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५६
उ के ववभाजन-२८, १४, ७, ४, २, १ (मूल क वमला कर ७ स्तर)
स के ववभाजन-२३, १२, ६, ३, २, १।
४६
क े
वपण् से सूक्ष्म जल जै सा है वजसे उदक कहते हैं , यह अगली ७ पीवढ़य ों तक प्रभावी रहता है । १४ पीढ़ी तक
ुे
उदक् प्रभाव ववश्व के १४ भू त सगण के अनु सार हैं । वपतर तपण ण में वपण् और उदक तक ही तपणण करते हैं । कुल
परम्परा
अ नि ह ने से वपण् दक वक्रया बन्द ह जाती है -पतत्मन्त वपतर ह्येषाों , लु ि वपण् दक वक्रयाः (गीता १/४२)।
वपण्
प में भी मूल से ३ पूवण तक केवल वपण् तर्ा उससे पूवण के ३ ले प (वपण् + जल) हैं ।
इससे
ने आगे ७ पीढ़ी तक ऋवष प्रभाव रहता है । ग त्र कारक ऋवष अवङ्गरा (अङ्गार = वनकलना) के वववत्तण हैं , ज
ुे प्रकार के हैं -ये वत्रषिाः पररयत्मन्त ववश्वाः (अर्वण १/१/१),
२१
पू
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सिास्यासन् पररियः, वत्रस्सि सवमिः कृताः (पुरुष सूक्त, १५)
एकववोंशौ ते अन ऊरू (कािक सोंवहता ३९/२, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १६/३३/५).,
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६.
ववग्रह ों में वपता पुत्र या पु रुष स्त्री-सौर मण्ल के ग्रह ों की उत्पवत्त सूयण (यः सूयवत स सूयणः) से हुयी है । अतः सूयण
व है । मनु ष्य तर्ा अन्य जीव ों के जन्म का थर्ान पृथ्वी माता है , जै से माता के गभण में जन्म ह ता है ।
वपता
व
द्यौष्ट्
य वा वपता पृवर्वी माता जरामृ त्युों कृणुताों सोंववदानौ। (अर्वण २/२८/२)
आकाश
वव
ए
म के ३ िाम में वजतने सीमाबद्ध (पृर्ु) वपण् हैं वे पृथ्वी (भू ) हैं , उनके चार ों तरफ फैला आकाश द्यौ (स्वः)
हैं । बीच का अन्तररक्ष भु वः ल क है । भू -स्वः के ३ ज ड़े ३ माता-वपता हैं । सूयण चि से प्रकावशत भाग क पृथ्वी
वव
कहा है । द न ों से प्रकावशत पृथ्वी ग्रह प्रर्म पृथ्वी है। सूयण प्रकाश का क्षे त्र सौरमण्ल दू सरी पृथ्वी है वजसमें ग्रह
व
वव
कक्षाओों से बने क्षे त्र ों क भी पृथ्वी के द्वीप ों जै सा नाम वदया गया है । सूयण प्रकाश की अत्मन्तम सीमा ब्रह्माण् सूयों
व
का समू ह है , वह तीसरी पृथ्वी है वजसके केिीय घूमते चक्र क पृथ्वी जै सा (आकाश) गङ्गा कहते हैं । इन सभी
वव
त
पृथ्वी की तुलना में उनका आकाश उतना ही बड़ा है वजतना मनु ष्य की तुलना में पृथ्वी ग्रह। अर्ाण त्, मनु ष्य, पृथ्वी,
व
वव
उ
सौर मण्ल, ब्रह्माण्, पूणण ववश्व क्रमशः १-१ क वट गुणा बड़े हैं । क वट = सीमा, सभी के वलये ववश्व की सीमा १००
व
त
प
लाख गुणा है अतः १०० लाख = क वट। १ क वट = २ घात २४, अतः गायत्री छन्द क ल क ों की माप कहते हैं ।
वव
त
या ते िामावन परमावण यावमा या मध्यमा ववश्वकमण न्नुतेमा । (ऋग्वे द १०/८१/४)
वतस्र
व मातॄस्त्रीन् वपतॄन् वबभ्रदे क ऊर्ध्ण तथर्ौ ने मवग्लापयत्मन्त ।
वव
मन्त्यन्ते
उ वदव अमु ष्य पृष्ठे ववश्ववमदों वाचमववश्ववमिाम् ॥ (ऋग्वे द १/१६४/१०)
वतस्र
वव
वव
य भू म ीिाण रयन् त्रीरुत द् यून्त्ीवण व्रता ववदर्े अन्तरे षाम् ।
ऋते
