िय |
the secondary sentence
become the object in the
main sentence
8. कमज ि क्य ं श- The word इचत which makes एतत् म ं सिस चदचिक रं (इचत) (त्वं )
द्योतकपदम् a phrase become the object चिचिन्तय ।
in the main sentence
9. चिशे षणम् = adjective of object स्वप्न+चिि रं चिश् िं त्यक्त्व सिं चिश्वम्
कमज चिशे षणम् अस रम् इचत पररभ िय ।

10. चिशे षणम् = Describes the object without िोकं शोकहतम् (इचत) चिस्ि |
कमज -चिधेय-चिशे षणम् being used as a direct सिं चिश्वम् अस रम् इचत पररभ िय ।
adjective. Used in those
sentences which describe
how the object is or has
become.
11. प्रश्नि िक-xxx-पदम् Questioning term ते क न्त क ? ते पुत्राः कंाः?

12. आक्षे प िे प्रश्नि िक- Questioning term used तत्त्वे ज्ञ ते (सचत) काः संस राः ?
in the sense of
-xxx-पदम् = चिर गाः कस्य सुखं न करोचत ?
denial
13. कतृजपदम् = Subject who does the action पिनाः दे हे चनिसचत |
शु िकत ज independently without being
prompted by anyone

14. कतृजपदम् = The subject who causes the (त्वं ) चित्तं चिनोदय |
चणजन्त-प्रयोजककत ज action to be done by another
| हे तुकत ज |
15. कतृजपदम् = The subject who is made to (त्वं ) चित्तं चिनोदय |
चणजन्त-प्रयोज्यकत ज do the action
| कमज कत ज |
16. चिशे षणम् = Adjective of subject अयं संस रंाः अतीि चिचित्राः ।
कतृजचिशे षणम्
17. चिशे षणम् = Describes the subject चत्रजगचत सज्जनसंगचताः एक
कतृज-चिधेय-चिशे षणम् without being used as a भि णजितरणे नौक भिचत ।
direct adjective. Note that
the genders may or might
not match in this case. Used
in those sentences which
describe how the subject is
or has become.
18. अव्ययम् = Conveys the purpose of the त्वं व्यिं कुप्यचस ।
त दथ्यज पदम् action
19. सम्बोधनपदम् = Vocative Case for calling मु र रे |
out or addressing someone

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“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

20. चिष द-भ ि- Exclamation – expressing हन्त ।


सूिकपदम् = grief
21. करणि िकपदम् = Instrumental case (truteeya तेन (त्वं ) चित्तं चिनोदय ।
vibhakti) term indicating
agent
22. क रणि िकपदम् = Term in Instrumental case इह संस रे (त्वं ) कृपय (म ं ) प चह
(truteeya vibhakti) or | (त्वं ) सेस्िय+म नस+चनयम त्
ablative case (panchamee
संस र त् मु क्ताः भि ।
vibhakti) indicating cause
हे तुि िकपदम्
23. सम्प्रद नपदम् = Dative case (caturtee दीनजन य चित्तम् दे यं ि (अस्स्त) |
vibhakti) term indicating the
receiver
24. अप द नपदम् = Ablative case (panchamee पुत्र त् अचप धन+भ ज ं भीचताः
vibhakti) term indicating the (भिचत) ।
source of separation
25. सम्बस्न्ध-पदम् = Genitive case (shashtee
vibhakti) term indicating ते क न्त क ?
relationship which is
something other than the
relationships indicated by
the other Kaarakaas. It
would be associated with
one of the kaarakaas.
26. सम्बस्न्ध-पदम् = Term indicating relationship
which is something other उदर+चनचमत्तं चह (एषाः)
than the relationships बहु+कृत+िेषाः ।
indicated by the other पश्च त् शरीरे रोगाः (भिचत) ।
Kaarakaas and the
association is not with the
kaarakaas.
27. क रणि िकपदम् = Term not in instrumental उदर+चनचमत्तं चह (एषाः)
and ablative case (3rd and बहु+कृत+िेषाः ।
5th vibhakti), yet indicating
the cause हे तुि िकपदम्
28. अचधकरणम् = Locative case (Saptamee परमे ब्रह्मचण सक्ताः ।
चिषय चधकरणम् | vibhakti) term indicating
subject matter
िैषचयकम् |
29. अचधकरणम् = Locative case (Saptamee (यस्य) अग्रे िचनाः (भिचत) ।
दे श चधकरणम् vibhakti) term indicating
place - only a part
(औपश्लेचषकम् )
30. अचधकरणम् = Locative case (Saptamee त्वचय मचय ि चिष्णुाः एकाः ।
दे श चधकरणम् vibhakti) term indicating
place - all-pervading
(अचभव्य पकम् )
31. अचधकरणम् = Locative case (Saptamee र त्रौ िुबुक+समचपजत+ज नु ाः (भिचत)
क ि चधकरणम् | vibhakti) term indicating time |
– only a part
औपश्लेचषकम्
32. चिशे षणम् = An adjective for Locative बहु दु स्त रे , अप रे , इह संस रे
अचधकरण-चिशे षणम् case (Saptamee vibhakti) (त्वं ) कृपय (म म् ) प चह |
term
33. अव्ययम् = Indeclinables that connects ि, अिि , ि , तु, चह, यि ,
संयोजकपदम् different words or phrases ति , इचत, िेत्, अचप …

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“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

34. अव्ययम् = Indeclinables indicating the त्वं चिष्णुत्वम् अचिर त् ि ञ्छचस |


क िि िकपदम् time

35. अव्ययम् = Indeclinables indicating the सिजत्र समचित्ताः भि ।


चिषयि िकपदम् subject matter eg. अत्र, सिजत्र

36. अव्ययम् = Indeclinables indicating the तत् तत्त्वम् इह (त्वं ) चिन्तय ।


थि नि िकपदम् place eg. अत्र, अन्यत्र, इह

37. समक िीनत्व-द्योतक- Sub-heading for the ज्ञ ते तत्त्वे (सचत) …


सचतसप्तमी-ि क्य ं शाः Satisaptami phrase which सचिचहते क िे संप्र प्ते (सचत) …
indicates the time of the
main action through another
secondary action
38. ज्ञ पक-चक्रय -आश्रय- The object of the secondary तत्त्वे ज्ञ ते (सचत) …
कमज -सूिक-पदम् = action in Satisaptami
39. ज्ञ पक-चक्रय -आश्रय- The subject of the सचिचहते क िे संप्र प्ते (सचत) …
कतृज-सूिक-पदम् = secondary action in
Satisaptami
40. ज्ञ पक-चक्रय -आश्रय- Adjective for the subject of सचिचहते क िे संप्र प्ते (सचत) …
कतृजचिशे षण-सूिक- the secondary action in
Satisaptami
पदम् =
41. ज्ञ पक-चक्रय -सूिक- The secondary action in सचिचहते क िे संप्र प्ते (सचत) …
पदम् = Satisaptami which indicates तत्त्वे ज्ञ ते (सचत) …
the time of the main action
42. सचतसप्तमी-पदम् = Satisaptami term सचत, सत्य म्, सत्सु, सतीषु

43. पूिजक िीन-ि क्य ं शाः sub-heading for ktvaa ते तं चिश िं स्वगजिोकं भुक्त्व पुण्ये
clause क्षीणे मत्यजिोकं चिशस्न्त ।
44. पूिजक िीन-चक्रय = ktvaa word indicating the तं चिश िं स्वगजिोकं भु क्त्व
action that was done prior to
the current action
45. चक्रय गभज पदम् The word has an inherent परमे ब्रह्मचण सक्ताः ।
action and some other word
will be related to this
inherent action.
46. समु च्चय-ि क्यम् Another sentence that is क िाः क्रीडचत | आयुाः गच्छचत ।
closely associated with the
main sentence by some
relationship like cause-
effect.
47. उपम -ि िक-पदम् The word which provides a योगी एि ब ि+उन्मत्त+ित् रमते ।
comparison तित् जीचितम् अचतशयिपिं (भिचत)

* - * - *

1. भज गोविन्दम्

श्लोकः
भज गोचिन्दं भज गोचिन्दं
गोचिन्दं भज मूढमते ।

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“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

संप्र प्ते सचिचहते क िे


नचह नचह रक्षचत डु कृञ्करणे ॥१॥

पदच्छे दः
भज, गोचिन्दम्, भज, गोचिन्दम्, गोचिन्दम्, भज, मूढमते , संप्र प्ते, सचिचहते , क िे, न, चह, न, चह,
रक्षचत, डु कृञ्करणे

पदपररचयः
 सम्बोधनपदम् = मूढमते [ मूढमचताः इ. पुं. संप्र. एक. ]
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = भज [ भज “भज सेि य म्” उभ. (अत्र पर.) िोि् . मपु . एक. ]
 कमजपदम् = गोचिन्दम् [ अ. पुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = रक्षचत [ रक्ष् “रक्ष प िने ” पर. िि् . प्रपु . एक. ]
 चिशेषणम् = न [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् | प्रचतषेधपदम् |
 अव्ययम् = चह [ अव्ययम् ] ~~ अिध रणम् |
 कतृजपदम् = “डु कृञ् करणे ” [ *संज्ञ | एतद् पचणनेाः ध तुप ठे एकं व्य करणसू म् । एतद् पदम् अस्स्मन्
श्लोके संज्ञ रूपेण प्रिम चिचभक्त् यिे एकििने उपयुङ्क्ते । ध तोाः औपदे चशक रूपम् सूियचत । “कृ”
ध तुाः करणक ये भिचत इचत एतस्य सूत्रस्य अिजाः । ] ~~ शुिकत ज |
 समक िीनत्व-द्योतक-सचतसप्तमी-ि क्य ं शाः
 उपपदसप्तमी = क िे [ अ. पुं. स. एक. ] ~~ ज्ञ पक-चक्रय -आश्रय-कतृज -सूिक-पदम् |
 चिशेषणम् = सचिचहते [ अ. पुं. स. एक. ] ~~ ज्ञ पक-चक्रय -आश्रय-कतृजचिशेषण-सूिक-पदम्
|
 उपपदसप्तमी = संप्र प्ते [ अ. पुं. स. एक. ] ~~ ज्ञ पक-चक्रय -सूिक-पदम् |
 उपपदसप्तमी = (सचत) ~~ सचतसप्तमी-पदम् |

अन्वयः
मूढमते । (त्वं) गोचिन्दं भज । (त्वं ) गोचिन्दं भज । (त्वं ) गोचिन्दं भज । सचिचहते क िे संप्र प्ते (सचत)
“डु कृञ्करणे ” न चह रक्षचत । न चह (रक्षचत) ।

सारम्
हे मूढ । त्वं सिजद गोचिन्दं भज । नीणीते मरणक िे आगते सचत “डु कृञ् करणे ” इत्य चद व्य करण चदश स्त्र ण म्
अध्ययनं संस रदु ाःख त् तुभ्यं न रचक्षतुं शक्नोचत । भगि न् गोचिन्दाः एि ति रक्षणे समिोऽस्स्त । अताः त्वं गोचिन्दं
भज।

हे मन्दबुिे । त्वं गोचिन्दं चनरन्तरं भज । मरणक िे अत्यन्तं सचिचहते सचत व्य करण दीतरश स्त्र ध्ययनं संस रमुक्तये
न कल्पते । अताः इद नीं ति गोचिन्दभजनमेि कतजव्यम् ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 गोचिन्दं भज = गोचिन्दम् + भज – अनुस्व रसस्न्धाः ।
 सम साः
 मूढमते

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“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 मूढ मचताः यस्य साः मूढमचताः - बहुव्रीचहाः । सम्बोधनरूपम् । (एकं पुरुषम् उचिष्य िदचत िेत्)
 मूढ ि असौ मचताः ि – कमजध रयाः । सम्बोधनरूपम् । (स्वमचतम् एि उचिष्य िदचत िेत्)
 कृदन्ताः
 संप्र प्ते – सम् + प्र + आप् “आपॢ व्य प्तौ” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) – संप्र प्ताः । तस्स्मन्

 सचिचहते – सम्+चन+ध “डु ध ञ् ध रणपोषणयोाः” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) - सचिचहतंाः।
तस्स्मन् । ध इचत ध तोाः क्त न्तरूपम् चहताः इचत भिचत |
 गोचिन्दम् = गो + चिद् “चिदॢ ि भे ” + श-प्रत्ययाः (कतजरर) ।
 चनिजिनम् (Etymology, i.e., derivation of the word)
 गोचिन्दाः ग ाः (इस्िय चण) चिन्दचत इचत । धेनुाः प्र प्नोचत इचत अचप अिजाः।
 गोचिन्दाः गोचभाः चिद्यते (उपचनषि क्यैाः ज्ञ यते ) इचत । एिं औपचनषदाः पुरुषाः इत्युच्यते।

Bhaja gō vindaṁ bhaja gō vindaṁ


gō vindaṁ bhaja mū ḍ hamatē ।
samprā ptē sannihitē kā lē
nahi nahi rakṣati ḍ ukr̥ñkaraṇ ē ॥1॥

O thou ignorant! Repeat the name of Lord Govind as many times as possible.
None of thy vast learning comes to thy rescue, to shield thee against the
pangs of death.

2. मूढ जहीवह धनागमतृष्णाम्

श्लोकः
मूढ जहीचह धन गमतृष्ण ं
कुरु सद् बुस्िं मनचस चितृष्ण म् ।
यल्लभसे चनजकमोप त्तं
चित्तं तेन चिनोदय चित्तम् ॥२॥

पदच्छे दः
मूढ, जहीचह, धन गमतृ ष्ण म्, कुरु, सद् बुस्िम् , मनचस, चितृष्ण म्, यत् , िभसे , चनजकमोप त्तम्, चित्तम्,
तेन, चिनोदय, चित्तम्

पदपररचयः
 सम्बोधनपदम् = मूढ [ अ. पुं . संप्र. एक. ]
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = जहीचह [ ह “ओह क् त्य गे” पर. िोि् . मपु . एक. ]
 िि् -िक र-रूप चण
 जह चत, जहीताः/जचहताः, जहचत
 जह चस, जहीिाः/जचहिाः, जहीि/जचहि
 जह चम, जहीिाः/जचहिाः, जहीमाः/जचहमाः
 िोि् -िक र-रूप चण
 जचहतु/जह तु, जहीत म्/जचहत म्, जहतु

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 8


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 जहीचह/जचहचह/जह चह, जहीतम्/जचहतम्, जहीत/जचहत


 जह चन, जह ि, जह म
 कमजपदम् = धन गमतृष्ण म् [ आ. स्त्री. चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = कुरु [ कृ “डु कृञ् करणे ” उभ. (अत्र पर.) िोि् . मपु . एक. ]
 कमजपदम् = सद् बुस्िम् [ इ. स्त्री. चि. एक. ] ~~ चिक यं कमज |
 चिशेषणम् = चितृष्ण म् [ आ. स्त्री. चि. एक. ] ~~ कमजचिशेषणम् |
 अचधकरणम् = मनचस [ स. नपुं . स. एक. ] ~~ दे श चधकरणम् | औपश्लेचषकम् |
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |
 तृतीयि क्यम्
 “यत् ” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = िभसे [ िभ् “डु िभष् प्र प्तौ” आत्म. िि् . मपु . एक. ]
 कमजपदम् = चित्तम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 चिशेषणम् = चनजकमोप त्तम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ कमजचिशेषणम् |
 चिशेषणम् = यत् [ यद् द. नपुं . चि. एक. ] ~~ कमजचिशेषणम् |
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |
 “तेन” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = चिनोदय [ चि + नुद् “णुद प्रेरणे ” + चणि् -प्रत्ययाः । उभय. (अत्र पर). िोि् . मपु .
एक. ]
 िि् -िक र-रूप चण
 परस्मैपदे – नु दचत, नुदताः, नुदस्न्त
 आत्मनेपदे – नुदते , नुदेते, नुदन्ते
 चणि्-िि् -िक र-रूप चण
 परस्मैपदे – नोदयचत
 आत्मनेपदे – नोदयते
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ चणजन्त-प्रयोजककत ज | हे तुकत ज |
 कतृजपदम् = चित्तम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ चणजन्त-प्रयोज्यकत ज | कमजकत ज |
 करणि िकपदम् = तेन [ द. नपुं . तृ . एक. ]
अन्वयः
हे मूढ । (त्वं) धन गमतृष्ण ंं जहीचह । (त्वं ) चितृष्ण ंं सद् बुस्िंं मनचस कुरु । चनजकमोप त् तं यत् चित्तं
(त्वं) िभसे, तेन (त्वं ) चित् तं चिनोदय ।

सारम्
हे मूढ । त्वं धन गमतृष्ण ं पररत्यज्य तृष्ण रचहत ं (िैर ग्यसंपि ं ) सद् बुस्िं मनचस चिधेचह । चनजकमजचभर चजजतेन
पुण्यधनेन मनो चिनोदय ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 यल्लभसे = यत् + िभसे – परसिणज सस्न्धाः
 सम साः
 धन गमतृष्ण म्
 धन गमाः = धनस्य आगमाः – षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 धन गमतृष्ण म् = धन गमस्य तृष्ण - षष्ठीतत्पुरुषाः । त म् ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 9


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 सद् बुस्िम् = सती बुस्िाः सद् बुस्िाः – चिशेषणपूिजपदकमजध रयाः । त म् ।


 चितृष्ण म् = चिगत तृष्ण यस्य ाः स - बहुव्रीचहाः । त म् ।
 चनजकमोप त्तम्
 चनजकमज = चनजस्य कमज - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 चनजकमोप त्तम् = चनजकमजण उप त्तम् – तृतीय तत्पुरुषाः ।
 कृदन्ताः
 उप त्तम् = उप + आङ् + द “डु द ञ् द ने” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) ।
 आगमाः = आङ् + गम् “गमॢ गतौ” + घञ् -प्रत्ययाः (कतजरर) ।

Mū ḍ ha jahīhi dhanā gamatr̥ṣṇ ā ṁ


kuru sadbud'dhiṁ manasi vitr̥ṣṇ ā m ।
yallabhasē nijakarmō pā ttaṁ
vittaṁ tē na vinō daya cittam ॥2॥

Thou ignorant! Get over thy desire for earning wealth. Cherish in Thee, the
divine ideals, eliminating desire. Rejoice with what is obtained by honest
means, being content always.

3. नारीस्तनभरनाभीदे शम्

श्लोकः
न रीस्तनभरन भीदे शं
दृष्ट्व म ग मोह िेशम् ।
एतन्म ं सिस चदचिक रं
मनचस चिचिन्तय ि रं ि रम् ॥ ३ ॥

पदच्छे दः
न रीस्तनभरन भीदे शम्, दृष्ट्व , म , अग ंाः, मोह िेशम्, एतत् , म ं सिस चदचिक रम्, मनचस, चिचिन्तय, ि रम्,
ि रम् ।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = अग ाः [ इ “इण् गतौ” पर. िुङ्. मपु . एक. ] (म ग ाः - म ङाः योग त् अक रस्य
िोपाः)
 चिशेषणम् = म [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् | प्रचतषेधपदम् |
 कमजपदम् = मोह िेशम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 ि क्य ं शाः
 अव्ययम् = दृष्ट्व [ अव्ययम् ] ~~ पूिजक िीन-चक्रय |
 कमजपदम् = न रीस्तनभरन भीदे शम् [ अ. पुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = चिचिन्तय [ चि + चिन्त् “चिचत स्मृत्य म्” + चणि्-प्रत्ययाः (िुर चद गणाः) पर. िोि् . मपु.
एक. ]
Grammatical aspects in Bhaja Govindam 10
“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 चिशेषणम् = ि रं ि रम् [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् |


 ि क्य ं शाः
 कमजपदम् = एतत् [ एतद् द. पुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 चिशेषणम् = म ं सिस चदचिक रम् [ अ. पुं . चि. एक. ] ~~ कमज-चिधेय-चिशेषणम् |
 अव्ययम् = (इचत) ~~ कमजि क्य ं श-द्योतकपदम् |
 अचधकरणम् = मनचस [ स. नपुं . स. एक. ] ~~ दे श चधकरणम् | औपश्लेचषकम् |
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |

अन्वयः
न रीस्तनभरन भीदे शं दृष्ट्व , (त्वं ) मोह िेशं म ग ंाः । एतत् म ं सिस चदचिक रम् (इचत) मनचस ि रं ि रं (त्वं )
चिचिन्तय ।

सारम्
स्त्रीण ं भोगथि न चन दृष्ट्व आसस्क्तं म गच्छ, यि िजज्ञ नि न् भि । एतत् मज्ज -म ं स-रक्त दीन ं पररण मंाः एि
इचत अनिरतं मनचस भ िय ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 एतन्म ं सिस चदचिक रम् = एतत् + म ं सिस चदचिक रम् – अनुन चसकाः ।
 ग मोह िेशम् = ग ाः मोह िेशम् – चिसगजस्य िोपाः ।
 सम साः
 न रीस्तनभरन भीदे शम्
 स्तनभराः = स्तनस्य भराः - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 स्तनभरन भीम् = स्तनभरौ ि न भी ि – सम ह रिन्द्िाः ।
 स्तनभरन भीदे शंाः = स्तनभरन भीन ं दे शाः - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 न रीस्तनभरन भीदे शम् = न य ज ाः स्तनभरन भीदे शाः - षष्ठीतत्पुरुषाः । तम् ।
 मोह िेशम् = मोहस्य आिेशाः - षष्ठीतत्पुरुषाः । तम् ।
 म ं सिस चदचिक रम्
 म ं सिसम् = म ं सम् ि िस ि – सम ह रिन्द्िाः ।
 म ं सिस चदाः = म ं सिसम् आचद यस्य साः - बहुव्रीचहाः ।
 म ं सिस चदचिक रंाः = म ं सिस दीन ं चिक राः - षष्ठीतत्पुरुषाः । तम् ।
 कृदन्ताः
 दृष्ट्व = दृश् “दृचशर् प्रेक्षणे ” + क्त्व -प्रत्ययाः ।

Nā rīstanabharanā bhīdē śaṁ


dr̥ṣṭvā mā gā mō hā vē śam ।
ē tanmā nsavasā di vikā raṁ
manasi vicintaya vā raṁ vā ram ॥ 3 ॥

At the sight of the breast and navel of a woman be not thou deluded. Every
time thou see them, consider that they are but lumps of flesh and fat
covered under skin.