वव नावदत्या मवह व मवहत्वों तदयणमन् वरुण वमत्र चारु ॥ (ऋग्वे द २/२७/८)
वव
रवव चिमस याण वन्मयूखैरवभास्यते । स समु द्र सररच्छै ला पृवर्वी तावती िृता ॥
व
आ
व
यावत्प्रमाणा पृवर्वी ववस्तार पररमण्लात् ।
य
नभस्तावत्प्रमाणों
ण वै व्यास मण्लत वद्वज ॥ (ववष्णु पुराण २/७/३-४)
स
गायत्र
ववव वै पुरुषः (ऐतरे य व्राह्मण ४/३)
वव
या
वव वै सा गायत्र्यासीवदयों वै सा पृवर्वी (शतपर् ब्राह्मण १/४/१/३४)
वव
वव
गायत्र्या वै दे वा इमान् ल कान् व्याप्नुवन्। (ताण्ड्य महाब्राह्मण १६/१४/४)
व
व
मनु ष्य के गात्र का वनमाण ण गायत्री (२४) वषण में ह ता है । उससे २ घात २४ गुणा पृथ्वी गायत्री है । इसी क्रम से क वट
व
गुणा सौर मण्ल साववत्री, तर्ा ब्रह्माण् सरस्वती है , ज गायत्री के अगले रूप हैं ।
वव
वव
वव मनु ष्य के वलये पृथ्वी माता, सूयण वपता, ब्रह्माण् वपतामह तर्ा स्वयम्ू मण्ल प्रवपतामह हुआ।
अतः
वव
व
ववष्य २४ (गायत्री) वषण तक वशक्षा ग्रहण करता है , उसके बाद उत्मष्णक् (२८) वषण तक उष्णीश (पगड़ी) रखता या
मनु
वव
रपररवार
वव का भार वहन करता है । उसके बाद जगती (४८) वषण तक जगत् कायों में लग कर श्री, यश प्राि करता
व
व (ऐतरे य ब्राह्मण १/५)। मनुष्य जब पररवार का दावयत्व छ ड़ दे ता है , तब पुत्र वहन करता है । इसी प्रकार सौर
है
व
मण्ल में वकसी ग्रह की वक्रया सीमा पर ज ग्रह है वह उसका पुत्र है । भागवत पुराण, स्कन्ध ५ में ने पचून तक
च
वव
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की ग्रह कक्षा क १०० क वट य जन व्यास (पृथ्वी व्यास = १००० य जन) की चक्राकार पृथ्वी कहा गया है । पर सूयण
वव
व
या
व ग्रह ों का प्रभाव सूयण से उसके १००० व्यास तक ही अनु भव ह ता है । सूयण = अक्ष, िुरी या चक्षु । उससे १०००
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व्यास दू री तक का क्षे त्र सहस्राक्ष हुआ। इसकी सीमा पर शवन है अतः वह सूयण का पुत्र है । शवन तक के ग्रह ों की
वव
त पृथ्वी गवत पर प्रभाव की गणना की जाती है , फवलत ज्य वतष में भी वहीों तक के ग्रह कहे जाते हैं ।
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सू
वव यण क्ए वनकट के मों गल तक के ग्रह ि स वपण् हैं । बृहस्पवत तर्ा अन्य बाहरी ग्रह गैसीय हैं । ि स ग्रह ों का क्षे त्र
दवि
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त समु द्र कहा है । इसमें सबसे बड़ी पृथ्वी है । ि स ग्रह ों की सीमा पर अत्मन्तम ग्रह पृथ्वी का पुत्र मों गल हुआ
व
वजसे
वव भौम, कुज (कु = पृथ्वी) कहते हैं ।
स
ववसवव सवव॥ (ऋवव १०/१३०/१)
वव
अ
वव
वव
ववतवव॥ (ऋवव १०/१३०/२)
वव
व
पृथ्वी की कक्षा में चि का एक ही सतह दीखता है क्य वों क वजतने समय (२७.३ वदन) में यह पृथ्वी की पररक्रमा
करता है , उतने ही समय में अपने अक्ष की पररक्रमा करता है । इसी प्रकार बुि वजतने समय (८८ वदन) में सूयण की
पररक्रमा करता है , उसके २/३ समय (५८.७ वदन) में अपने अक्ष की पररक्रमा करता है । यह चि जै सा तर्ा
उससे दू र है अतः चि का पुत्र हुआ। एक अनु मान है वक पहले यह भी पृथ्वी की कक्षा में चि के बाद र्ा। चि