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 11


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

4. नवलनीदलगतजलमवततरलम्

श्लोकः
नचिनीदिगतजिमचततरिं
तिज्जीचितमचतशयिपिं
चिस्ि व्य ध्यचभम नग्रस्तं
िोकं शोकहतं ि समस्तम् ॥ ४ ॥

पदच्छे दः
नचिनीदिगतजिम्, अचततरिम्, तित् , जीचितम्, अचतशयिपिम्, चिस्ि, व्य ध्यचभम नग्रस्तम्, िोकम्,
शोकहतम्, ि, समस्तम्

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = नचिनीदिगतजिम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = अचततरिम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = जीचितम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = अचतशयिपिम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 चिशेषणम् = तित् [ अव्ययम् ] ~~ उपम -ि िक-पदम् |
 तृतीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = चिस्ि [ चिद् “चिद् ज्ञ ने” पर. िोि् . म. एक. ]
 कमजपदम् = िोकम् [ अ. पुं. चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 चिशेषणम् = समस्तम् [ अ. पुं. चि. एक. ] ~~ कमजचिशेषणम् |
 ि क्य ं शाः
 चिशेषणम् = व्य ध्यचभम नग्रस्तम् [ अ. पुं . चि. एक. ] ~~ कमज-चिधेय-चिशेषणम् |
 चिशेषणम् = शोकहतम् [ अ. पुं . चि. एक. ] ~~ कमज-चिधेय-चिशेषणम् |
 अव्ययम् = ि [ अव्ययम् ] ~~ संयोजकपदम् |
 अव्ययम् = (इचत) ~~ कमजि क्य ं श-द्योतकपदम् |
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |

अन्वयः
नचिनीदिगतजिम् अचततरिं (भिचत) । तित् जीचितम् अचतशयिपिं (भिचत) । समस्तं िोकं व्य ध्यचभम नग्रस्तं
शोकहतं ि (इचत) चिस्ि ।

सारः
कमिपत्रगतजिकणम् इि प्र चणन ं जीचितं अत्यन्तिपिं भिचत । अहं मम इत्य चद अचभम नरूप मह व्य चधन
आक्र न्ताः अयं प्रपिाः इचत िस्तुतत्त्वं चिज नीचह ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 तिज्जीचितम्
 तित् + जीचितम् = तिद् + जीचितम् - जश्त्त्वसस्न्धाः ।
 तिद् + जीचितम् = तिज् + जीचितम् - श्चुत्वसस्न्धाः ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 12


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 Note: जश्त्त्वसस्न्धाः should be applied before श्चुत्वसस्न्धाः ।


 सम साः
 नचिनीदिगतजिम्
 नचिनीदिम् = नचिन्य ाः दिम् - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 नचिनीदिगतम् = नचिनीदिं गतम् – चितीय तत्पु रुषाः ।
 नचिनीदिगतजिम् = नचिनीदिगतम् जिम् – चिशेषणपूिजपदकमजध रयाः ।
 व्य ध्यचभम नग्रस्तम्
 व्य चधाः अचभम नम् ि व्य ध्यचभम ने - इतरे तरिन्द्िाः ।
 व्य ध्यचभम नग्रस्ताः = व्य ध्यचभम न भ्य ं ग्रस्ताः - तृतीय तत्पुरुषाः । तम् ।
 शोकहतम् = शोकेन हतम् - तृतीय तत्पुरुषाः । तम् ।
 कृदन्ताः
 ग्रस्ताः = ग्रस् “ग्रस ग्रहणे ” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) ।
 हताः = हन् “हन चहं स गत्योाः” (अत्र चहं स य म्) + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) ।
 म नम् = मन् “मन ज्ञ ने ” + ल्युि्-प्रत्ययाः ।
 तस्ित न्ताः
 तित् = तत् + ितुप्-प्रत्ययाः (पररम णे ) ।

Nalinīdalagatajalamatitaralaṁ
tadvajjīvitamatiś ayacapalaṁ ।
vid'dhi vyā dhyabhimā nagrastaṁ
lō kaṁ śō kahataṁ ca samastam ॥ 4 ॥

Earthly existence is as unsteady as a drop of water on lotus leaf. It is


nothing but ego and a bundle of diseases. The world is hooded with dark
grief and ends in destruction.

5. यािवित्तोपाजजनसक्तः

श्लोकः
य िचित्तोप जजनसक्त-
स्त िचिजपररि रो रक्ताः ।
पश्च ज्जीिचत जजजरदे हे
ि त ं कोऽचप न पृच्छचत गेहे ॥ ५ ॥

पदच्छे दः
य ित्, चित्तोप जजनसक्तंाः, त ित् , चनजपररि रंाः, रक्ताः, पश्च त् , जीिचत, जजजरदे हे, ि त ज म्, कंाः, अचप, न,
पृच्छचत, गेहे ।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 “य ित्” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = (कचश्चत्पुरुषाः) ~~ शुिकत ज |

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 13


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 चिशेषणम् = चित्तोप जजनसक्ताः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |


चक्रय गभजपदम् |
 अव्ययम् = य ित् [ अव्ययम् ] ~~ संयोजकपदम् | चक्रय चिशेषणम् |
 “त ित् ” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = चनजपररि राः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = रक्ताः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् | चक्रय गभजपदम् |
 अव्ययम् = त ित् [ अव्ययम् ] ~~ संयोजकपदम् | चक्रय चिशेषणम् |
 अचधकरणम् = (तस्स्मन् ) ~~ चिषय चधकरणम् | िैषचयकम् |
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = पृच्छचत [ प्रच्छ् “प्रच्छ ज्ञीप्स य म्” पर. िि् . प्र. एक. ]
 चिशेषणम् = न [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् | प्रचतषेधपदम् |
 कमजपदम् = ि त ज म् [ आ. स्त्री. चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 कतृजपदम् = काः [ चकम् म. पुं. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 अव्ययम् = अचप [ अव्ययम् ] ~~ अिध रणम् |
 अचधकरणम् = गेहे [ अ. पुं. स. एक. ] ~~ दे श चधकरणम् | औपश्लेचषकम् |
 अव्ययम् = पश्च त् [ अव्ययम् ] ~~ क िि िकपदम् |
 समक िीनत्व-द्योतक-सचतसप्तमी-ि क्य ं शाः
 उपपदसप्तमी = जजजरदे हे [ अ. पुं. स. एक. ] ~~ ज्ञ पक-चक्रय -आश्रय-कतृज -सूिक-पदम् |
 उपपदसप्तमी = जीिचत [ जीित् त. पुं . स. एक. ] ~~ ज्ञ पक-चक्रय -सूिक-पदम् |
 उपपदसप्तमी = (सचत) ~~ सचतसप्तमी-पदम् |
अन्वयः
(कचश्चत्पुरुषाः) य ित् चित्तोप जजनसक्तंाः (भिचत), त ित् चनजपररि रंाः (तस्स्मन्) रक्ताः (भिचत) । पश्च त्
जजजरदे हे जीिचत (सचत) गेहे कंाः अचप ि र् त ं न पृच्छचत ।

सारः
पूिोक्त िजमेि नुिदचत । गृहपचताः य ित्क िपयजन्तं धनसंप दने व्य पृताः शक्तो भिचत त ित्क िपयजन्तं पुत्र-भ य ज द याः
ब न्धि ाः तस्स्मन् अनुरक्त ाः भिस्न्त । यद खिु पचित-गचित-शरीराः प्र ण न् धरचत, चित्तसम जजन श क्तश्च भिचत,
तद स्वगृहे न कोऽचप कुशिमचप पृ च्छेत् ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 य िचित्तोप जजनसक्तंाः = य ित् चित्तोप जजनसक्तंाः - जश्त्त्वसस्न्धाः
 चित्तोप जजनसक्तस्त ित् = चित्तोप जजनसक्तंाः + त ित् – चिसगजस्य सक र दे शाः
 त िचिजपररि रंाः = त ित् + चनजपररि रंाः - अनुन चसकाः
 चनजपररि रो रक्ताः = चनजपररि रंाः + रक्ताः – चिसगजसस्न्धाः उक र दे शाः, गुणाः ।
 पश्च ज्जीिचत
 पश्च त् + जीिचत = पश्च द् जीिचत – जश्त्त्वसस्न्धाः
 पश्च द् + जीिचत = पश्च ज् + जीिचत - श्चुत्वसस्न्धाः
 कोऽचप = को+अचप – पू िजरुपसस्न्धाः । काः + अचप – चिसगजसस्न्धाः, उक र दे शाः, गुणाः ।
 सम साः
 चित्तोप जजनसक्तंाः
 चित्तोप जजनम् = चित्तस्य उप जजनम् – षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 चित्तोप जजनसक्ताः = चित्तोप जज ने सक्ताः - सप्तमीतत्पुरुषाः ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 14


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 चनजपररि रंाः = चनजस्य पररि राः - षष्ठीतत्पुरुषाः ।


 जजजरदे हे = जजजराः दे हाः यस्य साः – बहुव्रीचहाः | तस्स्मन् |
 Note: Another option is to consider this as a simple sentence without
Satisaptami - जजजरदे हे = जजजरश्च सौ दे हश्च जजजरदे हाः - इतरे तरिन्द्िाः । तस्स्मन् । In that
case, the anvaya will be this पश्च त् (साः यचद) जजजरदे हे जीिचत, (तचहज ) गेहे काः अचप
ि त ं न पृच्छचत ।
 The padaparichaya will be done this way:
 चक्रय पदम् = जीिचत [ जीि् “जीि प्र णध रणे ” पर. िि् . प्रपु . एक. ]
 अचधकरणम् = जजजरदे हे [ अ. पुं . स. एक. ] ~~ दे श चधकरणम् | अचभव्य पकम् |
 कृदन्ताः
 सक्तंाः = सञ्ज् “षञ्ज सङ्गे” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) ।
 रक्ताः = रञ्ज् “रञ्ज र गे” + क्त-प्रत्ययाः (कतजरर - अकमजकाः) ।
 उप जजनम् = उप + अज्ज “अजज अजजने” + ल्युि्-प्रत्ययाः ।
 जीिचत = जीि् “जीि प्र णध रणे ” + शतृ -प्रत्ययाः । तस्स्मन् ।

Yā vadvittō pā rjanasakta-s
stā vannijaparivā rō raktaḥ ।
paścā jjīvati jarjaradē hē
vā rtā ṁ k̥̥pi na pr̥cchati gē hē ॥ 5 ॥

So long as thou possess wealth, thou hast all kith and kin and all paraphernalia about you. But when thou
attain old age and live a sinecure, none enquires about your health even in your own house. (sinecure:
one who has revenue without employment).

6. याित्पिनो वनिसवत दे हे

श्लोकः
य ित्पिनो चनिसचत दे हे
त ित्पृच्छचत कुशिं गेहे ।
गतिचत ि यौ दे ह प ये
भ य ज चबभ्यचत तस्स्मन्क ये ॥६॥

पदच्छे दः
य ित् , पिनाः, चनिसचत, दे हे, त ित् , पृच्छचत, कुशिम्, गेहे, गतिचत, ि यौ, दे ह प ये , भ य ज ाः, चबभ्यचत,
तस्स्मन्, क ये ।

पाठभेदः
य िज्जीिो चनिसचत दे हे
कुशिं त ित् पृ च्छचत गेहे ।
गतिचत ि यौ दे ह प ये
भायाज चबभ्यचत तस्स्मन्क ये ॥६॥

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 15


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 “य ित्” ि क्य ं शाः


 चक्रय पदम् = चनिसचत [ चन + िस् “िस चनि से” पर. िि् . प्रपु . एक. ]
 अव्ययम् = य ित् [ अव्ययम् ] ~~ संयोजकपदम् | चक्रय चिशेषणम् |
 कतृजपदम् = पिनाः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 अचधकरणम् = दे हे [ अ. पुं. स. एक. ] ~~ दे श चधकरणम् | अचभव्य पकम् |
 “त ित् ” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = पृच्छचत [ प्रछ् “प्रछ ज्ञीप्स य म्” प्रच्छ् “प्रच्छ ज्ञीप्स य म्” पर. िि् . प्र. एक. ]
 अव्ययम् = त ित् [ अव्ययम् ] ~~ संयोजकपदम् | चक्रय चिशेषणम् |
 कमजपदम् = कुशिम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 कतृजपदम् = (सिे ) ~~ शुिकत ज |
 अचधकरणम् = गेहे [ अ. नपुं. स. एक. ] ~~ दे श चधकरणम् | औपश्लेचषकम् |
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = चबभ्यचत [ भी (चञभी भये – तृतीयगणाः जुहोत्य चदगणाः) पर. िि् . प्र. बहु. ]
 िि् -िक र-रूप चण
 प्रिमपुरुषाः - चबभेचत, चबभीताः / चबचभताः, चबभ्यचत |
 कतृजपदम् = भ य ज ाः [ आ. स्त्री. प्र. बहु. ] ~~ शुिकत ज |
 अचधकरणम् = क ये [ अ. पुं . स. एक. ] ~~ चिषय चधकरणम् | िैषचयकम् |
 चिशेषणम् = तस्स्मन् [ तद् द. पुं. स. एक. ] ~~ अचधकरण-चिशेषणम् |
 समक िीनत्व-द्योतक-सचतसप्तमी-ि क्य ं शाः
 उपपदसप्तमी = ि यौ [ उ. पुं . स. एक. ] ~~ ज्ञ पक-चक्रय -आश्रय-कतृज -सूिक-पदम् |
 चिशेषणम् = दे ह+अप ये [ अ. पुं . स. एक. ] ~~ ज्ञ पक-चक्रय -आश्रय-कतृजचिशेषण-सूिक-
पदम् |
 उपपदसप्तमी = गतिचत [ गतित् त. पुं . स. एक. ] ~~ ज्ञ पक-चक्रय -सूिक-पदम् |
 उपपदसप्तमी = (सचत) ~~ सचतसप्तमी-पदम् |
अन्वयः
पिनाः य ित् दे हे चनिसचत त ित् गेहे कुशिं पृच्छचत । दे ह प ये ि यौ गतिचत (सचत) भ य ज ाः तस्स्मन् क ये चबभ्यचत

सारः
य ित् प्र णि युाः शरीरे चशष्यते त ित् गेहे पुत्र-भ य ज दयाः तस्स्मन् अनुरक्त ाः भिस्न्त, तत्सेि य ं तत्त्पर श्च भिस्न्त ।
पश्च त् प्र णचियोगेन दे हप ते सचत (मृते सचत) अत्यन्तमनुरक्त स्वभ य ज ऽचप जडीभू तशरीरचिषयकं भयम कियचत ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 पिनो चनिसचत = पिनाः + चनिसचत – चिसगजसस्न्धाः उक र दे शाः, गुणाः ।
 कुशिं गेहे = कुशिम् + गेहे - अनुस्व रसस्न्धाः
 सम साः
 दे ह प ये = दे हस्य अप याः दे ह प याः - षष्ठीतत्पुरुषाः । तस्स्मन् ।
 कृदन्ताः
 पिनाः = पू “पूङ् पिने ” + घञ्-प्रत्ययाः (कतजरर) |
 गतिचत = गम् “गमॢ गतौ” + क्तितु -प्रत्ययाः - गति न् । तस्स्मन् ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 16


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

Yā vatpavanō nivasati dē hē
tā vatpr̥cchati kuśalaṁ gē hē ।
gatavati vā yau dē hā pā yē
bhā ryā bibhyati tasminkā yē ॥6॥

So long as thou has life breath in thee thou art anxious about the welfare of thy family. But when thou
breath thy last, even thy wife who kissed and hugged thee shuns thy corpse.

7. बालस्ताित्क्रीडासक्तः

श्लोकः
ब िस्त ित्क्रीड सक्ताः
तरुणस्त ित्तरुणीसक्ताः ।
िृिस्त िस्च्चन्त सक्ताः
परमे ब्रह्मचण कोऽचप न सक्ताः ॥७॥

पदच्छे दः
ब िाः, त ित् , क्रीड सक्ताः, तरुणाः, त ित्, तरुणीसक्ताः, िृिाः, त ित्, चिन्त सक्ताः, परमे, ब्रह्मचण, काः,
अचप, न, सक्ताः ।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 (य ित्) ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 अव्ययम् = (य ित्) ~~ संयोजकपदम् |
 कतृजपदम् = ब िाः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = (सन् ) ~~ कतृजचिशेषणम् |
 “त ित्” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 अव्ययम् = त ित् [ अव्ययम् ] ~~ संयोजकपदम् | चक्रय चिशेषणम् |
 कतृजपदम् = (साः) ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = क्रीड सक्ताः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 चितीयि क्यम्
 (य ित्) ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 अव्ययम् = (य ित्) ~~ संयोजकपदम् | चक्रय चिशेषणम् |
 कतृजपदम् = तरुणाः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = (सन् ) ~~ कतृजचिशेषणम् |
 “त ित्” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 अव्ययम् = त ित् [ अव्ययम् ] ~~ संयोजकपदम् | चक्रय चिशेषणम् |
 कतृजपदम् = (साः) ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = तरुणीसक्ताः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 तृतीयि क्यम्

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 17


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 (य ित्) ि क्य ं शाः


 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 अव्ययम् = (य ित्) ~~ संयोजकपदम् | चक्रय चिशेषणम् |
 कतृजपदम् = िृिाः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = (सन् ) ~~ कतृजचिशेषणम् |
 “त ित्” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 अव्ययम् = त ित् [ अव्ययम् ] ~~ संयोजकपदम् | चक्रय चिशेषणम् |
 कतृजपदम् = (साः) ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = चिन्त सक्ताः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 ितुिजि क्यम्
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 चिशेषणम् = न [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् | प्रचतषेधपदम् |
 कतृजपदम् = काः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ शु िकत ज |
 अव्ययम् = अचप [ अव्ययम् ] ~~ अिध रणम् |
 ि क्य ं शाः
 चिशेषणम् = सक्ताः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् | चक्रय गभजपदम् |
 अचधकरणम् = ब्रह्मचण [ न. नपुं . स. एक. ] ~~ चिषय चधकरणम् | िैषचयकम् |
 चिशेषणम् = परमे [ अ. नपुं . स. एक. ] ~~ अचधकरण-चिशेषणम् |
अन्वयः
(य ित् ) ब िाः (सन्) (अस्स्त) त ित् क्रीड सक्ताः (भिचत) । तरुणाः त ित् तरुणीसक्ताः (भिचत) । िृिाः त ित्
चिन्त सक्ताः (भिचत) । काः अचप परमे ब्रह्मचण सक्ताः न (भिचत) ।

सारः
ब ल्य िथि य ं सिोऽचप केल्य ं आसक्तो भिचत । यौिने तु स्स्त्रय ं , ि धजक्ये चिन्त य ं ि आसक्तो भिचत ।
सस्च्चद नन्दे ब्रह्मचण तु कोऽचप न सक्तो भिचत ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 ब िस्त ित् = ब िाः + त ित् – चिसगजसस्न्धाः, सक राः
 तरुणस्त ित् = तरुणाः + त ित् – चिसगजसस्न्धाः, सक राः
 िृिस्त ित् = िृिाः + त ित् - चिसगजसस्न्धाः, सक राः
 त िस्च्चन्त सक्ताः = त ित् + चिन्त सक्ताः – श्चुत्वसस्न्धाः
 कोऽचप = काः + अचप – चिसगजसस्न्धाः, उक र दे शाः, गुणाः । को+अचप – पूिजरुपसस्न्धाः ।
 सम साः
 क्रीड सक्ताः = क्रीड य ं सक्ताः, सप्तमीतत्पुरुषसम साः ।
 तरुणीसक्ताः = तरुण्य ं सक्ताः, सप्तमीतत्पुरुषसम साः ।
 चिन्त सक्ताः = चिन्त य ं सक्ताः, सप्तमीतत्पुरुषसम साः ।
 कृदन्ताः
 सक्तंाः = सञ्ज् “षञ्ज सङ्गे” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) ।

Bā lastā vatkrīḍ ā saktaḥ


taruṇ astā vattaruṇ īsaktaḥ ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 18


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

Vr̥d'dhastā vaccintā saktaḥ


paramē brahmaṇ i k̥̥pi na saktaḥ ॥ 7 ॥

Thy mind is engaged in games when thou art a boy, and in youth in courting
thy lady love. When thou art old, it is crowded with thoughts and worries.
In short thou hast no time to devote unto God or divine ideals.

8. का ते कान्ता

श्लोकः
क ते क न्त कस्ते पु त्राः
संस रोऽयमतीि चिचित्राः ।
कस्य त्वं काः कुत आय त-
स् तत्त्वं चिन्तय तचदह भ्र ताः ॥८॥

पदच्छे दः
क ते क न्त कंाः ते पु त्राः संस रंाः अयम् अतीि चिचित्राः कस्य त्वं काः कुतंाः आय ताः तत् त्वं चिन्तय तत् इह
भ्र ताः

पदपररचयः
 सम्बोधनपदम् = भ्र ताः [ भ्र तृ ऋ. पु . संप्र. एक. ]
 चिभस्क्त-रूप चण
 प्रिम = भ्र त , भ्र तरौ, भ्र तराः ।
 सम्बोधनम् = भ्र ताः, भ्र तरौ, भ्र तराः ।
 चितीय = भ्र तरम्, भ्र तरौ, भ्र तॄन् ।
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 कतृजपदम् = क [ आ. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज | प्रश्नि िक-कतृजपदम् |
 चिशेषणम् = क न्त [ आ. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 सम्बस्न्ध-पदम् = ते (ति) [ युष्मद् द. चत्र. ष. एक. ]
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 कतृजपदम् = काः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ शु िकत ज | प्रश्नि िक-कतृज पदम् |
 चिशेषणम् = पुत्राः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 सम्बस्न्ध-पदम् = ते (ति) [ युष्मद् द. चत्र. ष. एक. ]
 तृतीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 कतृजपदम् = संस राः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = अयम् [ इदम् म. पुं. प्र. एक. ] ~~ कतृजचिशेषणम् |
 प्रिम -चिभस्क्त-रूप चण
 पुस्ल्लङ्ग-प्रिम = अयम् इमौ इमे |
 स्त्रीचिङ्ग-प्रिम = इयम् इमे इम ाः |
 नपुंसकचिङ्ग-प्रिम = इदम् इमे इम चन |
 चिशेषणम् = चिचित्राः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 चिशेषणम् = अतीि [ अव्ययम् ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषण-चिशेषणम् |

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 19


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 ितुिजि क्यम्
 चक्रय पदम् = (अचस)
 कतृजपदम् = त्वम् [ युष्मद् द. चत्र. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = (बन्धुाः) ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 सम्बस्न्ध-पदम् = कस्य [ चकम् म. पुं . ष. एक. ] ~~ प्रश्नि िक-सम्बस्न्ध-पदम् |
 पिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = (अचस)
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = आय ताः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् | चक्रय गभजपदम् |
 अप द नपदम् = कुताः (कस्म त् ) [ अव्ययम् ] ~~ प्रश्नि िक-अप द नपदम् |
 षष्ठि क्यम्
 चक्रय पदम् = चिन्तय [ चिन्त् “चिचत स्मृत्य म्” पर. िोि् . मपु. एक. ]
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |
 कमजपदम् = तत्त्वम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 चिशेषणम् = तत् [ तद् द. नपुं . चि. एक. ] ~~ कमजचिशेषणम् |
 अव्ययम् = इह (अत्र) [ अव्ययम् ] ~~ थि नि िकपदम् |
अन्वयः
(हे ) भ्र ताः । ते क न्त क ? ते पुत्राः कंाः? अयं संस रंाः अतीि चिचित्राः । त्वं कस्य (अचस) ? । (त्वं) काः
? (त्वं) कुतंाः आय ताः ? तत् तत् त्वम् इह (त्वं) चिन्तय ।

सारः
हे भ्र ताः । ति व्यिह र ि ज भ य ज क ? ति पुत्राः काः ? कस्य ाः भत ज त्वम्? कस्य चपत ? ति उत्पचत्तथि नं चकम्?
एतेष ं तत्त्वं चिन्तय ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 कस्ते = काः ते – चिसगजसस्न्धाः, सक राः
 संस रोऽयम् = संस राः अयम् – चिसगजसस्न्धाः, उक र दे शाः, गुणाः । पूिजरुपसस्न्धाः |
 कुत आय ताः = कुताः आय ताः - चिसगजसस्न्धाः, िोपाः
 आय तस्तत्त्वं = आय ताः तत्त्वं - चिसगजसस्न्धाः, सक राः
 तचदह = तत् इह – जश्त्त्वसस्न्धाः
 कृदन्ताः
 आय ताः = आ “आङ्” + य “य प्र पणे ” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) |

Kā tē kā ntā kastē putraḥ


sansā r̥̥yamatīva vicitraḥ ।
kasya tvaṁ kaḥ kuta ā yā ta-
stattvaṁ cintaya tadiha bhrā taḥ ॥8॥

Who is thy wife and who is thy son? O brother! The so called family of yours
is mysterious. Wherefrom art thou? Where do thou go? Trace thy existence in
this world and understand the truth.

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 20


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

9. सत्सङ्गत्वे वनस्सङ्गत्वम्

श्लोकः
सत्सङ्गत्वे चनस्सङ्गत्वं
चनस्सङ्गत्वे चनमोहत्वम् ।
चनमोहत्वे चनश्चितत्त्वं
चनश्चितत्त्वे जीिन्मुस्क्ताः ॥९॥

पदच्छे दः
सत्सङ्गत्वे चनस्सङ्गत्वम् चनस्सङ्गत्वे चनमोहत्वम् चनमोहत्वे चनश्चितत्त्वं चनश्चितत्त्वे जीिन्मुस्क्ताः ।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = चनंाः+सङ्गत्वम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 अचधकरणम् = सत् +सङ्गत्वे [ अ. नपुं . स. एक. ] ~~ चिषय चधकरणम् | िैषचयकम् |
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = चनंाः+मोहत्वम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 अचधकरणम् = चनस्सङ्गत्वे [ अ. नपुं . स. एक. ] ~~ चिषय चधकरणम् | िैषचयकम् |
 तृतीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = चनंाः+िि+तत्त्वम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 अचधकरणम् = चनमोहत्वे [ अ. नपुं . स. एक. ] ~~ चिषय चधकरणम् | िैषचयकम् |
 ितुिजि क्यम्
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = जीिन् +मुस्क्ताः [ इ. पुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 अचधकरणम् = चनश्चितत्त्वे [ अ. नपुं . स. एक. ] ~~ चिषय चधकरणम् | िैषचयकम् |

अन्वयः
सत्सङ्गत्वे चनस्सङ्गत्वम् । चनस्सङ्गत्वे चनमोहत्वम् । चनमोहत्वे चनश्चितत्त्वम् । चनश्चितत्त्वे जीिन्मुस्क्ताः (भिचत) ।

सारः
ब्रह्मज्ञ चनन ं संसगेण भोगेषु संगर चहत्यं भिचत । संग भ िचसिौ मोह पगमाः भिचत । मोह पगमे ि स्थिरत चसद्ध्यचत
। थिैयजचसिौ ि जीिन् एि अचिद्य बन्ध त् मुक्ताः भिचत ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 चनस्सङ्गत्वम् चनस्सङ्गत्वे = चनस्सङ्गत्वं चनस्सङ्गत्वे – अनुस्व रसस्न्धाः
 चनश्चितत्त्वम् चनश्चितत्त्वे = चनश्चितत्त्वं चनश्चितत्त्वे – अनुस्व रसस्न्धाः
 सम साः
 सत्सङ्गत्वे – सत ं सङ्गाः सत्सङ्गाः – षष्ठीतत्पुरुषाः (सम साः) । सत्सङ्गस्य भ िाः सत्सङ्गत्वम् (तस्िताः) ।
तस्स्मन् ।
 चनस्सङ्गत्वे – (चनगजताः सङ्गाः यस्म त् साः चनस्संगाः - पिम्यिज बहुव्रीचहाः ।) चनगजताः सङ्ग त् चनस्सङ्गाः -
प्र चदतत्पुरुषाः । तस्य भ िाः चनस्सङ्गत्वम् । तस्स्मन् ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 21


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 चनमोहत्वे – (चनगजताः मोहाः यस्म त् साः चनरमोहाः - पिम्यिज बहुव्रीचहाः ।) चनगजताः मोह त् चनमोहाः -
प्र चदतत्पुरुषाः । तस्य भ िाः चनमोहत्वम् । तस्स्मन् ।
 चनश्चितत्त्वे
 चनश्चिम् = (चनगजताः ििाः (ििनं ) यस्म त् तत् - पिम्यिज बहुव्रीचहाः ।) चनगजतं िि त् (ििन त् ) -
प्र चदतत्पुरुषाः ।
 तत्त्वम् = तस्य भ िाः ।
 चनश्चितत्त्वे = चनश्त््िश्च तत् तत्वि – चिशेषण-पूिजपद-कमजध रयाः । तस्स्मन् ।
 जीिन्मुस्क्ताः - जीिताः एि मुस्क्ताः जीिन्मुस्क्ताः - अिध रण -पूिजपद-कमजध रयाः ।
 तस्ित न्ताः
 सत्सङ्गत्वे – सत ं सङ्गाः सत्सङ्गाः – षष्ठीतत्पुरुषाः (सम साः) । सत्सङ्गस्य भ िाः सत्सङ्गत्वम् (तस्िताः) ।
तस्स्मन् ।

Satsaṅ gatvē nis'saṅ gatvaṁ


niḥ saṅ gatvē nirmō hatvam ।
Nirmō hatvē niścalatattvaṁ
niścalatattvē jīvanmuktiḥ ॥9॥

Obtain the company of the good. Thou art rid of fear. In the absence of
fear, ignorance is lost. In the loss of ignorance, thy mind is steady. In
the steadiness of thy mind is centered salvation.

10. ियवस गते कः

श्लोकः
ियचस गते काः क मचिक राः
शुष्के नीरे काः क स राः ।
क्षीणे चित्ते काः पररि रो
ज्ञ ते तत्त्वे काः संस राः ॥१०॥

पाठभेदः
ियचस गते काः क मचिक राः
शुष्के नीरे काः क स राः ।
नष्टे द्रव्ये काः पररि रो
ज्ञ ते तत्त्वे काः संस राः ॥१०॥

पदच्छे दः
ियचस गते काः क मचिक राः शुष्के नीरे काः क स राः क्षीणे चित्ते काः पररि रंाः ज्ञ ते तत्त्वे काः संस राः ।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = काः [ चकम् म. पुं. प्र. एक. ] ~~ आक्षेप िे प्रश्नि िक-कतृजपदम् | शुिकत ज |
 चिशेषणम् = क म+चिक राः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशे षणम् |
 समक िीनत्व-द्योतक-सचतसप्तमी-ि क्य ं शाः
 उपपदसप्तमी = ियचस [ स. नपुं . स. एक. ] ~~ ज्ञ पक-चक्रय -आश्रय-कतृज -सूिक-पदम् |

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 22


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 प्रिम -चिभस्क्त-रूप चण
 ियाः, ियसी, िय ं चस
 उपपदसप्तमी = गते [ अ. नपुं . स. एक. ] ~~ ज्ञ पक-चक्रय -सूिक-पदम् |
 उपपदसप्तमी = (सचत) ~~ सचतसप्तमी-पदम् |
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = काः [ चकम् म. पुं. प्र. एक. ] ~~ आक्षेप िे प्रश्नि िक-कतृजपदम् | शुिकत ज |
 चिशेषणम् = क स राः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 समक िीनत्व-द्योतक-सचतसप्तमी-ि क्य ं शाः
 उपपदसप्तमी = नीरे [ अ. नपुं . स. एक. ] ~~ ज्ञ पक-चक्रय -आश्रय-कतृज -सूिक-पदम् |
 उपपदसप्तमी = शुष्के [ अ. नपुं . स. एक. ] ~~ ज्ञ पक-चक्रय -सूिक-पदम् |
 उपपदसप्तमी = (सचत) ~~ सचतसप्तमी-पदम् |
 तृतीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = काः [ चकम् म. पुं. प्र. एक. ] ~~ आक्षेप िे प्रश्नि िक-कतृजपदम् | शुिकत ज |
 चिशेषणम् = पररि राः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 समक िीनत्व-द्योतक-सचतसप्तमी-ि क्य ं शाः
 उपपदसप्तमी = चित्ते [ अ. पुं. स. एक. ] ~~ ज्ञ पक-चक्रय -आश्रय-कतृज -सूिक-पदम् |
 उपपदसप्तमी = क्षीणे [ अ. पुं. स. एक. ] ~~ ज्ञ पक-चक्रय -सूिक-पदम् |
 उपपदसप्तमी = (सचत) ~~ सचतसप्तमी-पदम् |
 ितुिजि क्यम्
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = काः [ चकम् म. पुं. प्र. एक. ] ~~ आक्षेप िे प्रश्नि िक-कतृजपदम् | शुिकत ज |
 चिशेषणम् = संस राः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 समक िीनत्व-द्योतक-सचतसप्तमी-ि क्य ं शाः
 उपपदसप्तमी = तत्त्वे [ अ. नपुं . स. एक. ] ~~ ज्ञ पक-चक्रय -आश्रय-कमज-सूिक-पदम् |
 उपपदसप्तमी = ज्ञ ते [ अ. पुं. स. एक. ] ~~ ज्ञ पक-चक्रय -सूिक-पदम् |
 उपपदसप्तमी = (सचत) ~~ सचतसप्तमी-पदम् |

अन्वयः
ियचस गते (सचत) काः क मचिक राः ? शुष्के नीरे (सचत) काः क स राः ? क्षीणे चित्ते (सचत) काः पररि रंाः ?
तत्त्वे ज्ञ ते (सचत) काः सं स राः ?

सारः
िृि िथि य ं क मचिक राः न स्स्त । चनगजते जिे तड काः किं स्य त् ? तड काः न स्य त् इचत भ िाः । शरीरस्य
चित्तस्य ि क्षये ब न्धि ाः कुताः ? न भचिष्यस्न्त । परम िजतत्त्वे ज्ञ ते स क्ष त्कृते संस रोऽचप न स्स्त इत्यिजाः ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 पररि रो ज्ञ ते = पररि रंाः ज्ञ ते - चिसगजसस्न्धाः, उक र दे शाः, गुणाः ।
 सम साः
 क मचिक राः = क मस्य चिक राः - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 कृदन्ताः
 गते = गम् “गमॢ गतौ” + क्त-प्रत्ययाः (कतजरर - सकमजकाः - गत्यिजाः) - गताः । तस्स्मन् ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 23


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 शुष्के = शुष् “शुष शोषणे ” + क्त-प्रत्ययाः (कतजरर - अकमजकाः) - शुष्काः । तस्स्मन् ।


 क्षीणे = चक्ष “चक्ष क्षये” + क्त-प्रत्ययाः (कतजरर - अकमजकाः) - क्षीणाः / चक्षताः । तस्स्मन् ।
 ज्ञ ते = ज्ञ “ज्ञ अिबोधने ” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) - ज्ञ ताः । तस्स्मन् ।

Vayasi gatē kaḥ kā mavikā raḥ


śuṣkē nīrē kaḥ kā sā raḥ ।
Kṣīṇ ē vittē kaḥ parivā rō
jñā tē tattvē kaḥ sansā raḥ ॥10॥

Just as the tremor of lust in youth automatically disappears in old age;


just as a lake is only a stretch of land when water is dry; just as a
wealthy man, when reduced to poverty is devoid of servants; so one who
attains self-knowledge is rid of ephemeral pleasures.

11. मा कुरु धनजनयौिनगिज म्

श्लोकः
म कुरु धनजनयौिनगिं
हरचत चनमेष त्क िस् सिजम् ।
म य मयचमदमस्खिं बुद्व
ब्रह्मपदं त्वं प्रचिश चिचदत्व ॥११॥

पाठभेदः
... म य मयचमदमस्खिं चहत्व ...

पदच्छे दः
म कुरु धन+जन+यौिन+गिजम् हरचत चनमेष त् क िाः सिजम् म य मयम् इदम् अस्खिम् बुद्व ब्रह्मपदम् त्वम्
प्रचिश चिचदत्व ।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = कुरु [ कृ “डु कृञ् करणे ” उभ. (अत्र पर.) िोि् . मपु . एक. ]
 चिशेषणम् = म [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् | प्रचतषेधपदम् |
 कमजपदम् = धन+जन+यौिन+गिजम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ चनिजत्यं कमज |
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = हरचत [ हृ “हृञ् हरणे ” उभ. (अत्र पर.) िि् . प्र. एक. ]
 चिशेषणम् = चनमेष त् । अ. पुं. पं. एक. ] ~~ क िि िकपदम् – (अत्र आप द नं न) -
चक्रय चिशेषणम् | चनमेषम् अचतक्रम्य - just after a minute, or चनमेषम् अनचतक्रम्य -
without even losing a minute | ि चतजक – “ल्यब्लोपे कमजण्यचधकरणे ि” - lyabanta
is deleted, and the karma or adhikarana is given panchami vibhakti.
 कमजपदम् = सिजम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 कतृजपदम् = क िाः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
Grammatical aspects in Bhaja Govindam 24
“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 तृतीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = प्रचिश [ प्र + चिश् “चिश प्रिेशने ” पर. िोि् . मपु . एक.]
 कमजपदम् = (ब्रह्मपदम्) ~~ प्र प्यं कमज |
 कतृजपदम् = त्वम् [ युष्मद् द. चत्र. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 पूिजक िीन-ि क्य ं शाः
 पूिजक िीन-चक्रय = बुद्व [ अव्ययम् ]
 कमजपदम् = अस्खिम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 चिशेषणम् = म य मयम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ कमजचिशेषणम् |
 चिशेषणम् = इदम् [ म. नपुं . चि. एक. ] ~~ कमजचिशेषणम् |
 पूिजक िीन-ि क्य ं शाः
 पूिजक िीन-चक्रय = चिचदत्व [ अव्ययम् ]
 कमजपदम् = ब्रह्मपदम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |

अन्वयः
धनजनयौिनगर् िं म कुरु । चनमेष त् क िाः सर् िं हरचत । इदम् अस्खिं म य मयम् इचत बुिि त् िं ब्रह्मपदं
चिचदत्व (ब्रह्मपदं ) प्रचिश ।

सारः
त्वं धन-बन्धुबिेन-युित्वेन ि गिं म क षीाः | धन चदषु अहङ्क राः त्य ज्याः इत्यिजाः । यताः क िाः धनजन चदकम्
एतत् सिं क्षणम त्र दे ि हरचत । इदं सिं म य प्रयु क्तम् इचत ज्ञ त्व , सिं पररत्यज्य ब्रह्मपदं चिज्ञ य प्रचिश ।
ब्रह्मस क्ष त्क रे ण ब्रह्म एि भिेत् इत्यिजाः ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 चनमेष त्क िस्सिजम् = चनमेष त्क िाः सिजम् - चिसगजसस्न्धाः, सक राः ।
 सम साः
 धनजनयौिनगिजम्
 धनजनयौिन चन = धनं ि जनाः ि यौिनं – इतरे तरिन्द्िाः ।
 धनजनयौिनगिजम् = धनजनयौिन न ं गिजाः – षष्ठीतत्पुरुषाः | तम् ।
 ब्रह्मपदम् = ब्रह्मणाः पदम् – षष्ठीतत्पुरुषाः |
 कृदन्ताः
 बुद्व = बुध् “बुध अिगमने ” + क्त्व -प्रत्ययाः ।
 चिचदत्व = चिद् “चिद ज्ञ ने ” + क्त्व -प्रत्ययाः ।
 तस्ित न्ताः
 म य मयम् = म य यस्य प्रकृचताः अस्स्त तत् म य मयम् । म य + मयि् -प्रत्ययाः ।

kuru dhanajanayauvanagarvaṁ
harati nimē ṣ ā tkā laḥ sarvam ।
Mā yā mayamidamakhilaṁ bud'dhvā
brahmapadaṁ tvaṁ praviśa viditvā ॥11॥

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 25


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

The silent mill of Time is grinding thee every moment. So be not proud of
thy wealth, kith and kin or thy youth. Cut asunder the cords that bind thee
to this unreal world and enter the blissful world of reality through proper
course, understanding thy self.

12. वदनयावमन्यौ सायं प्रातः

श्लोकः
चदनय चमन्यौ स यं प्र ताः
चशचशरिसन्तौ पुनर य ताः।
क िाः क्रीडचत गच्छत्य युाः
तदचप न मुित्य श ि युाः ॥१२॥

पदच्छे दः
चदनय चमन्यौ स यं प्र ताः चशचशरिसन्तौ पुनंाः आय ताः क िाः क्रीडचत गच्छचत आयुाः तत् अचप न मुिचत आश ि युाः

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = (आय ताः)
 कतृजपदम् = चदन+य चमन्यौ [ अ. पुं. प्र. चि. ] ~~ शुिकत ज |
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = (आय ताः)
 कतृजपदम् = स यम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 कतृजपदम् = प्र ताः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 अव्ययम् = (ि) [ अव्ययम् ] ~~ संयोजकपदम् |
 तृतीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = आय ताः [ आ “आङ्” + य “य प्र पणे ” पर. िि् . प्रपु . चि. ]
 चिशेषणम् = पुनंाः [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् |
 कतृजपदम् = चशचशर+िसन्तौ [ अ. पुं. प्र. चि. ] ~~ शुिकत ज |
 ितुिजि क्यम्
 चक्रय पदम् = क्रीडचत [ क्रीड् “क्रीडंृ चिह रे ” पर. िि् . प्रपु . एक. ]
 कतृजपदम् = क िाः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 समुच्चय-ि क्यम्
 चक्रय पदम् = गच्छचत [ गम् “गमॢ गतौ” पर. िि् . प्रपु . एक. ]
 कतृजपदम् = आयुाः [ उ. पुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 पिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = मुिचत [ मुि् “मुिॢ मोक्षणे ” उभ. (अत्र पर.) िि् . प्रपु . एक. ]
 चिशेषणम् = न [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् | प्रचतषेधपदम् |
 कतृजपदम् = आश +ि युाः [ उ. पुं. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 “तदचप” ि क्य ं शाः
 कतृजपदम् = तत् [ तद् द. नपुं . प्र. एक. ] तदचप इचत ति चप अिि तदस्स्त िेदचप इत्यिे |
 अचप [ अव्ययम् ] ~~ अिध रणम् |

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 26


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

अन्वयः
चदनय चमन्यौ (आय ताः) । स यं प्र ताः (ि) (आय ताः) । चशचशरिसन्तौ पुनंाः आय ताः । क िाः क्रीडचत | आयुाः
गच्छचत । तत् अचप आश ि युाः न मुिचत ।

सारः
अहाः चनश ि पुनाः पुनाः िक्रनेचमित् आगच्छताः गच्छताः ि । एिं स यं प्र ताः चशचशरिसन्तौ ि य त य ते कुरुताः ।
क िाः िीि ं करोचत, तेन सह आयुाः अचप गच्छचत । ति चप तृष्ण ि युाः नरं न त्यजचत ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 पुनर य ताः = पुनंाः आय ताः - चिसगजसस्न्धाः रे फ दे शाः ।
 गच्छत्य युाः = गच्छचत आयुाः – यण् सस्न्धाः ।
 तदचप = तत् अचप – जश्त्त्वसस्न्धाः ।
 मुित्य श ि युाः = मुिचत आश ि युाः – यण् सस्न्धाः ।
 सम साः
 चदनय चमन्यौ = चदनं ि य चमनी ि चदनय चमन्यौ – िन्द्िसम साः ।
 चशचशरिसन्तौ = चशचशराः ि िसन्ताः ि चशचशरिसन्तौ – िन्द्िसम साः ।
 आश ि युाः = आश एि ि युाः - अिध रण -पूिजपद-कमजध रयाः ।

Dinayā min'yau sā yaṁ prā taḥ


śiśiravasantau punarā yā taḥ ।
kā laḥ krīḍ ati gacchatyā yuḥ
tadapi na muñcatyā ś ā vā yuḥ ॥12॥

Night follows the day, the day closes in the evening and dawns afresh on the
next morning. The cheerless winter is succeeded by the pleasant spring. Thus
Time, the wizard, is playing his Death dance and conjures thee. Yet thou do
not want to part with life that is transitory.