आकषण ण के कारण समु द्र जल का कुछ भाग उसकी वदशा में उि जाता है तर्ा पृथ्वी पर ब्रेक का काम करता
है । पृथ्वी का अक्ष भ्रमण प्रवत वषण २ माइक्र सेकण् िीमा ह जाता है तर्ा चि ३ सेण्टीमीटर दू र हट जाता है ।
बुि बाहरी कक्षा में र्ा अतः चि की तरह इसका अक्ष भ्रमण पररक्रमा के अनु पात में र्ा। दू र हटते हटते यह
पृथ्वी कक्षा से वनकल गया और अभी सूयण कक्षा में है । यह प्रायः २ अरब वषण पहले हुआ जब से आज जै सी ग्रह
कक्षा हुई और उसे सृवि सम्वत् कहते हैं । चि कक्षा की सीमा पर रहने या उसके जै सा अक्ष भ्रमण करने वाला
दू र का ग्रह ह ने से चि का पु त्र बुि है ।
सूयण वकरण ों का प्रवाह सौर वायु है वजसे यजु वेद आरम् में ईषा कहा गया है । पुराण ों के अनु सार सूयण का
ईषादण् १८००० य जन (पररवि) है , अर्ाण त् वत्रज्या ३००० य जन या यूरेनस कक्षा तक।
इषे त्वा ऊजे त्वा वायवथर्ः (वाज. यजु १/१)
य जनानाों सहस्रावण भास्करस्य रर् नव। ईषादण्स्तर्ै वास्य वद्वगुण मु वनसत्तम॥ (ववष्णु पुराण (२/८/२) ववष्णु
पुराण (१/१०/११)-क्रत श्च सन्तवतभाण याण वालत्मखल्यानसूयत।
षविपुत्रसहस्रावण मुनीनामू र्ध्णरेतसाम् । अोंगुष्ठपवणमात्राणाों ज्वलद् भास्करतेजसाम् ।
भागवत पुराण (५/२१/१७)-तर्ा बालत्मखल्यानाों ऋषय ऽङ्क्गुष्ठपवणमात्राः षवि सहस्रावण पुरतः सूयण सूक्त वाकाय
वनयुक्ताः सोंस्तुवत्मन्त।
सूयण वसद्धान्त (१२)- भवेद् भकक्षा वतग्ाों श भ्रण मणों षवितावडतम् । सवोपररिाद् भ्रमवत य जनैस्तैभणमण्लम् ॥८०॥
सौर वायु या ग्रहकक्षा रूप पृवर्वी पर ही क्रतु (यज्ञ) ह सकता है । उसकी सीमा का क्षे त्र क्रतु की सन्तवत है
वजसमें ६०,००० बालत्मखल्य अङ्क्गुष्ठ आकार के हैं । पृथ्वी आकाश के वलये मापदण् है , इसे ९६ अोंगुल का पुरुष
मानें त अोंगुष्ठ या १ अोंगुल = १२८००/९६ = १३५ वकल मीटर। इतने व्यास के ६०००० बालत्मखल्य हैं । सूयणवसद्धान्त
में इसे नक्षत्र कक्षा कहा है ज सूयण तुलना में ६० गुणा दू र है (६० AU)। २००८ में पहली बार पता चला वक ४५-६५
AU दू री पर ७०,००० छ टे ग्रह हैं वजनका व्यास १०० वकल मीटर से अविक है । उसके बाद प्लूट क ग्रह सूची से
बाहर वकया।
आकाश में ज वषाण करता है वह वृषा या पुरुष है । ग्रहण करने वाला युषा (युक्त ह ना) या स्त्री है । सूयण तेज का
वववकरण करता है , अतः स्पि रूप से पुरुष है । चि वजतना तेज सूयण से ले ता है उससे बहुत कम दे ता है , अतः
स्त्री है । बृहस्पवत एक छ टा तारा जै सा है और वजतना तेज सूयण से वमलता है , उससे अविक दे ता है , अतः पुरुष
ग्रह है । बुि और शवन अवत वनकट या अवत दू र रहने के कारण इनके ग्रहण-वववकरण का अन्तर हमारे वलये बहुत
कम है , ये नपुोंसक हुए। मों गल सूयण और बृहस्पवत द न ों का तेज दे ता है , अतः पुरुष ग्रह है ।
य षा वा ऽइदों वाग् यदे नों न युववत (शतपर् ब्राह्मण ३/२/१/२२)
य षा वै वेवदः वृषा अवनः (शतपर्ब्राह्मण १/२/५/१५)
स एष (आवदत्यः) सिरत्मिः वृषभस्तु ववष्मान् (ऋक् २/१२/१२)-जै वमनीय उपवनषद् (१/२८/२)
तद् यत् कम्पायमान रे त वषण वत, तिाद् वृषा कवपः (ग पर् ब्राह्मण, उत्तर ६/१२)