Additional Information:
 Extract from “Bhaja Govindam” with Swami Chinayananda’s Commentary
published by The Chinmaya Publication Trust in 1962.
 This is the twelfth stanza, with which the bouquet of 12-verse-flowers
(Dwadasa-Manjarika-Stotra) concludes. These are the twelve-stanzas
directly given by Acharya Sankara, although, in truth, we cannot say it
with any amount of finality, since we find in various publications, the
stanzas are interchanged. In some publications, we find the bunch of
these dozen-stanzas are concluded with a stanza describing the author
and the circumstances under which the poem came to be composed.”
ि दशमञ्जररक चभरशेषाः
कचितो िैय करणस्यैषाः ।
उपदे शोऽभूचिद्य चनपुणैाः
श्रीमच्छङ्करभगिच्छरणैाः ॥

 The following fourteen-verses together form the companion bouquet of


“14-verses flowers” called chaturdasasa-manjarika-stotra. Each one of
them is traditionally found to have been attributed to the fourteen

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 27


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

followers of Sankara who had accompanied him on that day in Benaras.


(Most names are provided in the appropriate stanzas).

After these 14 verses, again Sankara concludes the work with his final
remarks. There are also additional concluding shlokas.

 Extract from http://sanskritdocuments.org/

मूढाः कश्चन िैय करणो


डु कृञ्करण ध्ययन धुररणाः ।
श्रीमच्छम्कर भगिस्च्छष्यै
बोचधत आचसच्छोचधतकरणाः ॥३२॥
Thus a silly grammarian lost in rules cleansed of his narrow vision and
shown the Light by Shankara's apostles.

भजगोचिन्दं भजगोचिन्दं गोचिन्दं भजमूढमते ।


न मस्मरण दन्यमुप यं नचह पश्य मो भितरणे ॥३३॥
Worship Govinda, worship Govinda, worship Govinda, Oh fool ! Other than
chanting the Lord's names, there is no other way to cross the life's
ocean.

13. का ते कान्ता

श्लोकः
क ते क न्त धनगतचिन्त
ि तुि चकं ति न स्स्त चनयन्त ।
चत्रजगचत सज्जनसंगचतरे क
भिचत भि णजितरणे नौक ॥१३॥

पाठभेदः
क ते क न्त धरगतचिन्त (क न्त +अधर+गत+चिन्त ) ...

पदच्छे दः
क ते क न्त धनगतचिन्त ि तुि चकं ति न अस्स्त चनयन्त चत्रजगचत सज्जनसंगचताः एक भिचत भि णजितरणे नौक

पदपररचयः
 सम्बोधनपदम् = ि तु ि [ अ. पुं. संप्र. एक. ]
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 कतृजपदम् = क [ आ. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज | प्रश्नि िक-कतृजपदम् |
 चिशेषणम् = क न्त [ आ. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 सम्बस्न्ध-पदम् = ते (ति) [ युष्मद् द. चत्र. ष. एक. ]
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 अव्ययम् = (चकमिजम्) [ अव्ययम् ] ~~ प्रश्नि िक-प्रयोजनम् |
 कतृजपदम् = धन+गत+चिन्त [ आ. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 तृतीयि क्यम्

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 28


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 अव्ययम् = चकम् [ अव्ययम् ] ~~ प्रश्नि िक-पदम् |


 चक्रय पदम् = अस्स्त [ अस् “अस भुचि” पर. िि् . प्र. एक. ]
 चिशेषणम् = न [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् | प्रचतषेधपदम् |
 कतृजपदम् = चनयन्त [ ऋ. पुं. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 सम्बस्न्ध-पदम् = ति [अव्ययम्]
 ितुिजि क्यम्
 चक्रय पदम् = भिचत [ भू “भू सत्त य म्” पर. िि् . प्रपु . एक. ]
 कतृजपदम् = सज्जनसंगचताः [ इ. स्त्रीाः प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = एक [ आ. स्त्री. प्र. एक.] ~~ कतृजचिशेषणम् |
 चिशेषणम् = नौक [ आ. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 अचधकरणम् = भि+आणज ि+तरणे [ म्. नपुं . स. एक. ] ~~ चिषय चधकरणम् | िैषचयकम् |
 अचधकरणम् = चत्र+जगचत [ इ. स्त्री. स. एक.] ~~ दे श चधकरणम् | अचभव्य पकम् |
अन्वयः
ि तुि । क ते क न्त ? धनगतचिन्त (चकमिजम्) ? ति चनयन्त न अस्स्त चकम् ? चत्रजगचत सज्जनसंगचताः एक
भि णजितरणे नौक भिचत ।

सारः
भुिनत्रये सज्जनसंगचताः (सज्जनसंसगजाः / आि यजसम गमाः) संस रस गरतरणे एक नौक भिचत । अताः
द रध न चदचिन्त ं पररत्यज्य स्वचहतोपदे ष्ट रं चनय मकम ि यजशरणं व्रज ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 सज्जनसंगचतरे क = सज्जनसंगचताः एक - चिसगजसस्न्धाः रे फ दे शाः ।
 सम साः
 क न्त धनगतचिन्त
 क न्त धने = क न्त ि धनं ि – इतरे तरिन्द्िाः ।
 क न्त धने गत = क न्त धनगत - चितीय तत्पुरुषाः ।
 क न्त धनगत चिन्त - क न्त धनगतचिन्त - चिशेषण-पूिजपद-कमजध रयाः ।
 चत्रजगचत = त्रय ण ं जगत ं सम ह राः चत्रजगत् - चिगुाः । तस्स्मन् । चत्रषु जगचत इचत ।
 सज्जनसंगचताः
 सज्जन ाः = सन्ताः जन ाः - चिशेषण-पूिजपद-कमजध रयाः ।
 सज्जनसंगचताः = सज्जन न ं संगचताः - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 भि णजितरणे
 भि णजिाः = भि एि आणजिाः - अिध रण -पूिजपद-कमजध रयाः ।
 भि णजितरणे = भि णज िस्य तरणम् – षष्ठीतत्पुरुषाः । तस्स्मन् ।
 कृदन्ताः
 तरणम् = तॄ “तॄ प्लिनतरणयोाः” + ल्युि्-प्रत्ययाः

This stanza is traditionally attributed to Shri Padmapada.

Kā tē kā ntā dhanagatacintā
vā tula kiṁ tava nā sti niyantā ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 29


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

Trijagati sajjanasaṅ gatirē kā


bhavati bhavā rṇ avataraṇ ē naukā ॥13॥

O mad man! Why do thou go after thy wife or wealth? Is there none to control
and lead thee? Get into the association of the (Sants) Good for a moment,
but for which there is no boat that can take thee across the turbulent ocean
of (samsara) worldly existence.

14. जविलो मुण्डी

श्लोकः
जचििो मुण्डी िुचितकेशाः
क ष य म्बरबहुकृतिेषाः ।
पश्यिचप ि न पश्यचत मूढो
ह्युदरचनचमत्तं बहुकृतिेषाः॥१४॥

पदच्छे दः
जचििाः मुण्डी िुचितकेशाः क ष य+अम्बर+बहु+कृत+िेषाः पश्यन् अचप ि न पश्यचत मूढाः चह उदर+चनचमत्तं
बहु+कृत+िेषाः ।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = पश्यचत [ दृश् “दृचशर् प्रेक्षणे ” पर. िि् . प्रपु . एक. ]
 चिशेषणम् = न [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् | प्रचतषेधपदम् |
 कतृजपदम् = मूढाः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = जचििाः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृजचिशेषणम् |
 चिशेषणम् = मुण्डी [ न. पुं. प्र. एक. ] ~~ कतृजचिशेषणम् |
 चिशेषणम् = िुचितकेशाः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ कतृजचिशेषणम् |
 चिशेषणम् = क ष य+अम्बर+बहु+कृत+िेषाः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृजचिशेषणम् |
 अव्ययम् = (ि ) ~~ संयोजकपदम् |
 ि क्य ं शाः
 चिशेषणम् = पश्यन् [ त. पुं. प्र. एक. ] ~~ समक िीनत्व-द्योतक-कतृजचिशेषणम् |
 अव्ययम् = अचप [ अव्ययम् ] ~~ अिध रणम् |
 अव्ययम् = ि [ अव्ययम् ] ~~ संयोजकपदम् |
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 सम्बस्न्ध-पदम् = उदर+चनचमत्तम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ क रणि िकपदम् |
(चनचमत्तपय ज यप्रयोगे सि ज स ं प्र यदशजनम् – इचत ि चिजक ) - चक्रय सम्बस्न्ध-पदम् |
 कतृजपदम् = (एषाः) ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = बहु+कृत+िे षाः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |

अन्वयः
जचििाः (ि ) मुण्डी (ि ) िुचितकेशाः (ि ) क ष य+अम्बर+बहु+कृत+िेषाः (ि ) मूढाः, पश्यन् अचप ि न
पश्यचत । उदर+चनचमत्तं चह (एषाः) बहु+कृत+िेषाः ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 30


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

सारः
जि ध री, मुस्ण्डतचशरस्काः, िुचितकेशाः क ष य म्बर चद न न िेषयुक्ताः संन्य सिेषध री मूढाः, यि िं न पश्यचत चकन्तु
उदरपूरण िजमेि बहुध िेषं ध रयचत ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 जचििो मुण्डी = जचििाः मुण्डी - चिसगजसस्न्धाः, उक र दे शाः, गुणाः ।
 पश्यिचप = पश्यन् अचप – ङमुड गमसस्न्धाः ।
 मूढो ह्युदरचनचमत्तं = मूढाः ह्युदरचनचमत्तं - चिसगजसस्न्धाः, उक र दे शाः, गुणाः ।
 ह्युदरचनचमत्तं = चह उदरचनचमत्तं – यण् सस्न्धाः ।
 सम साः
 िुचितकेशाः = िुचित ाः केश ाः यस्य साः - बहुव्रीचहाः ।
 क ष य म्बर-बहुकृतिेषाः
 क ष य म्बरम् = क ष यम् ि असौ अम्बरम् ि – चिशेषण पूिजपद कमजध रयाः ।
 क ष य म्बरे ण बहुकृताः िेषाः येन साः - तृतीय िज बहुव्रीचहाः ।
 बहुकृतिेषाः = बहुचभाः कृताः िेषाः येन साः - तृतीय िज बहुव्रीचहाः ।
 उदरचनचमत्तम् = उदरस्य चनचमत्तम् – षष्ठीतत्पुरुषाः |
 कृदन्ताः
 पश्यन् = दृश् “दृचशर् प्रेक्षणे ” + शतृ-प्रत्ययाः ।
 चनचमत्तम् = चन + चमद् "चञचमद स्नेहने " + क्त-प्रत्ययाः (कतजरर – अकमजकाः) ।
 तस्ित न्ताः
 जचििाः = जि + इिि् -प्रत्ययाः | (मतुबिे ) जि अस्य स्तीचत ।
 मुण्डी = मुण्ड + इचन-प्रत्ययाः | (मतुबिे ) मुण्डम् अस्य स्तीचत ।
 क ष य म् = कष य + अण् -प्रत्ययाः । “तेन रक्तं र ग त् ” । कष येण रक्तम् ।

This stanza is traditionally attributed to Shri Totakacharya.

Jaṭilō muṇ ḍ ī luñcitakē śaḥ


kā ṣā yā mbarabahukr̥tavē ṣaḥ ।
paśyannapi ca na paśyati mū ḍ hō
hyudara nimitta bahukr̥tavē ṣaḥ ॥14॥

Godliness does not mean self-mortification. Some shave their head bald, some
cluster the hair, some pluck the hair one by one and some clothe themselves
in saffron robes. They put on the air of saintliness all for the sake of
their belly. They think that they are nearer to God, but are farther from
Heavens.

15. अङ्गं गवलतं पवलतं मुण्डम्

श्लोकः
अङ्गं गचितं पचितं मुण्डं
दशनचिहीनं ज तं तुण्डम् ।
िृिो य चत गृहीत्व दण्डं
तदचप न मुित्य श चपण्डम् ॥१५॥

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 31


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

पदच्छे दः
अङ्गं गचितं पचितं मुण्डं दशन+चिहीनं ज तं तुण्डं िृिाः य चत गृहीत्व दण्डं तत् अचप न मुिचत आश +चपण्डम् ।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 कतृजपदम् = अङ्गम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = गचितम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 कतृजपदम् = मुण्डम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = पचितम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 तृतीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 कतृजपदम् = तुण्डम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = ज तम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् | चक्रय गभजपदम् |
 चिशेषणम् = दशन+चिहीनम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 ितुिजि क्यम्
 चक्रय पदम् = य चत [ य “य प्र पणे ” पर. िि् . प्रपु . एक. ]
 पूिजक िीन-ि क्य ं शाः
 पूिजक िीन-चक्रय = गृहीत्व [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय गभजपदम् |
 कमजपदम् = दण्डम् [ अ. पुं. चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 कतृजपदम् = िृिाः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 पिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = मुिचत [ मुि् “मुिॢ मोक्षणे ” उभ. (अत्र पर.) िि् . प्रपु . एक. ]
 चिशेषणम् = न [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् | प्रचतषेधपदम् |
 कतृजपदम् = आश +चपण्डम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 “तदचप” ि क्य ं शाः
 कतृजपदम् = तत् [ तद् द. नपुं . प्र. एक. ] तदचप इचत ति चप अिि तदस्स्त िेदचप इत्यिे |
 अचप [ अव्ययम् ] ~~ अिध रणम् |

अन्वयः
अङ्गं गचितम् । मुण्डं पचितम् । तु ण्डं दशन+चिहीनं ज तम् । (इत्य चदचभाः चिचशष्टाः) िृिाः दण्डं गृहीत्व य चत ।
तत् अचप आश +चपण्डं न मुिचत ।

सारः
शरीरस्य प्रत्यंगं चशचििं ज तम् । चशराः जरस शु क्लत ं गतम्, मुखं दन्तरचहतं ज तम् । परसह यं चिन
गन्तुमशक्ताः, अतो िृिाः दण्डं गृहीत्व य चत । एत दृश्यिथि शोिनीय ज त ति चप तृष्ण म ं सचपण्डचमदं शरीरं न
मुिचत ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 िृिो य चत = िृिाः य चत - चिसगजसस्न्धाः, उक र दे शाः, गुणाः ।
 तदचप = तत् अचप – जश्त्त्वसस्न्धाः ।
 मुित्य श चपण्डम् = मुिचत आश चपण्डम् – यण् सस्न्धाः ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 32


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 सम साः
 दशनचिहीनम् = दशनैाः चिहीनम् – तृचतय तत्पुरुषाः ।
 कृदन्ताः
 गचितम् = गि् “गि अदने ” + क्त-प्रत्ययाः (कतजरर - अकमजकाः) (नपुं सकाः)
 पचितम् = पि् “पि गतौ” + क्त-प्रत्ययाः (कतज रर – सकमजकाः – गत्यिजाः) (नपुंसकाः)
 दशनम् = दं श् “दं श दशने ” + ल्युि्-प्रत्ययाः । दं शनम् अचप ।
 चिहीनम् = चि + ह “ओह क् त्य गे” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण – सकमजकाः) (नपुंसकाः)
 ज तम् = जम् “जनी प्रदु भ ज िे” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण – सकमजकाः) (नपुंसकाः)
 गृहीत्व = ग्रह् “ग्रह उप द ने ” + क्त्व -प्रत्ययाः ।
 चनिजिनम् (Etymology, i.e., derivation of the word)
 दश्यते एचभाः इचत दशन चन ।
This stanza is traditionally attributed to Shri Hastamalaka.

Aṅ gaṁ galitaṁ palitaṁ muṇ ḍ aṁ


daśanavihīnaṁ jā taṁ tuṇ ḍ am ।
Vr̥d'dhō yā ti gr̥hītvā daṇ ḍ aṁ
tadapi na muñcatyā ś ā piṇ ḍ am ॥ 15 ॥

Even though the limbs grow weak, the teeth fall down from the mouth, the
hair grows white, and the body be supported by a prop, one does not throw
away the bundle of his desires even at the very old age, at the gate of
death.

16. अग्रे िवनः पृष्ठे भानुः

श्लोकः
अग्रे िह्चनाः पृष्ठे भ नुाः
र त्रौ िुबुकसमचपजतज नुाः ।
करतिचभक्षस्तरुतिि साः
तदचप न मुित्य श प शाः ॥१६॥

पदच्छे दः
अग्रे िचनाः पृष्ठे भ नुाः र त्रौ िुबुक+समचपजत+ज नुाः कर+ति+चभक्षंाः तरु+ति+ि साः तत् अचप न मुिचत आश +प शाः

पदपररचयः
 “यस्य” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = िचनाः [ इ. पुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 अचधकरणम् = अग्रे [ अ. नपुं . स. एक. ] ~~ दे श चधकरणम् | औपश्लेचषकम् |
 सम्बस्न्ध-पदम् = (यस्य)
 “यस्य” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = भ नुाः [ उ. पुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 अचधकरणम् = पृ ष्ठे [ अ. पुं. स. एक. ] ~~ दे श चधकरणम् | औपश्लेचषकम् |

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 33


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 सम्बस्न्ध-पदम् = (यस्य)
 “याः” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = िुबुक+समचपज त+ज नुाः [ उ. पुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = (याः) ~~ कतृजचिशेषणम् |
 अचधकरणम् = र त्रौ [ इ. स्त्री. स. एक. ] क ि चधकरणम् | औपश्लेचषकम् |
 “याः” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = कर+ति+चभक्षंाः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = (याः) ~~ कतृजचिशेषणम् |
 “याः” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = तरु+ति+ि साः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = (याः) ~~ कतृजचिशेषणम् |
 “तम्” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = मुिचत [ मुि् “मुिॢ मोक्षणे ” उभ. (अत्र पर.) िि् . प्रपु . एक. ]
 चिशेषणम् = न [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् | प्रचतषेधपदम् |
 कमजपदम् = (तम्) ~~ प्र प्यं कमज |
 कतृजपदम् = आश +प शाः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 “तदचप” ि क्य ं शाः
 कतृजपदम् = तत् [ तद् द. नपुं . प्र. एक. ] तदचप इचत ति चप अिि तदस्स्त िेदचप इत्यिे |
 अचप [ अव्ययम् ] ~~ अिध रणम् |

अन्वयः
(यस्य) अग्रे िचनाः (भिचत), (यस्य) पृष्ठे भ नुाः (भिचत), र त्रौ (याः) िुबुक+समचपजत+ज नुाः (भिचत), (याः)
कर+ति+चभक्षाः (भिचत), (याः) तरु+ति+ि साः (भिचत), तत् अचप आश +प शाः (तं ) न मुिचत ।

सारः
प्रभ ते पुरोभ गे अचनाः पृष्ठे अकजस्य ि त पाः, र त्रौ शैत्य त् ज नुियमध्ये चिबुकं समप्यज शयनं , करतिरूपं
चभक्ष प त्रम द य चभक्ष िनं , िृक्षच्छ य य ं ि साः । एत दृश्य म् अिथि य मचप नराः आश प शेन बिो जीिन य आयतते

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 करतिचभक्षस्तरुतिि साः = करतिचभक्षाः तरुतिि साः – चिसगजसस्न्धाः, सक राः
 तदचप = तत् अचप – जश्त्त्वसस्न्धाः ।
 मुित्य श प शाः = मुिचत आश प शाः – यण् सस्न्धाः ।
 सम साः
 िुबुकसमचपजतज नुाः = िुबुके समचपजते ज नुनी येन साः - तृतीय िज बहुव्रीचहाः ।
 करतिचभक्षाः
 करतिम् = करस्य तिम् – षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 करतिचभक्षाः = करतिे चभक्ष यस्य साः - व्यचधकरणबहुव्रीचहाः ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 34


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 तरुतिि साः
 तरुतिम् = तरोाः तिम् - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 तरुतिि साः = तरुतिे ि साः यस्य साः - व्यचधकरणबहुव्रीचहाः ।
 कृदन्ताः
 ि साः = िस् “िस चनि से ” + घञ् (भ िे )

This stanza is believed to have been written by Sri Subodha.

Agrē vahniḥ pr̥ṣṭhē bhā nuḥ


rā trau cubuka samarpita jā nuḥ ।
karatalabhikṣastarutalavā saḥ
tadapi na muñcatyā ś ā pā śaḥ ॥ 16 ॥

The beggar roams about with his bowl in his hand. He is scorched by the heat
of the sun all day long. He has no place to stretch his body and sits all
night long with his head leaning upon his folded arms. Yet he does not want
to part with his life or life’s desires.

17. कुरुते गङ्गासागरगमनम्

श्लोकः
कुरुते गङ्ग स गरगमनं
व्रतपररप िनमिि द नम् ।
ज्ञ नचिहीनस्सिजमतेन
मुस्क्तं न भजचत जन्मशतेन ॥१७॥

पाठभेदः
... भजचत न मुस्क्तं जन्मशतेन ॥

पदच्छे दः
कुरुते गङ्ग +स गर+गमनं व्रत+पररप िनम् अिि द नम् ज्ञ न+चिहीनाः सिज +मतेन भजचत न मुस्क्तं जन्म+शतेन ।

पदपररचयः
 “याः” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = कुरुते [ कृ “डु कृञ् करणे” उभ. (अत्र आत्म.) िि् . प्रपु . एक. ]
 ि क्य ं शाः
 कमजपदम् = गङ्ग +स गर+गमनम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 कमजपदम् = व्रत+पररप िनम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 कमजपदम् = द नम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 अव्ययम् = अिि [ अव्ययम् ] ~~ संयोजकपदम् |
 कतृजपदम् = (याः) ~~ शुिकत ज |
 “साः” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = भजचत [ भज् “भज सेि य म्” उभ. (अत्र पर.) िि् . प्रपु . एक. ]
 चिशेषणम् = न [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् | प्रचतषेधपदम् |

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 35


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 कमजपदम् = मुस्क्तम् [ इ. स्त्री. चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |


 ि क्य ं शाः
 चिशेषणम् = ज्ञ न+चिहीनाः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ कतृजचिशेषणम् |
 अव्ययम् = (िेत्) ~~ संयोजकपदम् |
 कतृजपदम् = (साः) ~~ शुिकत ज |
 करणि िकपदम् = जन्म+शतेन [ अ. नपुं . तृ . एक. ] ~~ क रणि िकपदम् |
 करणि िकपदम् = सिज +मतेन [ अ. नपुं . तृ . एक. ] ~~ क रणि िकपदम् |

अन्वयः
(याः) गङ्ग +स गर+गमनं , व्रत+पररप िनम् अिि द नं कुरुते , (साः) ज्ञ न+चिहीनाः (िेत्) सिज +मतेन जन्म+शतेन
(अचप) मुस्क्तं न भजचत ।

सारः
याः पुण्यनद्य ं गङ्ग य ं स्न नं कुरुत म्, अिि व्रत चन अनुचतष्ठतु अिि हस्ते िब्धं सिजमचप परस्मै दद तु
सिजश स्त्रप रङ्गतोऽचप आत्मज्ञ नचिहीनाः िेत् साः अनैकैाः जन्म चभरचप मुस्क्तं न िभते ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 ज्ञ नचिहीनस्सिजमतेन = ज्ञ नचिहीनाः सिजमतेन – चिसगजसस्न्धाः, सक राः ।
 गङ्ग स गरगमनं व्रतपररप िनमिि = गङ्ग स गरगमनम् + व्रतपररप िनम् - अनुस्व रसस्न्धाः ।
 मुस्क्तं जन्मशतेन = मुस्क्तम् + जन्मशतेन - अनुस्व रसस्न्धाः ।
 सम साः
 गङ्ग स गरगमनम् = गङ्ग ि स गरश्च गङ्ग स गरौ – िन्द्िसम साः । तयोाः गमनं गङ्ग स गरगमनम् –
षष्ठीतत्पुरुषाः । तत् (चितीय चिभस्क्ताः) ।
 व्रतपररप िनम् = व्रतस्य पररप िनम् – षष्ठीतत्पुरुषाः । तत् (चितीय चिभस्क्ताः) ।
 ज्ञ नचिहीनाः = ज्ञ ने न चिहीनाः – तृतीय तत्पुरुषाः ।
 कृदन्ताः
 गमनम् = गम् “गमॢ गतौ” + ल्युि्-प्रत्ययाः ।
 प िनम् = प ि “प ि रक्षणे ” + ल्युि्-प्रत्ययाः ।
 द नम् = द “डु द ञ् द ने ” + ल्युि्-प्रत्ययाः ।
 चिहीनाः = चि + ह “ओह क् त्य गे” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) ।

This stanza is attributed to Vaartikakaara.

Kurutē gaṅ gā sā garagamanaṁ


vrataparipā lana mathavā dā naṁ ।
jñā navihīnas'sarvamatē na
muktiṁ na bhajati janmaśatē na ॥ 17 ॥

No amount of pilgrimage or bath in holy rivers, nay the severe austerity nor
immense charity leads one to salvation if he does not realize the self.
Myriads of births will be of no avail unto him. (Viveka Choodaamani: Vadantu
shaastraani yajantu devaan, kurvantu karmaani bhajantu devataa, Aatmaikya
bodhena vinaapi muktir na sidhyati brahmashataantarepi.—”Let people quote
the Scriptures and sacrifice to the gods, let them perform rituals and

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 36


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

worship the deities, but there is no Liberation without the realization of


one’s identity with the Atman, no, not even in the lifetime of a hundred
Brahmas put together”).

18. सुरमंवदरतरुमूलवनिासः

श्लोकः
सुरमस्न्दरतरुमूिचनि साः
शय्य भूतिमचजनं ि साः
सिजपररग्रहभोगत्य गाः
कस्य सुखं न करोचत चिर गाः ॥ १८ ॥

पदच्छे दः
सुर+मस्न्दर+तरु+मूि+चनि साः शय्य भूतिम् अचजनं ि साः सिज +पररग्रह+भोग+त्य गाः कस्य सुखं न करोचत चिर गाः ।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 (याः) ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 कतृजपदम् = (याः) ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = सुरमस्न्दरतरुमूिचनि साः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 (यस्य) ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 कतृजपदम् = शय्य [ आ. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 सम्बस्न्ध-पदम् = (यस्य)
 चिशेषणम् = भूतिम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज-चिधेय-चिशेषणम् |
 (यस्य) ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 कतृजपदम् = ि साः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 सम्बस्न्ध-पदम् = (यस्य)
 चिशेषणम् = अचजनम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 (याः) ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 कतृजपदम् = (याः) ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = सिजपररग्रहभोगत्य गाः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 (तस्य) ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कमजपदम् = (सुखम्) ~~ प्र प्यं कमज |
 सम्बस्न्ध-पदम् = (तस्य)
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = करोचत [ कृ “डु कृञ् करणे ” उभ. (अत्र पर.) िि् . प्रपु . एक. ]
 चिशेषणम् = न [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् | प्रचतषेधपदम् |
 कमजपदम् = सुखम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 सम्बस्न्ध-पदम् = कस्य [ चकम् म. पुं . ष. एक. ] ~~ आक्षेप िे प्रश्नि िक-सम्बस्न्ध-पदम् |
 कतृजपदम् = चिर गाः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 37


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

(योगी र मसुरतकुम राः - Yogi Ramsuratkumar)

अन्वयः
(याः) सुर+मंचदर+तरु+मूि+चनि साः, (यस्य) शय्य भूतिं, (यस्य) ि साः अचजनं , (याः)
सिज +पररग्रह+भोग+त्य गाः, (तस्य सुखं भिचत) । चिर गाः कस्य सुखं न करोचत ?

सारः
दे ि िये िृक्षमूिे ि चनि साः । भू मौ एि शयनम् । अचजनिसनम् । सिजफिभोगत्य गाः इत्येत दृशाः चिर गाः सिेष ं
सुखं करोचत एि इत्यिजाः ।

व्याकरणम्
 सम साः
 सुरमस्न्दरतरुमूिचनि साः
 सुर ण ं मस्न्दरं सुरमस्न्दरम् – षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 तरोाः मूिं तरुमूिम् – षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 सुरमस्न्दरं ि तरुमूिं ि सुरमस्न्दरतरुमूिे – इतरे तरिन्द्िाः ।
 सुरमस्न्दरतरुमूिचनि साः = सुरमस्न्दरतरुमूियोाः चनि साः– षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 सिजपररग्रहभोगत्य गाः
 सिेष ं पररग्रह ण ं भोग न ं ि त्य गाः - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 चिर गाः
 चिगताः र गाः - गचत सम साः ।
 कृदन्ताः

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 38


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 त्य गाः = त्यज् “त्यज ह नौ” + घञ् -प्रत्ययाः (भ िे ) ।


 ि साः = िस् “िस चनि से ” + घञ्-प्रत्ययाः (भ िे ) गृहम् ।
 ि साः = िस् “िस आच्छ दने ” + घञ्-प्रत्ययाः (भ िे ) िस्त्रम् ।

This stanza is traditionally attributed to Shri Nityananda.

Suramandira tarumū lanivā saḥ


śayyā bhū tala majanaṁ vā saḥ ।
Sarva parigraha bhō gatyā gaḥ
kasya sukhaṁ na karō ti virā gaḥ ॥ 18 ॥

The one who resigns from the world, may he be living in temples or the shade
of a tree, may he be rolling in the dust of the naked earth and may he be in
the robes of dear skin, he enjoys the real bliss of renunciation.

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 39


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

19. योगरतो िा

श्लोकः
योगरतो ि भोगरतो ि
सङ्गरतो ि सङ्गिीहीनाः ।
यस्य ब्रह्मचण रमते चित्तं
नन्दचत नन्दचत नन्दत्येि ॥१९॥

पदच्छे दः
योग+रताः ि भोग+रताः ि सङ्ग+रताः ि सङ्ग+िीहीनाः यस्य ब्रह्मचण रमते चित्तं नन्दचत नन्दचत नन्दचत एि ।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = (भिेत्)
 कतृजपदम् = योगरताः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 कतृजपदम् = भोगरताः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 कतृजपदम् = सङ्गरताः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 कतृजपदम् = सङ्गिीहीनाः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 अव्ययम् = ि [ अव्ययम् ] ~~ संयोजकपदम् |
 चितीयि क्यम्
 “यस्य” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = रमते [ रम् “रमु क्रीड य म्” आत्म. िि् . प्रपु . एक. ]
 कतृजपदम् = चित्तम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 सम्बस्न्ध-पदम् = यस्य [ यद् द. पुं . ष. एक. ]
 अचधकरणम् = ब्रह्मचण [ न. नपुं . स. एक. ] ~~ चिषय चधकरणम् | िैषचयकम् |
 (साः) ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = नन्दचत [ नन्द् “िु नचद समृिौ” पर. िि् . प्रपु . एक. ]
 अव्ययम् = एि [ अव्ययम् ] ~~ अिध रणम् |
 कतृजपदम् = (साः) ~~ शुिकत ज |
 अव्ययम् = एि [ अव्ययम् ] ~~ अिध रणम् |

अन्वयः
योग+रताः ि भोग+रताः ि सङ्ग+रताः ि सङ्ग+िीहीनाः ि (भिेत्) । यस्य चित्तं ब्रह्मचण रमते , (साः) नन्दचत |
(साः) (एि) नन्दचत | (साः) नन्दचत एि ।

सारः
नराः योगरताः (चित्तिृचत्तचनरोधाः योगाः ) ि िौचककभोगेषु चनमनो ि जीचित सस्क्तरतो ि जीचित सस्क्तरचहतो ि
अस्तु । यस्य पुरुषस्य चित्तं सद परे ब्रह्मचण रमते स चनत्यं नन्दचत ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 40


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 योगरतो ि = योगरताः ि - चिसगजसस्न्धाः, उक र दे शाः, गुणाः ।
 भोगरतो ि = भोगरताः ि - चिसगजसस्न्धाः, उक र दे शाः, गुणाः ।
 सङ्गरतो ि = सङ्गरताः ि - चिसगजसस्न्धाः, उक र दे शाः, गुणाः ।
 नन्दत्येि = नन्दचत एि – यण् सस्न्धाः ।
 सम साः
 योगरताः = योगेन रताः - तृतीय तत्पुरुषाः । (Since saptami-tatpurusha samaasa
vidhaayakam sutram does not accommodate this, these are not taken to be
saptami).
 भोगरताः = भोगेन रताः - तृतीय तत्पुरुषाः ।
 सङ्गरताः = सङ्गेन रताः - तृतीय तत्पुरुषाः ।
 सङ्गिीहीनाः = सङ्गेन चिहीनाः - तृतीय तत्पुरुषाः ।
 कृदन्ताः
 रताः = रम् “रमु क्रीड य म्” + क्त-प्रत्ययाः (कतज रर - अकमजकाः) ।
 चिहीनाः = चि + ह “ओह क् त्य गे” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 41


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

This stanza is traditionally attributed to Shri Anandagiri.

Yō garatō vā bhō garatō vā


saṅ garatō vā saṅ gavīhīnaḥ ।
yasya brahmaṇ i ramatē cittaṁ
nandati nandati nandatyē va ॥ 19 ॥

If one centres his thoughts on God, by deep meditation or by good deeds,


either in company or alone, indeed he drinks the honey of Divine-hood.

20. भगिद्गीता वकविदधीता

श्लोकः
भगिद्गीत चकचिदधीत
गङ्ग जिििकचणक पीत ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 42


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

सकृदचप येन मुर ररसमि ज


चक्रयते तस्य यमेन न िि ज ॥२०॥

पदच्छे दः
भगित्+गीत चकचित् अधीत ाः गङ्ग +जि+िि+कचणक पीत ाः सकृत् अचप येन मुर रर+समि ज चक्रयते तस्य यमेन न
िि ज ।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 (येन) ि क्य ं शाः
 ि क्य ं शाः
 (कमजचण) कमजपदम् = भगित्+गीत [ आ. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 (कमजचण) चिशेषणम् = अधीत [ आ. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ कमज-चिधेय-चिशेषणम् |
चक्रय -गभज -पदम् |
 अव्ययम् = चकचित् [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् |
 (कमजचण) कतृज पदम् = (येन) ~~ शुिकत ज |
 (येन) ि क्य ं शाः
 (कमजचण) कमजपदम् = गङ्ग +जि+िि+कचणक [ आ. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 (कमजचण) चिशेषणम् = पीत [ आ. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ कमज-चिधेय-चिशेषणम् |
 (कमजचण) कतृज पदम् = (येन) ~~ शुिकत ज |
 (येन) ि क्य ं शाः
 (कमजचण) चक्रय पदम् = (चक्रयते )
 (कमजचण) कमजपदम् = मुर रर+समि ज [ आ. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ चनिजत्यं कमज |
 (कमजचण) कतृज पदम् = (येन) ~~ शुिकत ज |
 “तस्य” ि क्य ं शाः
 (कमजचण) चक्रय पदम् = चक्रयते [ कृ “डु कृञ् करणे ” उभ. (अत्र आत्म.) कमजचण िि् . प्रपु.
एक. ]
 चिशेषणम् = न [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् | प्रचतषेधपदम् |
 (कमजचण) कमजपदम् = िि ज [ आ. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ चनिजत्यं कमज |
 सम्बस्न्ध-पदम् = तस्य [ तद् द. पुं . ष. एक. ]
 (कमजचण) कतृज पदम् = यमेन [ अ. पुं . तृ . एक. ] ~~ शुिकत ज |

अन्वयः
(येन) भगित् +गीत चकचित् अधीत , (येन) गङ्ग +जि+िि+कचणक पीत , येन सकृत् अचप मुर रर+समि ज
(चक्रयते ), तस्य िि ज यमेन न चक्रयते ।

सारः
येन भगिद्गीत चकचित् अधीत , गन्द्ग जिििकचणक पीत , एकि रमचप चिष्णुपूज ि चक्रयते , तस्य यमाः िि ं न
करोचत । मृत्युदेिाः न तं मनस अचप चिन्तयचत । साः मरणम् अचतक्रम्य मुक्ताः भिचत इचत अिजाः ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 चकचिदधीत = चकचित् अधीत – जश्त्त्वसस्न्धाः ।
 सकृदचप = सकृत् अचप – जश्त्त्वसस्न्धाः ।
 सम साः

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 43


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 भगिद्गीत = भगिताः गीत – षष्ठीतत्पुरुषाः।


 गङ्ग जिििकचणक
 गङ्ग य ाः जिं गङ्ग जिम् - षष्ठीतत्पुरुषाः।
 गङ्ग जिस्य ििाः गङ्ग जििि - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 गङ्ग जिििस्य कचणक गङ्ग जिििकचणक - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 मुर ररसमि ज
 मुरस्य अरराः मुर रराः - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 मुर रे ाः समि ज मुर ररसमि ज - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 कृदन्ताः
 मरणम् = मॄ “मॄ चहं स य म्” + ल्युि्-प्रत्ययाः ।
 पीत = प “प प ने ” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) (स्त्री) ।
This stanza is traditionally attributed to Dridhabhakta.

Bhagavadgītā kiñcidadhītā
gaṅ gā jala lavakaṇ ikā pītā ।
sakr̥dapi yē na murā risamarcā
kriyatē tasya yamē na na carcā ॥ 20 ॥

He does not fight with (Yama) Death at his last hour, if one chants awhile
the celestial songs of the Lord, Bhagavat Geeta and drinks a drop of the
waters of Holy Ganga, praising the glory of the Lord. (Gangaa Jal = Bhakti)

21. पुनरवप जननं पुनरवप मरणम्

श्लोकः
पुनरचप जननं पुनरचप मरणं
पुनरचप जननीजठरे शयनम् ।
इह संस रे बहु दु स्त रे
कृपय ऽप रे प चह मुर रे ॥२१॥

पदच्छे दः
पुनाः अचप जननं पुनाः अचप मरणं पुनाः अचप जननीजठरे शयनम् इह संस रे बहु दु स्त रे कृपय अप रे प चह मुर रे

पदपररचयः
 सम्बोधनपदम् = मुर रे [ इ. पुं . संप्र. एक. ]
 प्रिमि क्यम्
 ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 चिशेषणम् = पुनंाः [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् |
 अव्ययम् = अचप [ अव्ययम् ] ~~ अिध रणम् |
 कतृजपदम् = जननम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चितीयि क्यम्
 ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (भिचत)

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 44


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 चिशेषणम् = पुनंाः [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् |


 अव्ययम् = अचप [ अव्ययम् ] ~~ अिध रणम् |
 कतृजपदम् = मरणम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 तृतीयि क्यम्
 ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 चिशेषणम् = पुनंाः [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् |
 अव्ययम् = अचप [ अव्ययम् ] ~~ अिध रणम् |
 कतृजपदम् = शयनम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 अचधकरणम् = जननी+जठरे [ अ. पुं . स. एक. ] ~~ दे श चधकरणम् | औपश्लेचषकम् |
 ितुिजि क्यम्
 चक्रय पदम् = प चह [ प “प रक्षणे ” पर. िोि् . मपु . एक. ]
 करणि िकपदम् = कृपय [ आ. स्त्री. तृ . एक. ] ~~ क रणि िकपदम् |
 कमजपदम् = (म म्) ~~ प्र प्यं कमज |
 अचधकरणम् = संस रे [ अ. पुं. स. एक. ] ~~ दे श चधकरणम् | औपश्लेचषकम् |
 चिशेषणम् = इह [ अव्ययम् ] ~~ अचधकरण-चिशेषणम् |
 चिशेषणम् = अप रे [ अ. पुं. स. एक. ] ~~ अचधकरण-चिशेषणम् |
 चिशेषणम् = दु स्त रे [ अ. पुं . स. एक. ] ~~ अचधकरण-चिशेषणम् |
 चिशेषणम् = बहु [ अव्ययम् ] ~~ अचधकरण-चिशेषण-चिशेषणम् |
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |

अन्वयः
(हे ) मुर रे ! पुनाः अचप जननम् । पुनाः अचप मरणम् । पुनाः अचप जननीजठरे शयनम् । बहु दु स्त रे , अप रे ,
इह संस रे (त्वं) कृपय (म ं ) प चह ।

सारः
जननमरण त्मकसंस रिक्रे अज्ञ नी पुनाः पुनर ितजते । दु ाःस्त रे तररतुम् अशक्ये अस्स्मन् संस रे कृपय त्वं म म्
अनिजसंकर त् प चह ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 पुनरचप = पुनाः अचप - चिसगजसस्न्धाः रे फ दे शाः ।
 कृपय ऽप रे = कृपय अप रे - पूिजरुपसस्न्धाः ।
 कृदन्ताः
 जननम् = जन् “जन जनने ” + ल्युि्-प्रत्ययाः ।
 मरणम् = मॄ “मॄ चहं स य म्” + ल्युि्-प्रत्ययाः ।
 शयनम् = शी “शीङ् स्वप्ने ” + ल्युि्-प्रत्ययाः ।
 तस्ित न्ताः
 दु स्त रे = दु ाःखेन तररतुं शक्याः दु स्त राः । तस्स्मन् ।
 मुर रे = मुरस्य अरराः मुर रराः । तस्य संबुस्िाः अि ज त् सम्बोधनम् ।

This stanza is attributed to Shri Nityanaatha.

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 45


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

Punarapi jananaṁ punarapi maraṇ aṁ


punarapi jananījaṭharē śayanam ।
Iha sansā rē bahu dustā rē
kr̥pay̥̥pā rē pā hi murā rē ॥ 21 ॥

O Lord Murari! Save me from the clutches of the unending cycle of birth,
death and struggle in the womb of a mother. Bless me with thy grace. The
worldly existence is very hard for me.

22. रथ्याचपजिविरवचतकन्थः

श्लोकः
रथ्य िपजिचिरचितकन्थाः
पुण्य पुण्यचििचजजतपन्थाः ।
योगी योगचनयोचजतचित्तो
रमते ब िोन्मत्तिदे ि ॥२२॥
प ठभेदाः
रथ्य कपजिचिरचितकन्थाः
पुण्य पुण्यचििचजजतपान्थः । ....

पदच्छे दः

रथ्य +िपजि+चिरचित+कन्थाः पुण्य+अपुण्य+चििचजजत+पन्थाः योगी योग+चनयोचजत+चित्ताः रमते ब ि+उन्मत्त+ित् एि ।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = रमते [ रम् “रमु क्रीड य म्” आत्म. िि् . प्रपु . एक. ]
 चिशेषणम् = ब ि+उन्मत्त+ित् [ अव्ययम् ] ~~ उपम -ि िक-पदम् | चक्रय चिशेषणम् |
 कतृजपदम् = योगी [ न. पुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = रथ्य +िपजि+चिरचित+कन्थाः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृजचिशेषणम् |
 चिशेषणम् = पुण्य+अपु ण्य+चििचजजत+पन्थाः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृजचिशेषणम् |
 चिशेषणम् = योग+चनयोचजत+चित्ताः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृजचिशे षणम् |
 अव्ययम् = एि [ अव्ययम् ] ~~ अिध रणम् |

अन्वयः
रथ्य +िपजि+चिरचित+कन्थाः पुण्य+अपुण्य+चििचजजत+पन्थाः योग+चनयोचजत+चित्ताः योगी एि ब ि+उन्मत्त+ित् रमते ।

सारः
योगेन आत्मस क्ष त्क रसम्पिाः रथ्य य ं समुपिब्धेन जीणजपिे न कन्थ ं धरन् उन्मत्ताः प न्थाः इि पुण्य पुण्य भ्य ं चििचजज तश्च
सन् ब िाः इि उन्मत्ताः इि ि िोकेऽस्स्मन् क्रीडचत ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 ब िोन्मत्तित् = ब ि+उन्मत्तित् – गुणाः ।
 ब िोन्मत्तिदे ि = ब िोन्मत्तित् एि - जश्त्त्वसस्न्धाः ।
 योगचनयोचजतचित्तो रमते = योग+चनयोचजत+चित्ताः रमते - चिसगजसस्न्धाः उक र दे शाः, गुणाः ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 46


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 सम साः
 रथ्य िपजिचिरचितकन्थाः
 रथ्य िपजिाः = रथ्य य ाः िपजिाः - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 रथ्य िपजिचिरचितकन्थाः = रथ्य िपजिेन चिरचित कन्थ यस्य साः - बहुव्रीचहाः ।
 पुण्य पुण्यचििचजजतपन्थाः
 पुण्य पुण्ये = पुण्यं ि अपुण्यं ि – िन्द्िाः ।
 पुण्य पुण्यचििचजजताः = पुण्य पुण्य भ्य ं चििचजजताः - तृतीय तत्पुरुषाः ।
 पुण्य पुण्यचििचजजतपन्थाः = पुण्य पुण्यचििचजजताः पन्थ ाः यस्य साः - बहुव्रीचहाः ।
 योगचनयोचजतचित्ताः
 योगचनयोचजताः = योगेन चनयोचजताः – तृतीय तत्पुरुषाः ।
 योगचनयोचजतचित्ताः = योगचनयोचजतं चित्तं येन साः - तृतीय िज बहुव्रीचहाः ।
 कृदन्ताः
 चििचजजताः = चि + िृज् “िृजी िजजने” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) । चिशेषेण िचजजताः इत्यिजाः |
 चनयोचजताः = चन + युज् “युचजर् योगे” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) ।
 तस्ित न्ताः
 योगी = योग + इचन (मतुबिे ) । योगाः यस्य यस्स्मन ि अस्स्त इचत ।
 ब िोन्मत्तित्
 ब िश्च उन्मत्तश्च ब िोन्मत्तौ – िन्द्िसम साः ।
 ब िोन्मत्तित् = ब िोन्मत्त भ्य ं तुल्यम् - ‘तेन तुल्यं चक्रय िेिचताः’ इचत िचत-प्रत्ययाः ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 47


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

This stanza is traditionally attributed to Shri Nityanaatha.

Rathyā carpaṭaviracitakanthaḥ
puṇ yā puṇ yavivarjitapanthaḥ ।
Yō gī yō ganiyō jitacittō
ramatē bā lō nmattavadē va ॥ 22 ॥

The meditative, centred always in meditation, roams carefree like a child,


wearing the rags picked up from streets, without the duality of even sin or
virtue in his mind.

23. कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः

श्लोकः
कस्त्वं कोऽहं कुत आय ताः
क मे जननी को मे त ताः ।
इचत पररभ िय सिजमस रम्
चिश्वं त्यक्त्व स्वप्नचिि रम् ॥२३॥

पदच्छे दः
काः त्वं काः अहं कुत आय ताः क मे जननी काः मे त ताः इचत पररभ िय सिजम् अस रम् चिश्वं त्यक्त्व
स्वप्न+चिि रम् ।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 कतृजपदम् = त्वम् [ युष्मद् द. चत्र. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = काः [ चकम् म. पुं . प्र. एक. ] ~~ प्रश्नि िक-कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 चितीयि क्यम्
 कतृजपदम् = अहम् [ अस्मद् द. चत्र. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = काः [ चकम् म. पुं . प्र. एक. ] ~~ प्रश्नि िक-कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 48


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 तृतीयि क्यम्
 कतृजपदम् = आय ताः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 अप द नपदम् = कुताः (कस्म त् ) [ अव्ययम् ] ~~ प्रश्नि िक-अप द नपदम् |
 ितुिजि क्यम्
 कतृजपदम् = जननी [ ई. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 सम्बस्न्ध-पदम् = मे (मम) [ अस्मद् द. चत्र. ष. एक. ]
 चिशेषणम् = क [ चकम् म. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ प्रश्नि िक-कतृज-चिधेय-चिशेषणम् |
 पिमि क्यम्
 कतृजपदम् = त ताः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 सम्बस्न्ध-पदम् = मे (मम) [ अस्मद् द. चत्र. ष. एक. ]
 चिशेषणम् = काः [ चकम् म. पुं . प्र. एक. ] ~~ प्रश्नि िक-कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 षष्ठि क्यम्
 चक्रय पदम् = पररभ िय [ परर + भू “भू अिकल्कने ” + चणि् -प्रत्ययाः (िुर चद गणाः) पर. िोि् . मपु.
एक. ]
 ि क्य ं शाः
 कमजपदम् = (चिश्वम्)
 चिशेषणम् = सिजम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ कमजचिशेषणम् |
 चिशेषणम् = अस रम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ कमज-चिधेय-चिशेषणम् |
 अव्ययम् = इचत [ अव्ययम् ] ~~ कमजि क्य ं श-द्योतकपदम् |
 पूिजक िीन-ि क्य ं शाः
 अव्ययम् = त्यक्त्व [ अव्ययम् ] ~~ पूिजक िीन-चक्रय |
 कमजपदम् = चिश्वम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 चिशेषणम् = स्वप्न+चिि रम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ कमजचिशेषणम् |
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |

अन्वयः
काः त्वम् ? काः अहम् ? कुताः आय ताः ? क मे जननी ? काः मे त ताः ? स्वप्न+चिि रं चिश् िं त्यक्त्व सिं
(चिश्वम्) अस रम् इचत पररभ िय ।

सारः
त्वं काः ? अहं काः ? अहं कस्म त् दे श त् आय ताः ? मम जननी क ? त ताः काः ? स्वप्नम य सदृशचमदं जगत्
त्यक्त्व सिजचमदं म त चपत्र चदव्यिह रज तं तुच्छमत एि न क म्यम् इचत ि रं ि रं चिन्तय ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 कस्त्वम् = काः त्वम् – चिसगजसस्न्धाः, सक राः ।
 कोऽहम् = को अहम् – पूिजरुपसस्न्धाः, काः + अहम् – चिसगजसस्न्धाः, उक र दे शाः, गुणाः ।
 को मे = काः मे – चिसगजसस्न्धाः, उक र दे शाः, गुणाः ।
 सम साः
 स्वप्न चिि रम् = स्वप्नस्य चिि राः - षष्ठीतत्पुरुषाः । तम् ।
 कृदन्ताः
 त्यक्त्व = त्यज् “त्यज ह नौ” + क्त्व -प्रत्ययाः ।
 आय ताः = आ “आङ्” + य “य प्र पणे ” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) |
This stanza is traditionally attributed to Shri Surendra.

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 49


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

Kastvaṁ k̥̥haṁ kuta ā yā taḥ


kā mē jananī kō mē tā taḥ ।
Iti paribhā vaya sarvamasā ram
viśvaṁ tyaktvā svapnavicā ram ॥ 23 ॥

Think deep who thou art and who am I. Where-from do we come? Who is thy
mother and who is thy father? Thou will understand that every one is
evanescent. Hence give up these dreamy ideas about the world renouncing all.

24. त्ववय मवय चान्यत्र

श्लोकः
त्वचय मचय ि न्यत्रैको चिष्णु -
व्यजिं कुप्यचस मय्यसचहष्णुाः ।
भि समचित्ताः सिजत्र त्वं
ि ञ्छस्यचिर द्यचद चिष्णुत्वम् ॥२४॥

पाठभेदः
त्वचय मचय सिजत्रैको चिष्णु ाः
व्यिं कुप्यचस सिजसचहष्णुाः ।
सिजस्स्मिचप पश्य त्म नं
सिजत्रोत्सृज भेद ज्ञ नम् ॥२४॥

पदच्छे दः
त्वचय मचय ि अन्यत्र एकाः चिष्णुाः व्यिं कुप्यचस मचय असचहष्णुाः भि समचित्ताः सिजत्र त्वं ि ञ्छचस अचिर त् यचद
चिष्णुत्वम्।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 कतृजपदम् = चिष्णुाः [ उ. पुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = एकाः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 ि क्य ं शाः
 अचधकरणम् = त्वचय [ युष्मद् द. चत्र. स. एक. ] ~~ दे श चधकरणम् | अचभव्य पकम् |
 अचधकरणम् = मचय [ अस्मद् द. चत्र. स. एक. ] ~~ दे श चधकरणम् | अचभव्य पकम् |
 अव्ययम् = अन्यत्र [ अव्ययम् ] ~~ थि नि िकपदम् | अचभव्य पकम् |
 अव्ययम् = ि [ अव्ययम् ] ~~ संयोजकपदम् |
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = कुप्यचस [ कुप् “कुप क्रोधे” पर. िि् . मपु . एक. ]
 अव्ययम् = व्यिजम् [ अव्ययम् ] ~~ त दथ्यज पदम् | चक्रय चिशेषणम् |
 कतृजपदम् = त्वम् [ युष्मद् द. चत्र. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 ि क्य ं शाः
 चिशेषणम् = (सन् ) ~~ कतृजचिशेषणम् | चक्रय गभजपदम् |
 चिशेषणम् = असचहष्णुाः [ उ. पुं . प्र. एक. ] ~~ चक्रय चिशेषण-सुिकपदम् | चक्रय गभजपदम् |
 अचधकरणम् = मचय [ अस्मद् द. चत्र. स. एक. ] ~~ चिषय चधकरणम् | िैषचयकम् |

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 50


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 तृतीयि क्यम्
 “यचद” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = ि ञ्छचस [ ि ञ्छ् “ि चछ इच्छ य म्” पर. िि् . मपु . एक. ]
 अव्ययम् = अचिर त् [ अव्ययम् ] ~~ क िि िकपदम् |
 कमजपदम् = चिष्णुत्वम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 कतृजपदम् = त्वम् [ युष्मद् द. चत्र. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 अव्ययम् = यचद [ अव्ययम् ] ~~ संयोजकपदम् |
 (तचहज ) ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = भि [ भू “भू सत्त य म्” पर. िोि् . मपु . एक. ]
 कतृजपदम् = त्वम् [ युष्मद् द. चत्र. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = समचित्ताः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 अव्ययम् = सिजत्र [ अव्ययम् ] ~~ चिषयि िकपदम् |
 अव्ययम् = (तचहज ) ~~ संयोजकपदम् |

अन्वयः
त्वचय मचय अन्यत्र ि चिष्णुाः एकाः । मचय असचहष्णुाः (सन् ) त्वं व्यिं कुप्यचस । यचद त्वं चिष्णुत्वम् अचिर त्
ि ञ्छचस (तचहज ) सिजत्र समचित्ताः भि ।

सारः
चिष्णुाः व्य पनशीिाः सिजव्य चप चिष्णुाः परम त्मैि सिजशरीरे षु ति प्रपिे सिजत्र ि ितजते । अतोत्वं अहं ि एक एि ।
यचद परोऽस्स्त तचहज कोपाः युज्यते । पर भ ि त् कोप चदकं न युज्यते इत्यिजाः । त्वं अन मयं पदम् चिष्णुत्वं मोक्षं
ि ञ्छचस िेत् सिजत्र समचित्तो भि ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 ि न्यत्र = ि अन्यत्र - सिणज दीघजसस्न्धाः ।
 अन्यत्रैकाः = अन्यत्र एकाः - िृस्िसस्न्धाः ।
 एको चिष्णुाः = एकाः चिष्णुाः - चिसगजसस्न्धाः उक र दे शाः, गुणाः ।
 चिष्णुव्यजिजम् = चिष्णुाः व्यिजम् - चिसगज सस्न्धाः, रे फ दे शाः ।
 मय्यसचहष्णुाः = मचय असचहष्णुाः – यण् सस्न्धाः ।
 ि ञ्छस्यचिर त् = ि ञ्छचस अचिर त् – यण् सस्न्धाः ।
 अचिर द्यचद = अचिर त् यचद – जश्त्त्वसस्न्धाः ।
 सम साः
 असचहष्णुाः = न सचहष्णुाः – नञ् तत्पुरुषाः ।
 तस्ित न्ताः
 सचहष्णुाः = सोढुं शीिम् अस्य अस्स्त इचत । (मतु बिे )
 चनिजिनम् (Etymology, i.e., derivation of the word)
 चिष्णुाः = सिं िेिेचष्ट इचत चिष्णुाः |

This stanza is traditionally attributed to Shri Medhaatithira.

Tvayi mayi cā n'yatraikō viṣ ṇ u-


rvyarthaṁ kupyasi mayyasahiṣṇ uḥ ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 51


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

Bhava samacittaḥ sarvatra tvaṁ


vā ñchasyacirā dyadi viṣ ṇ utvam ॥ 24 ॥

In thee, in me and in all dwells the Lord. Why do thou impatiently hate me
in others? See me in all and leave off the ideas of I and you.

25. शत्रौ वमत्रे पुत्रे बन्धौ

श्लोकः
शत्रौ चमत्रे पुत्रे बन्धौ
म कुरु यत्नं चिग्रहसन्धौ
सिजस्स्मिचप पश्य त्म नं
सिजत्रोत्सृज भेद ज्ञ नम् ॥२५॥

पदच्छे दः
शत्रौ चमत्रे पुत्रे बन्धौ म कुरु यत्नं चिग्रह+सन्धौ सिजस्स्मन् अचप पश्य आत्म नं
सिजत्र उत्सृज भेद अज्ञ नम् ।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = कुरु [ कृ “डु कृञ् करणे ” उभ. (अत्र पर.) िोि् . मपु . एक. ]
 चिशेषणम् = म [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् | प्रचतषेधपदम् |
 कमजपदम् = यत्नम् [ अ. पुं. चि. एक. ] ~~ चनिजत्यं कमज |
 अचधकरणम् = चिग्रह+सन्धौ [ इ. पुं . स. एक. ] ~~ चिषय चधकरणम् | िैषचयकम् |
 चिशेषणम् = शत्रौ [ उ. पुं . स. एक. ] ~~ अचधकरण-चिशेषणम् |
 चिशेषणम् = चमत्रे [ अ. पुं. स. एक. ] ~~ अचधकरण-चिशेषणम् |
 चिशेषणम् = पुत्रे [ अ. पुं. स. एक. ] ~~ अचधकरण-चिशेषणम् |
 चिशेषणम् = बन्धौ [ उ. पुं. स. एक. ] ~~ अचधकरण-चिशेषणम् |
 अव्ययम् = (ि ) ~~ संयोजकपदम् |
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = पश्य [ दृश् “दृचशर् प्रेक्षणे ” पर. िोि् . मपु. एक. ]
 कमजपदम् = आत्म नम् [ न. पुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |
 अचधकरणम् = सिजस्स्मन् [ सिज अ. पुं. स. एक. ] ~~ दे श चधकरणम् | अचभव्य पकम् |
 अव्ययम् = अचप [ अव्ययम् ] ~~ समुच्चयपदम् |
 तृतीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = उत्सृज [ उत् + सृज् “सृज चिसगे ” पर. िोि् . मपु . एक. ]
 कमजपदम् = भे द+अज्ञ नम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |
 अव्ययम् = सिजत्र [ अव्ययम् ] ~~ चिषयि िकपदम् |
अन्वयः
शत्रौ चमत्रे पुत्रे बन्धौ चिग्रह+सन्धौ यत्नं म कुरु । सिजस्स्मन् अचप आत्म नं पश्य । सिजत्र भेद ज्ञ नम् उत्सृज ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 52


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

सारः
पूिोक्त िज म् एि अनुिदचत । शत्रौ चिरोधो न, चमत्रे स्नेहोऽचप न । एिं पुत्र बन्धौ, चिग्रहसन्धौ ि यत्नं म कुरु ।
भेदरूपमज्ञ नं पररत्यज्य चनमजमो चनरहङ्क राः ि भि ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 सिजस्स्मिचप = सिजस्स्मन् अचप – ङमुड गमसस्न्धाः ।
 सिजत्रोत्सृज = सिजत्र उत्सृज - गुणसस्न्धाः ।
 भेद ज्ञ नम् = भेद अज्ञ नम् – सिणजदीघजसस्न्धाः ।
 सम साः
 भेद ज्ञ नम् – भेदचनचमत्तं अज्ञ नम् - श कप चिजि चदसम साः (मध्यमपदिोपाः) ।
 अज्ञ नम् = न ज्ञ नम् – नञ् तत्पुरुषाः ।
 चिग्रहसस्न्धाः = चिग्रहश्च सस्न्धश्च अनयोाः सम ह राः - सम ह रिन्द्िाः ।
Note: In samaahara dvandva samaasa, we would find the samastapadam in
neuter genter singular form. That is applicable only for akaaraanta
words. अत्र चिग्रहसस्न्धम् इचत न स्स्त यताः अम दे श अक र न्तपद न ं एि भिचत ।
 कृदन्ताः
 ज्ञ नम् = ज्ञ “ज्ञ अिबोधने ” + ल्युि्-प्रत्ययाः ।

This stanza is traditionally attributed to Shri Medhaatithira.

Ś atrau mitrē putrē bandhau


mā kuru yatnaṁ vigrahasandhau ।
sarvasminnapi paśyā tmā naṁ
sarvatrō tsr̥ja bhē dā jñā nam ॥ 25 ॥

Be impartial to thy friend, foe or son. Do not make distinction of them.


With equal mind in all, thou attain the state of bliss very soon.

26. कामं क्रोधं लोभं मोहम्

श्लोकः
क मं क्रोधं िोभं मोहं
त्यक्त्व ऽत्म नं पश्यचत सोऽहम् ।
आत्मज्ञ नचिहीन मूढ -
स्ते पच्यन्ते नरकचनगूढ ाः ॥२६॥

पाठभेदः
... त्यक्त्व ऽत्म नं भािय कोऽहम् । ...

पदच्छे दः
क मं क्रोधं िोभं मोहं त्यक्त्व आत्म नं पश्यचत संाः अहम् आत्म+ज्ञ न+चिहीन ंाः मूढ ाः ते पच्यन्ते नरक+चनगूढ ाः

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = पश्यचत [ दृश् “दृचशर् प्रेक्षणे ” पर. िि् . प्रपु . एक. ]

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 53


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 कमजपदम् = आत्म नम् [ न. पुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |


 कमजचिशेषण-ि क्यम्
 चक्रय पदम् = (अस्स्म)
 कतृजपदम् = अहम् [ अस्मद् द. चत्र. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = संाः [ तद् द. पुं. प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 अव्ययम् = (इचत) ~~ कमजि क्य-द्योतकपदम् |
 कतृजपदम् = (आत्मज्ञंाः) ~~ शुिकत ज |
 पूिजक िीन-ि क्य ं शाः
 पूिजक िीन-चक्रय = त्यक्त्व [ अव्ययम् ]
 कमजपदम् = क मम् [ अ. पुं. चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 कमजपदम् = क्रोधम् [ अ. पुं. चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 कमजपदम् = िोभम् [ अ. पुं. चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 कमजपदम् = मोहम् [ अ. पुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = (भिस्न्त)
 कतृजपदम् = आत्मज्ञ न+चिहीन ंाः [ अ. पुं . प्र. बहु. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = मूढ ाः [ अ. पुं. प्र. बहु. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 तृतीयि क्यम्
 (कमजचण) चक्रय पदम् = पच्यन्ते [ पि् “डु पिष् प के” उभ. (अत्र आत्म.) कमजचण िि् . प्रपु. बहु. ]
 (कमजचण) कमज पदम् = नरक+चनगूढ ाः [ अ. पुं . प्र. बहु. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 (कमजचण) चिशेषणम् = ते [ तद् द. पुं . प्र. बहु. ] ~~ कमजचिशेषणम् |
 (कमजचण) कतृज पदम् = (यम चदचभाः) ~~ शुिकत ज |
अन्वयः
(आत्मज्ञंाः) क मं क्रोधं िोभं मोहं त्यक्त्व , “संाः अहम्” (इचत) आत्म नं पश्यचत । आत्मज्ञ न+चिहीन ंाः मूढ ाः
। ते नरक+चनगूढ ाः (यम चदचभाः) पच्यन्ते ।

सारः
क म-क्रोध चदषि् कं पररत्यज्य आत्मस्वरूपचिि रं कुरु । आत्मज्ञ नचिहीन ाः आत्मय ि थ्य ज नचभज्ञ ाः मूढ ाः नरके चनगूढ ाः
(नरकं प्रचिष्ट ाः) । बहुचिधैाः न रकैस्त पैाः सन्तप्त ाः पक्वत म पद्यन्ते । क म चदषि् कपररत्य गेनैि मनाः श स्न्ताः, ज्ञ न दे ि
कैिल्यचमचत अस्स्मन् श्लोके प्रचतप दयचत ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 त्यक्त्व ऽत्म नम् = त्यक्त्व आत्म नम् - पूिजरुपसस्न्धाः ।
 सोऽहम् = सो अहम् - पूिजरुपसस्न्धाः, साः + अहम् – चिसगजसस्न्धाः, उक र दे शाः, गुणाः ।
 आत्मज्ञ नचिहीन मूढ ाः = आत्मज्ञ नचिहीन ाः मूढ ाः - चिसगजस्य िोपाः ।
 मूढ स्ते = मूढ ाः ते - चिसगजस्य सक र दे शाः ।
 सम साः
 आत्मज्ञ नचिहीन ाः
 आत्मज्ञ नम् = आत्मनाः ज्ञ नम् - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 आत्मज्ञ नचिहीनाः = आत्मज्ञ नेन चिहीनाः - तृतीय तत्पुरुषाः । ते ।
 नरकचनगूढ ाः = नरकेन चनगूढ ाः - तृतीय तत्पुरुषाः । saptami tatpurusha not applicable as there is no saptami
tatpurusha vidhaayakam sutram for this.
 कृदन्ताः

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 54


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 त्यक्त्व = त्यज् “त्यज ह नौ” + क्त्व -प्रत्ययाः ।


 चनगूढाः = चन + गुह् "गुहू संिरणे " + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) ।
 चिहीनाः = चि + ह “ओह क् त्य गे” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) ।

This stanza is attributed to Bhaarativamsha.

Kā maṁ krō dhaṁ lō bhaṁ mō haṁ


tyaktv̥̥tmā naṁ paśyati s̥̥ham ।
ā tmajñā navihīnā mū ḍ hā -
stē pacyantē narakanigū ḍ hā ḥ ॥ 26 ॥

When thou get thyself clear of lust, anger, greed and ignorance, thou
understand thy real self. Without self-realization, the ignorant marches
towards hell, i.e., he whirls round in the cycle of birth and death.

27. गेयं गीतानामसहस्रम्

श्लोकः
गेयं गीत न मसहस्रं
ध्येयं श्रीपचतरूपमजस्रम् ।
नेयं सज्जनसङ्गे चित्तं
दे यं दीनजन य ि चित्तम् ॥२७॥

पदच्छे दः
गेयं गीत +न म+सहस्रं ध्ये यं श्रीपचत+रूपम् अजस्रम् नेयं सत् +जन+सङ्गे चित्तं दे यं दीन+जन य ि चित्तम् ।
पदपररचयःः
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 ि क्य ं शाः
 (कमजचण) कमज पदम् = गीत +न म+सहस्रम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 (कमजचण) चिशेषणम् = गेयम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ कमज-चिधेय-चिशेषणम् |
 ि क्य ं शाः
 (कमजचण) कमज पदम् = श्रीपचत+रूपम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 (कमजचण) चिशेषणम् = ध्येयम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ कमज-चिधेय-चिशेषणम् |
चक्रय गभजपदम् |
 अव्ययम् = अजस्रम् [ अव्ययम् ] ~~ क िि िकपदम् | चक्रय चिशेषणम् |
 ि क्य ं शाः
 (कमजचण) कमज पदम् = चित्तम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 (कमजचण) चिशेषणम् = नेयम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ कमज-चिधेय-चिशेषणम् |
चक्रय गभजपदम् |
 अचधकरणम् = सत्+जन+सङ्गे [ अ. पुं . स. एक. ] ~~ चिषय चधकरणम् | िैषचयकम् |
 ि क्य ं शाः
 (कमजचण) कमज पदम् = चित्तम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 55


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 (कमजचण) चिशेषणम् = दे यम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ कमज-चिधेय-चिशेषणम् |


चक्रय गभजपदम् |
 सम्प्रद नपदम् = दीन+जन य [ अ. पुं . ि. एक. ] ~~ प्रेरचयतृज -सम्प्रद नपदम् |
 अव्ययम् = ि [ अव्ययम् ] ~~ संयोजकपदम् |
 (कमजचण) कतृज पदम् = (त्वय ) ~~ शुिकत ज |
अन्वयः
(त्वय ) गीत न मसहस्रं गेयं, श्रीपचतरूपम् अजस्रं ध्येयं, सज्जनसङ्गे चित्तं नेयं, दीनजन य चित्तं दे यं ि (अस्स्त) ।

सारः
त्वं चनरन्तरं भगिचद्गत ध्ययनं कुरु ति चिष्णुसहस्रन मस्तोत्रं ि सद पठ । चिष्णोाः रूपं मनस ध्य य । सज्जनसङ्गे
चित्तं नय । दीनजन य धन चदकं ि दे चह इचत ।

व्याकरणम्
 सम साः
 गीत न मसहस्रम्
 न मसहस्रम् = न म् ं सहस्रम् – षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 गीत न मसहस्रम् = गीत ि न मसहस्रं ि अनयोाः सम ह राः - सम ह रिन्द्िाः ।
Note: In samaahara dvandva samaasa, the samastapadam is in neuter
genter singular form for akaaraanta word.
 श्रीपचतरूपम्
 श्रीपचताः = चश्रयाः पचताः - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 श्रीपचतरूपम् = श्रीपतेाः रूपम् - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 सज्जनसङ्गे
 सज्जनाः = सन्ताः जन ाः - चिशेषण-पूिजपद-कमजध रयाः ।
 सज्जनसङ्गे = सज्जन न ं सङ्गाः - षष्ठीतत्पुरुषाः । तस्स्मन् ।
 दीनजन य = दीनाः ि असौ जनाः ि दीनजनाः - चिशेषणपूिजपदकमजध रयाः । तस्मै ।
 कृदन्ताः
 गेयम् – ग “ग स्तुतौ” + यत् -प्रत्ययाः - ग तुं योग्यम् ।
 ध्येयम् – ध्यै “ध्यै चिन्त य म्” + यत्-प्रत्ययाः - ध्य तुं योग्यम् ।
 नेयम् – नी “णीञ् प्र पणे ” + यत् -प्रत्ययाः - नेतुं योग्यम् ।
 दे यम् – द “डु द ञ् द ने ” + यत् -प्रत्ययाः - द तुं योग्यम् ।

This stanza is attributed to Shri Sumatir.

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 56


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

Gē yaṁ gītā nā masahasraṁ


dhyē yaṁ śrīpatirū pamajasram ।
nē yaṁ sajjanasaṅ gē cittaṁ
dē yaṁ dīnajanā ya ca vittam ॥ 27 ॥

Repeat the thousand names of the Lord. Contemplate on the divine personality
of the Lord. Concentrate thy thoughts on the association of the Good. Give
off thy possessions to the needy.

28. सुखतः वक्रयते रामाभोगः

श्लोकः
सुखताः चक्रयते र म भोगाः
पश्च िन्त शरीरे रोगाः ।
यद्यचप िोके मरणं शरणं
तदचप न मुिचत प प िरणम् ॥ २८ ॥

पदच्छे दः
सुखताः चक्रयते र म भोगाः पश्च त् हन्त शरीरे रोगाः यद्यचप िोके मरणं शरणं
तत् अचप न मुिचत प प+आिरणम् ।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 (कमजचण) चक्रय पदम् = चक्रयते [ कृ “डु कृञ् करणे ” उभ. (अत्र आत्म.) कमजचण िि् . प्रपु. एक. ]
 चिशेषणम् = सुखताः [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् |
 (कमजचण) कमजपदम् = र म भोगाः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ चनिजत्यं कमज |
 (कमजचण) कतृज पदम् = (मूढेन) ~~ शुिकत ज |
 अव्ययम् = हन्त [ अव्ययम् ] ~~ चिष द-भ ि-सूिकपदम् |
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 सम्बस्न्ध-पदम् = पश्च त् [ अव्ययम् ] ~~ क िि िकपदम् |
 कतृजपदम् = रोगाः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 अचधकरणम् = शरीरे [ अ. पुं. स. एक. ] ~~ दे श चधकरणम् | औपश्लेचषकम् |
 तृतीयि क्यम्
 “यद्यचप” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = मरणम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = शरणम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 57


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 अचधकरणम् = िोके [ अ. पुं. स. एक. ] ~~ दे श चधकरणम् | अचभव्य पकम् |


 अव्ययम् = यचद+अचप [ अव्ययम् ] ~~ संयोजकपदम् |
 “तदचप” ि क्य ं शाः
 चक्रय पदम् = मुिचत [ मुि् “मुिॢ मोक्षणे ” उभ. (अत्र पर.) िि् . प्रपु . एक. ]
 चिशेषणम् = न [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् | प्रचतषेधपदम् |
 कमजपदम् = प प+आिरणम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 कतृजपदम् = (मूढाः) ~~ शुिकत ज |
 “तदचप” ि क्य ं शाः
 कतृजपदम् = तत् [ तद् द. नपुं . प्र. एक. ] तदचप इचत ति चप अिि तदस्स्त िेदचप इत्यिे |
 अचप [ अव्ययम् ] ~~ अिध रणम् |
अन्वयः
हन्त ! सुखताः र म भोगाः चक्रयते । पश्च त् शरीरे रोगाः (भिचत) । यद्यचप िोके मरणं शरणं , तत् अचप (मूढाः)
प प+आिरणं न मुिचत ।

सारः
जनाः सुख िं स्त्रीभोग चदचिषयेषु व्य पृतो ितजते भोगे ि कृते क्रमेण शरीरं चिचिधव्य चधन आक्र न्तं भिचत । यद्यचप
िोके मरणं शरणं तद चप नैचमचषक सुख य मूढो िोकाः प पकमजम् अनिरतं करोत्येि ।

व्याकरणम्
 सम साः
 र म भोगाः = र म य ाः आभोगाः - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 प प िरणम् = प पस्य आिरणम् - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 कृदन्ताः
 आिरणम् = आ + िर् “िर गतौ” + ल्युि्-प्रत्ययाः ।
 मरणम् = मॄ “मॄ चहं स य म्” + ल्युि्-प्रत्ययाः ।
 तस्ित न्त:
 सुखताः = सुख + तचसि्-प्रत्ययाः ।
 चनिजिनम् (Etymology, i.e., derivation of the word)
 शरीरे = शीयजते इचत शरीरम् । तस्स्मन् ।

Sukhataḥ kriyatē rā mā bhō gaḥ


paścā d'dhanta śarīrē rō gaḥ ।
yadyapi lō kē maraṇ aṁ śaraṇ aṁ
tadapi na muñcati pā pā caraṇ am ॥ 28 ॥

Thou enjoy all conjugal pleasures so long as thou art strong and when thou
attain old age thou art victim to diseases. Death is inevitable unto thee.
Despite being aware of all these thou do not desist from sins.

29. अर्ज मनर्ं भािय वनत्यम्

श्लोकः
अिजमनिं भ िय चनत्यं
न स्स्त तताः सुखिेशाः सत्यम् ।
Grammatical aspects in Bhaja Govindam 58
“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

पुत्र दचप धनभ ज ं भीचताः


सिजत्रैष चिचहत रीचताः ॥२९॥

पदच्छे दः
अिं अनिं भ िय चनत्यं न अस्स्त तताः सुख+िेशाः सत्यं पुत्र त् अचप धन+भ ज ं भीचताः सिजत्र एष चिचहत रीचताः ।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = भ िय [ भू “भू अिकल्कने ” + चणि् -प्रत्ययाः (िुर चद गणाः) पर. िोि् . मपु. एक. ]
 चिशेषणम् = चनत्यम् [ अव्ययम् ] ~~ क िि िकपदम् |
 ि क्य ं शाः
 कमजपदम् = अिजम् [ अ. पु. चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 चिशेषणम् = अनिजम् [ अ. पु . चि. एक. ] ~~ कमज-चिधेय-चिशेषणम् |
 अव्ययम् = (इचत) ~~ कमजि क्य ं श-द्योतकपदम् |
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 कतृजपदम् = सत्यम् [ अ. नपुं . प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 कमज-ि क्यम्
 चक्रय पदम् = अस्स्त [ अस् “अस भुचि” पर. िि् . प्रपु . एक. ]
 चिशेषणम् = न [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् | प्रचतषेधपदम् |
 कतृजपदम् = सुख+िेशाः [ अ. पुं. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 अप द नपदम् = तताः [ अव्ययम् ]
 अव्ययम् = (इचत) ~~ कमजि क्य-द्योतकपदम् |
 तृतीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = (भिचत)
 कतृजपदम् = भीचताः [ इ. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 सम्बस्न्ध-पदम् = धन+भ ज ं [ अ. पुं . ष. बहु. ]
 अप द नपदम् = पु त्र त् [ अ. पुं. पं. एक. ] ~~ उप त्तचिषयम् आप द नम् |
 अव्ययम् = अचप [ अव्ययम् ] ~~ अिध रणम् |
 ितुिजि क्यम्
 चक्रय पदम् = (अस्स्त)
 कतृजपदम् = एष [ एतद् द. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = रीचताः [ इ. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् |
 चिशेषणम् = चिचहत [ आ. स्त्री. प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषण-चिशेषणम् |
 अव्ययम् = सिजत्र [ अव्ययम् ] ~~ थि नि िकपदम् |
अन्वयः
अिं अनिं चनत्यं भ िय । तताः सुख+िेशाः न अस्स्त (इचत) सत्यम् । पुत्र त् अचप धन+भ ज ं भीचताः (भिचत) ।
सिजत्र एष चिचहत रीचताः (भिचत) ।

सारः
अिं अनिजस्य क रणं भिचत । तताः सुखिेशोऽचप न िभ् येत इत्येि सत्यम् । धनभ ज ं स्वपुत्र दचप भीचताः ित्तजते ।
सिजत्र एष रीचताः चिचहत । ईदृशी रीचताः िोके दृष्ट इत्यिजाः ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 59


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 न स्स्त = न + अस्स्त - सिणजदीघजसस्न्धाः ।
 पुत्र दचप = पु त्र त् + अचप - जश्त्त्वसस्न्धाः ।
 सिजत्रैष = सिजत्र + एष - िृस्िसस्न्धाः ।
 सम साः
 सुख+िेशाः = सुखस्य िेशाः सुखिेशाः - षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 धन+भ ज म् = धनं भजस्न्त इचत धनभ जाः - उपपदतत्पुरुषाः। (धनं भजचत इचत धनभ क्) तेष म् ।

Arthamanarthaṁ bhā vaya nityaṁ


nā sti tataḥ sukhalē śaḥ satyam ।
putrā dapi dhanabhā jā ṁ bhītiḥ
sarvatraiṣā vihitā rītiḥ ॥ 29 ॥

Be assured that wealth is a source of danger. There is not a bit of real


happiness. Even the son is suspected by one who possesses wealth. He is ever
in a state of terror. There is no exception to this state of affairs.

30. प्राणायामं प्रत्याहारम्

श्लोकः
प्र ण य मं प्रत्य ह रं
चनत्य चनत्यचििेकचिि रम् ।
ज प्यसमेतसम चधचिध नं
कुिजिध नं महदिध नम् ॥ ३० ॥

पदच्छे दः
प्र ण य मं प्रत्य ह रं चनत्य+अचनत्य+चििेक+चिि रम् ज प्य+समेत+सम चध+चिध नं
कुरु अिध नं महत् अिध नम् ।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = कुरु [ कृ “डु कृञ् करणे” उभ. (अत्र पर.) िोि् . मपु . एक. ]
 चिशेषणम् = अिध नम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ चक्रय चिशेषणम् |
 ि क्य ं शाः
 कमजपदम् = प्र ण य मम् [ अ. पुं. चि. एक. ] ~~ चनिजत्यं कमज |
 कमजपदम् = प्रत्य ह रम् [ अ. पुं . चि. एक. ] ~~ चनिजत्यं कमज |
 कमजपदम् = चनत्य+अचनत्य+चििेक+चिि रम् [ अ. पुं . चि. एक. ] ~~ चनिजत्यं कमज |
 कमजपदम् = ज प्य+समेत+सम चध+चिध नम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ चनिजत्यं कमज |
 अव्ययम् = ि [ अव्ययम् ] ~~ संयोजकपदम् |
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 60


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = (कुरु)
 चिशेषणम् = अिध नम् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ चक्रय चिशेषणम् |
 चिशेषणम् = महत् [ अ. नपुं . चि. एक. ] ~~ चक्रय चिशेषण-चिशेषणम् |
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |

अन्वयः
प्र ण य मं प्रत्य ह रं चनत्य+अचनत्य+चििेक+चिि रं ज प्य+समेत+सम चध+चिध नम् अिध नं कुरु । महत् अिध नं
(कुरु) ।

सारः
प्र ण य माः इस्ियचनग्रहाः चनत्य चनत्यिस्तुचििेकाः जपसचहतसम चधाः श्रि ि अतीि श्रिय त्वय क य ज ाः । प्र ण य म-
प्रत्य ह रौ योग ङ्गत्वेन चनचदज ष्टौ ।

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 कुिजिध नम् = कुरु अिध नम् – यण् सस्न्धाः ।
 महदिध नम् = महत् अिध नम् - जश्त्त्वसस्न्धाः ।
 सम साः
 ज प्यसमेतसम चधचिध नम्
 सम चधचिध नम् - सम धेाः चिध नम् – षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 ज प्यसमेतसम चधचिध नम् – ज प्येन समेतं सम चधचिध नं यस्य तत् - बहुव्रीचहाः ।
 चनत्य चनत्यचििेकचिि रम्
 चनत्य चनत्ये = चनत्यं ि अचनत्यं ि – इतरे तरिन्द्िाः |
 चनत्य चनत्यचििेकाः = चनत्य चनत्योाः चििेकाः - षष्ठीतत्पुरुषाः |
 चनत्य चनत्यचििेकचिि रम् = चनत्य चनत्यचििेकस्य चिि राः – षष्ठीतत्पुरुषाः | तम् |
 कृदन्ताः
 अिध नम् = अि + ध “डु ध ञ् ध रणपोषणयोाः” + ल्युि्-प्रत्ययाः ।
 चिध नम् = चि + ध “डु ध ञ् ध रणपोषणयोाः” + ल्युि्-प्रत्ययाः ।
 तस्ित न्ताः
 ज प्यम् = जपसंबन्धौ आिरणम् इचत ।

Prā ṇ ā yā maṁ pratyā hā raṁ


nityā nityavivē kavicā ram ।
jā pyasamē tasamā dhividhā naṁ
kurvavadhā naṁ mahadavadhā nam ॥ 30 ॥

Thou hast discharged the duty of thy existence in this world if thou attain
the very difficult state of (samaadi) tranquility, controlling the breath
and food and cognizing the real from the unreal.

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 61


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

31. गुरुचरणाम्बुजवनभजरभक्तः

श्लोकः
गुरुिरण म्बुजचनभजरभक्ताः
सम्स र दचिर द्भि मुक्ताः ।
सेस्ियम नसचनयम दे िं
द्रक्ष्यचस चनजहृदयथिं दे िम् ॥ ३१ ॥

पदच्छे दः
गुरु+िरण+अम्बुज+चनभजर+भक्ताः संस र त् अचिर त् भि मुक्ताः सेस्िय+म नस+चनयम त् एिं द्रक्ष्यचस चनज+हृदयथिं
दे िम् ।

पदपररचयः
 प्रिमि क्यम्
 चक्रय पदम् = भि [ भू “भू सत्त य म्” पर. िोि् . मपु . एक. ]
 चिशेषणम् = अचिर त् [ अव्ययम् ] ~~ क िि िकपदम् – चक्रय चिशेषणम् |
 सम्बस्न्ध-पदम् = सेस्िय+म नस+चनयम त् [ अ. पुं . पं . एक. ] ~~ क रणि िकपदम् - (अत्र
आप द नं न) चक्रय -सम्बस्न्ध-पदम् |
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |
 चिशेषणम् = गुरु+िरण+अम्बुज+चनभजर+भक्ताः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृजचिशेषणम् |
 चिशेषणम् = मुक्ताः [ अ. पुं . प्र. एक. ] ~~ कतृज -चिधेय-चिशेषणम् | चक्रय गभजपदम् |
 अप द नपदम् = संस र त् [ अ. पुं . पं . एक. ] ~~ उप त्तचिषयम् आप द नम् |
 चितीयि क्यम्
 चक्रय पदम् = द्रक्ष्यचस [ दृश् “दृचशर् प्रेक्षणे ” पर. चिि् . मपु . एक. ]
 चिशेषणम् = एिम् [ अव्ययम् ] ~~ चक्रय चिशेषणम् |
 कमजपदम् = दे िम् [ अ. पुं. चि. एक. ] ~~ प्र प्यं कमज |
 चिशेषणम् = चनज+हृदयथिम् [ अ. पुं . चि. एक. ] ~~ कमजचिशेषणम् |
 कतृजपदम् = (त्वम्) ~~ शुिकत ज |

अन्वयः
गुरु+िरण+अम्बुज+चनभजर+भक्ताः (त्वं ) सेस्िय+म नस+चनयम त् संस र त् अचिर त् मुक्ताः भि । एिं (त्वं )
चनज+हृदयथिं दे िं द्रक्ष्यचस ।

सारः
गुरोाः प द म्बुजे अव्य जदृढभस्क्तयुक्ताः चजतेस्ियाः चनयतचित्तश्च सन् अचिर त् जचनमृचतरूप त् संस र त् मुक्तो भि ।
एिं जीिन्मुक्ताः िेत् हृदयस्थितं परम त्म नं द्रक्ष्यचस ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 62


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

व्याकरणम्
 सस्न्धाः
 संस र दचिर त् = संस र त् + अचिर त् – जश्त्त्वसस्न्धाः ।
 अचिर द्भि = अचिर त् + भि – जश्त्त्वसस्न्धाः ।
 सेस्ियम नसचनयम दे िम् = सेस्ियम नसचनयम त् + एिम् – जश्त्त्वसस्न्धाः ।
 सम साः
 गुरुिरण म्बुजचनभजरभक्ताः
 चनभजरभक्ताः - चनभजर भस्क्ताः यस्य साः - बहुव्रीचहाः ।
 गुरुिरण म्बुजम् – गुरुिरणमेि अम्बुजम् - अिध रण -पूिजपद-कमजध रयाः ।
 गुरुिरण म्बुजचनभजरभक्ताः = गुरुिरण म्बुजस्य चनभजरभक्ताः – षष्ठीतत्पुरुषाः ।
 सेस्ियम नसचनयम त्
 इस्ियम नस ाः = इस्िय चण ि म नसं ि – इतरे तरिन्द्िाः |
 इस्ियम नसचनयमाः = इस्ियम नस ं चनयमाः – षष्ठीतत्पुरुषाः |
 सेस्ियम नसचनयम त् = इस्ियम नसचनयमेन सह सेस्ियम नसचनयमाः - सहपू िजपदबहुव्रीचहाः । तस्म त् ।
 चनजहृदयथिम्
 चनजहृदयम् - चनजं हृदयम् । चिशेषणपूिजपदकमजध रयाः |
 कृदन्ताः
 चनजहृदयथिम् - चनजहृदये चतष्ठतीचत । चनजहृदय + थि “ष्ठ गचतचनिृत्तौ” + क-प्रत्ययाः |
चनजहृदयथिाः तम् ।
 भक्ताः = भज् “भज सेि य म्” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) |
 मुक्ताः = मुि् “मुिॢ मोक्षणे ” + क्त-प्रत्ययाः (कमजचण - सकमजकाः) |

Gurucaraṇ ā mbujanirbharabhaktaḥ
samsā rā dacirā dbhava muktaḥ ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 63


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

sē ndriyamā nasaniyamā dē vaṁ


drakṣyasi nijahr̥dayasthaṁ dē vam ॥ 31 ॥

With increasing devotion surrender thyself at the feet of thy Guru (the
Lord). Thou attain salvation, relieved from the bondages of the world. Thou
perceive the Lord in thy heart when thou bring under control thy body and
mind. Thus thou cut down the tree of transmigration.

* - * - * - * - * - *

 Source for the purport in Sanskrit – भज गोचिन्दम् अिि मोहमुद्गराः, Sanskrit Commentary by Dr. S.
Geethamani Amma and Dr. S. Sobhana (Teachers, Sree Sankaracharya University of Sanskrit, Kalady,
Kerala) published by Parimal publications Delhi. TODO – Purport in Sanskrit to be replace!
 English Translation by my grandfather, Sri S.R. Venugopalan. Source: Tattva Darsana
(http://sribharatamatamandir.org/word/wp-content/uploads/2015/04/TATTVA-DARSANA-32-1-
January-June-2015.pdf)
 Click Bhaja Govindam भज गोचिन्दम् for the entire text in nivedita2015.wordpress.com with word-to-
word English meaning by Sri Veeraswamy Krishnaraj of www.bhagavadgitausa.com

 Dhaaturoopanandinee – A collection of all ‘lakaras’ of all ‘dhaatus’ with grammatical notes by


Janardana Hedge, published by Samskrita Bharati [Sanskrit]

 Krudantaroopanandinee – A collection of nineteen “krudanta” roopas of all “dhaatus” with


grammatical notes by Janardana Hedge, published by Samskrita Bharati [Sanskrit]

 Gita Praveshah – prathamabhaaga by Samskrita Bharati [Sanskrit]

 Geetadhaturupavalih – A collection of all verb-declensions used in Bhagavad Geeta by H.R.


Vishwasa, published by Samskrita Bharati [Sanskrit]

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 64


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

* - * - * - * - * - *

Appendix 1 - Paadaakulakam Chandas (meter)

The chandas of the Bhaja Govindam song is प द कुिकम् which comes under म त्र छन्दस् । The metre
(छन्दस् ) of this song is moraic (म त्र छन्दस् ). Maatraachandas is the meter according to quantities. Note
that this is different from the meters like Anushtub that are based on syllables. In the syllable based
meters, the arrangement is based on short (laghu ”light”) or long (guru ”heavy”) where in a syllable is
metrically short only if it contains a short vowel and is not followed by consecutive consonants in the
same pada; and all other syllables are long, by quality (having a long vowel or diphthong) or by position
(being followed by a consonant cluster).

The maatra chandas is a meter in which it is not the number of syllables that determines the
arrangement, but the sum of the syllabic quantities per verse (short = 1 quantity, long = 2 quantities).

There are 4 quarters (प दाः) in each shloka. Each paada has 16 maatraas in this Paadakulakam
(प द कुिकम्) variety under Maatraachandas. In total 16 quantities much occur and it does not matter at
all how they are divided up.

The Maatra-chandas is rare in Sanskrit; but in modern Indian languages there is usually only this
particular meter. Owing to the freer choice of melody, the performance comes much closer to singing
than the other meters. This meter is especially suitable for being integrated into musical
accompaniments and being accompanied by drums and other percussion instruments (due to the layaa
aspect).

In Bhaja Govindam, apart from the first verse, all other verses have 16 mAtrAs (म त्र ), as per the
description of the pAdakulakam variety of mAtrAsamaka (म त्र समक) described in the
work, vRttaratnAkara (िृत्तरत्न कर) by Kedaarabhatta (केद रभट्ट).

1 2 3 4 5 6 7 8 9 # 11 12 13 14 15 16

पु न र चप ज न नम् पु न र चप म र नम्

पु न र चप ज न नी ज ठ रे श य नम्

इ ह सम् स रे ब हु दु स् त रे

कृ प य प रे प चह मु र रे

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 65


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16

भ ग िद् गी त चकञ् चि द धी त

ग ङ् ग ज ि ि ि क चण क पी त

स कृ द चप ये न मु र रर स मर् ि

चक्र य ते तस् य य मे न न िर् ि

Count 2 maatraas for long vowels (आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ) and short vowel+consonent (e.g., नम्)

References:

 https://en.wikipedia.org/wiki/Bhaja_Govindam

 https://en.wikipedia.org/wiki/Vedic_meter

 http://www.sriaurobindoandmother.com/…/Chhandas/-23_Padakulakam.htm

 Sound and Communication: An Aesthetic Cultural History of …

We can see here that the first verse does not completely fit in the chandas.

1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16

भ ज गो चिन् दम् भ ज गो चिन् द म्

गो चिन् दम् भ ज मू ढ म ते – –

सम् प्र प् ते सन् चन चह ते क िे

न चह न चह रक् श चत डु क् रुञ् क र ने

Appendix 2 – The 10 ganas or classes of verbs & List of Verbs

भज गोचिन्द श्लोकेषु स्थित न ं ध तोाः गणचििरणम्

The verb i.e., चतङन्तपदम् is arrived at based on the root, the specific gana
and the specific lakaara.

चतङन्तपदम् = ध तुाः + <गणचिकरणम् for the root’s gana> + <प्रत्ययाः for the lakaara>

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 66


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

i.e., पठ् + अ (for भ्व चदगणाः) + चतप् (for िि् िक राः -- प् is elided as it get the इत्
संज्ञ ) --> पठचत ।

There are 10 ganas of dhaatus. दश-गण ाः = भ्व चद, अद चद, जुहोत्य चद, चदि चद, स्व चद,
तुद चद, रुध चद, तन चद, क्रय चद, िुर चद

गणचिकरणम्

गणः गणविकरणम् उदाहरणम्


1 भ्व चद (कतजरर शप् ) “भू सत्त य म्”, “एध” – are the roots. पठ् + अ + चत = पठचत

2 अद चद (कतजरर शप् ) अस् + अ + चत is not असचत । It is अस्स्त due to the िोपाः by


the sutra अचदप्रभृचतभ्याः शपाः । िृक् छन्दचस बहुिम् – in the Vedas,
it could come differently.

3 जुहोत्य चद (कतजरर शप् ) द द + अ + चत । जु होत्य चदभ्याः श्लुाः । This means that the अ
goes out and the letter doubles (चित्वम्) itself in दद चत ।
भी --> चबभेचत । जु --> जुहोचत । Due to a different sutra, the
jaa changes to ha. The पूिज letter is repeted. अभ्य साः
means repetition. This kind of repetition of the first
word is referred to as पूि ज भ्य साः ।

4 चदि चद श्यन् --> य नृत् --> नृत् + य + चत = नृत्यचत

5 स्व चद श्नुाः--> नु शक् --> शक् + नु + चत = शक्नोचत

6 तुद चद श --> अ चिख् --> चिख् + अ + चत = चिखचत

7 रुध चद श्नम् --> न चछद् --> चछद् + न (before the last consonant) + चत = चछनचत्त

8 तन चद उ --> उ कृ --> करोचत = कृ + उ + चत । तन् --> तनोचत । कुरुते । तनुते ।

9 क्रय चद श्न --> न क्रीण चत = क्री + न + चत । ज्ञ --> ज न चत

10 िुर चद (कतजरर शप् ) िोरयचत = िुर् + चणि्+ शप् + चत । “... ...िुर चदभ्यो चनि् ” ।

भज गोचिन्दं श्लोकेभ्याः ध तोाः आििीाः


<धातु > <अर्जवनदे शः> <पदः> <इि् > < गणः> <प्र.पु . लि् > <सकमज/अकमज>
अज्ज अजज अजज ने परस्मै सेि् 1-भ्व चद अजज चत सकमज
अस् अस भु चि परस्मै सेि् 2-अद चद अस्स्त अकमज
आप् आपॢ व्य प्तौ परस्मै अचनि् 5-स्व चद आप्नोचत सकमज
इण् इण् गतौ परस्मै अचनि् 2-अद चद एचत सकमज
कुप् कुप क्रोधे परस्मै सेि् 4-चदि चद कुप्यचत अकमज
कृ डु कृञ् करणे उभय अचनि् 8-तन चद करोचत-कुरुते सकमज
क्रीड् क्रीडृ चिह रे परस्मै सेि् 1-भ्व चद क्रीडचत अकमज

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 67


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

चक्ष चक्ष क्षये परस्मै अचनि् 1-भ्व चद क्षयचत अकमज


गम् गमॢ गतौ परस्मै अचनि् 1-भ्व चद गच्छचत सकमज
गि् गि अदने परस्मै सेि् 1-भ्व चद गिचत अकमज
ग ग स्तु तौ परस्मै अचनि् 3-जु होत्य चद चजग चत सकमज
गुह् गुहू संिरणे उभय सेि् 1-भ्व चद गूहचत-ते सकमज
ग्रस ग्रस ग्रहणे उभय सेि् 10-िुर चद ग्र सयचत-ते सकमज
ग्रह् ग्रह उप द ने उभय सेि् 9-क्र्य चद गृह्ण चत-गृह्णीते सकमज
िर् िर गतौ परस्मै सेि् 1-भ्व चद िरचत सकमज
चिन्त् चिचत स्मृत्य म् उभय सेि् 10-िुर चद चिन्तयचत-ते सकमज
उत्पत्तौ अकमज ,
जन् जन जनने परस्मै सेि् 3-जु होत्य चद जजस्न्त उत्प दने सकमज
जन् जनी प्रदु भ ज िे आत्मने सेि् 4-चदि चद ज यते अकमज
जीि् जीि प्र णध रणे परस्मै सेि् 1-भ्व चद जीिचत अकमज
ज्ञ ज्ञ अिबोधने परस्मै अचनि् 9-क्र्य चद ज न चत सकमज
तॄ तॄ प्लिनतरणयोाः परस्मै सेि् 1-भ्व चद तरचत सकमज
त्यज् त्यज ह नौ परस्मै अचनि् 1-भ्व चद त्यजचत सकमज
दं श् दं श दशने परस्मै अचनि् 1-भ्व चद दशचत सकमज
द डु द ञ् द ने उभय अचनि् 3-जु होत्य चद दद चत-दत्ते सकमज
दृश् दृचशर् प्रेक्षणे परस्मै अचनि् 1-भ्व चद पश्यचत सकमज
ध ध ञ् डु ध रणपोषणयोाः उभय अचनि् 3-जु होत्य चद दध चत-धत्ते सकमज
ध्यै ध्यै चिन्त य म् परस्मै अचनि् 1-भ्व चद ध्य यचत सकमज
नन्द् िु नचद समृ िौ परस्मै सेि् 1-भ्व चद नन्दचत अकमज
नी णीञ् प्र पणे उभय अचनि् 1-भ्व चद नयचत-ते चिकमज
नु द् णुद प्रेरणे उभय अचनि् 6-तुद चद नु दचत-ते सकमज
पि् डु पिष् प के उभय अचनि् 1-भ्व चद पिचत-ते सकमज
पि् पि गतौ परस्मै सेि् 1-भ्व चद पिचत सकमज
प प प ने परस्मै अचनि् 1-भ्व चद चपबचत सकमज
प प रक्षणे परस्मै अचनि् 2-अद चद प चत सकमज
प ि् प ि रक्षणे उभय सेि् 10-िुर चद प ियचत-ते सकमज
पू पूङ् पिने आत्मने सेि् 1-भ्व चद पिते सकमज
प्रछ् प्रछ ज्ञीप्स य म् परस्मै अचनि् 6-तुद चद पृच्छचत चिकमज
बुध् बुध अिगमने परस्मै सेि् 1-भ्व चद बोधचत सकमज
भज् भज सेि य म् उभय अचनि् 1-भ्व चद भजचत-ते सकमज
भू भू सत्त य म् परस्मै सेि् 1-भ्व चद भ ियचत-ते अकमज
भू भू अिकल्कने उभय सेि् 10-िुर चद भ ियचत-ते सकमज
मन् मन ज्ञ ने आत्मने अचनि् 4-चदि चद मन्यते सकमज

चमद् चञचमद स्नेहने आत्मने सेि् 1-भ्व चद मे दते अकमज

मु ि् मु िॢ मोक्षणे उभय अचनि् 6-तुद चद मु िचत-ते सकमज


मॄ मॄ चहं स य म् परस्मै सेि् 9-क्र्य चद मृ ण चत सकमज
य य प्र पणे परस्मै अचनि् 2-अद चद य चत सकमज
युज् युचजर् योगे उभय अचनि् 7-रुध दयाः युनस्क्त / युङ्क्ते सकमज
रक्ष् रक्ष प िने परस्मै सेि् 1-भ्व चद रक्षचत सकमज
रञ्ज् रञ्ज र गे उभय अचनि् 1-भ्व चद रजचत-ते अकमज

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 68


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

रम् रमु क्रीड य म् आत्मने अचनि् 1-भ्व चद रमते अकमज


िभ् डु िभष् प्र प्तौ आत्मने अचनि् 1-भ्व चद िभते सकमज
िस् िस चनि से परस्मै सेि् 1-भ्व चद िसचत अकमज
िस् िस आच्छ दने आत्मने सेि् 2-अद चद िस्ते सकमज
ि ञ्छ् ि चछ इच्छ य म् परस्मै सेि् 1-भ्व चद ि ञ्छचत सकमज
चिद् चिद ज्ञ ने परस्मै सेि् 2-अद चद िेचत्त सकमज
चिद् चिदॢ ि भे उभय अचनि् /सेि् 6-तुद चद चिन्दचत-ते सकमज
चिश् चिश प्रिेशने परस्मै अचनि् 6-तुद चद चिशचत सकमज
िृज् िृजी िजज ने उभय सेि् 10-िुर चद िजज यचत-ते सकमज
शी शीङ् स्वप्ने आत्मने सेि् 2-अद चद शे ते अकमज
शु ष् शु ष शोषणे परस्मै अचनि् 4-चदि चद शु ष्यचत अकमज
सञ्ज् षञ्ज सङ्गे परस्मै अचनि् 1-भ्व चद सजचत सकमज
सृज् सृज चिसगे परस्मै अचनि् 6-तुद चद सृजचत सकमज
थि ष्ठ गचतचनिृत्तौ परस्मै अचनि् 1-भ्व चद चतष्ठचत अकमज
हन् हन चहं स गत्योाः परस्मै अचनि् 2-अद चद हस्न्त सकमज
ह ओह क् त्य गे परस्मै अचनि् 3-जु होत्य चद जह चत सकमज
हृ हृञ् हरणे उभय अचनि् 1-भ्व चद हरचत-ते चिकमज

Appendix 3 – Set, Vet, Anit – Inflection Patterns


Patterns of Inflection - Set, Vet and Anit classifications in Bhaja Govindam

भज गोविन्द श्लोकेषु - सेि् अवनि् िेि् ।

Verbs are classified into सेि्, अचनि् and िेि् based on whether there is इ-आगमाः i.e., इड गमाः । For
example, consider the root भज । Its तुमुन् form is भचजतुम् । We notice that it is भज् + इ + तुम् । This
inclusion of इ is called इड गमाः । If a ध तु gets इड गमाः, then it is a सेि् (स + इि् ) ध तु . If a ध तु does not get
इड गमाः, then it is अचनि् (अन् + इि् ). Where इड गमाः is optional, it is िेि् (ि + इि् ).

Here are some examples from Bhaja Govindam !

<धातु> <अर्जवनदे शः> <इि् > <तुमुनन्तः> <आदे शः>


ज्ञ ज्ञ अिबोधने अचनि् ज्ञ तुम् आ --> आदे शाः न
चक्ष चक्ष क्षये अचनि् क्षेतुम् इ --> ए
नी णीञ् प्र पणे अचनि् नेतुम् ई --> ए
कृ डु कृञ् करणे अचनि् कतुजम् ऋ --> अर्
ध्यै ध्यै चिन्त य म् अचनि् ध्य तुम् ऐ --> आ
आप् आपॢ व्य प्तौ अचनि् आप्तुम् अस्स्मन् हिन्ते --> आदे शाः न
दृश् दृचशर् प्रेक्षणे अचनि् द्रष्ट्िुम् अस्स्मन् हिन्ते --> अन्य आदे शाः

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 69


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

मुि् मुिॢ मोक्षणे अचनि् मोक्तुम् उप न्त्य-ह्रस्व-स्वरस्य गु णाः उ --> ओ


भू भू सत्त य म् सेि् भचितुम् ऊ --> ऊ+इ
तॄ तॄ प्लिनतरणयोाः सेि् तररतुम् / ॠ --> इ / ई
तरीतुम्
प ि् प ि रक्षणे सेि् प िचयतुम् (िुर दी गणाः) --> इ
क्रीड् क्रीडृ चिह रे सेि् क्रीचडतुम् अस्स्मन् हिन्ते --> इ
अस् अस भुचि सेि् भचितुम् अस्स्मन् हिन्ते --> इ (अस् --> भि् )
बुध् बुध अिगमने सेि् बोचधतुम् अस्स्मन् हिन्ते --> इ । उप न्त्य-ह्रस्व-स्वरस्य
गुणाः उ --> ओ
चिद् चिद ज्ञ ने सेि् िे चदतुम् अस्स्मन् हिन्ते --> इ । उप न्त्य-ह्रस्व-स्वरस्य
गुणाः इ --> ए

References:

https://grammarofsanskrit.wordpress.com/category/किं-भिस्न्त-पद चन/तुमन्तचसस्िाः/तुमन्तचसस्िाः-
३/

Appendix 4 – Suffixes – Pratyayas प्रत्ययाः


 कृदन्ताः (ध तोाः चिचहताः)
 क्त्व -प्रत्ययाः – सम नकतृज कयोाः ध त्विजयोाः पूिजक िे चिध्यम न त् ध तोाः क्त्व स्य त् | उद . दृश्-इचत ध तोाः
क्त्व न्तपदं दृष्ट्व इचत भिचत ।
 चणि्-प्रत्ययाः – यत्र कचश्चत् अन्यं प्रितजयेत् तत्र एतद् प्रत्ययाः भिचत | उद . नुद्-इचत ध तोाः चणजन्तपदं
नोदय इचत भिचत |
 शतृ -प्रत्ययाः - अयं प्रत्ययाः कत्रजिे भिचत | उद . दृश् -इचत ध तोाः शतृ प्रत्यय न्तपदं पश्यन् इचत भिचत ।
 क्तितु-प्रत्ययाः - अयं प्रत्ययाः भूत िजकत्वे कतजरर भिचत | उद . गम्-इचत ध तोाः क्तितु प्रत्यय न्तपदं गति न्

 क्त-प्रत्ययाः - अयं प्रत्ययाः भूते एि आचधक्येन श्रूयते | उद . गम्-इचत ध तोाः क्त न्तपदं गताः इचत भिचत
|
 ल्युि्-प्रत्ययाः – अयं प्रत्ययाः ध तुम त्र त् भ िे चिचहताः | उद . मन्-इचत ध तोाः ल्यडन्तपदं म नम् इचत
भिचत ।
 घञ्-प्रत्ययाः - अयं प्रत्ययाः भ िे भिचत | उद . त्यज् -इचत ध तोाः घञन्तपदं त्य गाः इचत भिचत |
 यत् -प्रत्ययाः - अयं प्रत्ययाः भ िकमजणोाः चिचहताः | अजन्तेभ्याः ध तुभ्याः एि | उद . ग -इचत ध तोाः
यत्प्रत्यय न्तपदं गेयम् इचत ग तुं योग्यम् इत्यिे भिचत ।
 तस्ित न्ताः (सुबन्त त् चिचहताः)
 अण् -प्रत्ययाः – “तेन रक्तं र ग त्” इत्यिे | उद . कष य + अण् -प्रत्ययाः = क ष य म् । कष ये ण रक्तम्

 इिि् -प्रत्ययाः – मतुबिे (तद् अस्य अस्स्मन् ि अस्स्त) | उद . जि + इिि् -प्रत्ययाः = जचििाः |
जि अस्य स्तीचत ।

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 70


“भज गोचिन्दम” श्लोके स्थित : केचित् व्य करणचिषय ाः

 इचन-प्रत्ययाः – मतुबिे (तद् अस्य अस्स्मन् ि अस्स्त) | उद . मुण्ड + इचन-प्रत्ययाः = मुण्डी | मुण्डम्
अस्य स्तीचत ।
 ितुप्-प्रत्ययाः - पररम णे | उद . तत् + ितुप्-प्रत्ययाः = तित् ।
 िचत-प्रत्ययाः – तुल्यचमत्यिे | उद . ब िोन्मत्त ाः + िचत-प्रत्ययाः = ब िोन्मत्तित् । ब िोन्मत्त भ्य ं तुल्यम् ।
 मयि् -प्रत्ययाः – स्व िे | उद . म य + मयि् -प्रत्ययाः = म य मयम् | म य यस्य प्रकृचताः अस्स्त तत्
म य मयम् ।
 तचसि्-प्रत्ययाः – पिम्यिे | उद . सुख + तचसि्-प्रत्ययाः = सुखताः । तस्म त् इत्यिे |

Grammatical aspects in Bhaja Govindam 71

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